भारत और इंग्लैंड के बीच मौजूदा टेस्ट सीरीज के दौरान गेंदों को बार-बार बदला जाना चर्चा में रहा. मैच के दौरान मैदानी अंपायर गेंद को जांचने के लिए कई बार 'रिंग टेस्ट' करते देखे गए. यानी सीरीज के दौरान गेंदें जल्दी अपनी शेप खो रही थीं. अब यह जानना जरूरी है कि रिप्लेसमेंट बॉल को कहां से लाया जाता है, इन्हें कैसे चुना जाता है और कैसे इस्तेमाल में लाया जाता है? आइए जानते हैं पूरी प्रक्रिया.
मैच के दौरान रिप्लेसमेंट गेंदें कहां से आती हैं?
टेस्ट मैच से दो या तीन दिन पहले, जिस मैदान पर मैच होना है, वहां का मेजबान एसोसिएशन अपने स्टेडियम में खेले गए फर्स्ट-क्लास मैचों की पुरानी गेंदें चौथे अंपायर को देता है. अगर मैच ओल्ड ट्रैफर्ड में है, तो लंकाशायर ये गेंदें देता है, अगर सिडनी में है, तो न्यू साउथ वेल्स और अगर वानखेड़े में है, तो मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन गेंदें देता है. इन गेंदों का इस्तेमाल जरूरत पड़ने पर रिप्लेसमेंट बॉल के तौर पर किया जाता है.
चौथा अंपायर इन गेंदों को एक खास गेज से परखता है. अगर गेंद गेज के एक रिंग से निकल जाती है, लेकिन दूसरे से नहीं... तो वह गेंद “बॉल लाइब्रेरी” में रखने के योग्य मानी जाती है. बॉल लाइब्रेरी वही बॉक्स होता है जिसे टेस्ट मैच के दौरान गेंद बदलते हुए देखा जाता है.
अगर गेंद दोनों रिंग्स से निकल जाती है, तो वह बहुत छोटी होती है और खेलने के लिए उपयुक्त नहीं होती. अगर गेंद किसी भी रिंग से नहीं निकलती, तो वह बहुत बड़ी होती है. इसलिए जो गेंद एक रिंग से निकलती है, लेकिन दूसरे से नहीं, तो उसका आकार सही माना जाता है और वही गेंद खेलने के लिए उपयुक्त होती है.
भारत, इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया में आमतौर पर 20 रिप्लेसमेंट गेंदें रखी जाती हैं, लेकिन कुछ देशों में यह संख्या 12 तक हो सकती है.
अगर चौथे अंपायर को पर्याप्त योग्य गेंदें नहीं मिलती हैं, तो वह अन्य अंपायरों और मैच रेफरी से बात कर एसोसिएशन से और गेंदें मंगवाते हैं. नई गेंदों के लिए भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती है. हर नई गेंद को टेस्ट मैच से पहले रिंग्स के बीच से जांचा जाता है.
कोशिश की जाती है कि थोड़ी नई से लेकर पुरानी तक कई तरह की गेंदें उपलब्ध हों, लेकिन उन्हें कितने ओवर चली हैं, इस हिसाब से नहीं रखा जाता. उदाहरण के लिए, जो गेंद हरे मैदान (lush outfield) पर 60 ओवर तक चली हो, वह सूखे मैदान (dry outfield) पर 30 ओवर चली गेंद की जगह रिप्लेसमेंट के तौर पर इस्तेमाल की जा सकती है.
क्या हर स्थिति के लिए बिल्कुल सही रिप्लेसमेंट गेंद मिलती है?
नहीं, बिल्कुल वैसी ही (like-for-like) गेंद देना संभव नहीं होता. सबसे अच्छा यही किया जा सकता है कि जो गेंद खराब हुई है, उसके सबसे करीब की हालत वाली गेंद दी जाए, वह थोड़ी पुरानी भी हो सकती है या थोड़ी नई भी.
इसी कारण अंपायर तब तक गेंद बदलने से बचते हैं जब तक उसकी शेप पूरी तरह से खराब न हो जाए. खेल की निष्पक्षता बनाए रखने के लिए सामान्य नियम यही है कि गेंद तभी बदली जाए जब मौजूदा गेंद से खेल जारी रखना संभव न हो. टीमें अक्सर अपनी पसंद की गेंद चाहती हैं, लेकिन किसी भी बदलाव से एक टीम असंतुष्ट रह सकती है.
ध्यान रखें कि नियमों में गेंद नरम होने पर उसे बदलने की अनुमति नहीं है. गेंद तभी बदली जाती है जब उसमें साफ चोट, गीला होना या आकार बिगड़ना हो. नियमों में यह नहीं लिखा है कि गेंद पूरी तरह गोल होनी चाहिए. गेंद के आकार की जांच के लिए बस यह देखा जाता है कि वह गेज की दोनों रिंग्स से नहीं निकलती या दोनों से निकल जाती है. अगर गेंद एक रिंग से निकलती है और दूसरी से नहीं, और उसकी सिलाई ठीक है और गेंद सूखी है, तो चाहे वह नरम लगे, आपको उसी गेंद के साथ खेल जारी रखना होगा.
रिप्लेसमेंट गेंदें केवल लोकल फर्स्ट-क्लास मैच से ही आते हैं?
नहीं, मैच अधिकारी को कभी-कभी तुरंत निर्णय लेने पड़ते हैं. अगर उन्हें लगता है कि रिप्लेसमेंट गेंदें जल्दी खत्म हो रही हैं, तो वे टीमों से उनके नेट्स में इस्तेमाल हुई गेंदें मांग सकते हैं. उन गेंदों को भी उसी तरह जांचा जाता है और सही पाए जाने पर बॉल लाइब्रेरी में रखा जाता है.
सीरीज के दौरान इस्तेमाल हुई गेंदें भी मैच में लाई जा सकती हैं. अगर सीरीज की कोई टेस्ट पारी 45 ओवरों तक चली हो और उस गेंद की हालत ठीक हो (यानी वह क्वालिटी जांच में पास हो जाए) और कोई गेंदबाज उसे 5 विकेट लेने की यादगार के तौर पर न रखना चाहे तो वह गेंद भी बॉल लाइब्रेरी में रखी जा सकती है.
ऐसे कई मौके भी आए हैं जब मैच में इस्तेमाल हो रही गेंदें बहुत जल्दी अपनी शेप खो बैठीं, और तब मैच रेफरी को पास के राज्य या काउंटी एसोसिएशन से और गेंदें मंगवानी पड़ीं.
सीरीज में इस्तेमाल हुई अच्छी स्विंग वाली कोई गेंद बाद में फिर से लाई जा सकती है?
हां, ऐसा हो सकता है, लेकिन किसी को यह पता नहीं होता कि ऐसी कौन-सी गेंद है. गेंदों पर कोई खास पहचान का निशान (marking) नहीं होता, और एक बार जब गेंदें बॉल लाइब्रेरी में चली जाती हैं, तो उन्हें पहचान पाना लगभग नामुमकिन होता है.
क्या अंपायर गेंदबाजी टीम की सहमति के बिना गेंद बदल सकते हैं?
हां, अंपायर ऐसा कर सकते हैं, लेकिन वे तभी करते हैं जब उन्हें लगे कि गेंद से छेड़छाड़ (ball tampering) हुई है, या गेंद इतनी नुकसान पहुंची है कि उसे सिर्फ कैंची से ठीक करना भी संभव नहीं. बॉल टैम्परिंग का मतलब धोखाधड़ी होता है, इसलिए इसके लिए स्पष्ट सबूत चाहिए.
अंपायर आमतौर पर खुले तौर पर आरोप नहीं लगाते, लेकिन अगर कुछ गड़बड़ लगे, तो चुपचाप गेंद बदल देते हैं. अंपायर खुद से गेंद बहुत कम ही बदलते हैं. वे गेंद की जांच हर विकेट के बाद, ड्रिंक ब्रेक में, जब गेंद LED बोर्ड या दर्शकों में जाए, और लंबे ब्रेक पर करते हैं. ओवर के बीच या ओवर के दौरान वे गेंद नहीं जांचते.
लॉर्ड्स में दूसरे दिन सुबह गेंद खराब थी, लेकिन भारत के लिए अच्छी भी थी. अगर भारत ने नहीं मांगा होता, तो गेंद नहीं बदली जाती. लेकिन रिप्लेसमेंट गेंद ने भारत की मदद नहीं की और 8 ओवर में ही खराब हो गई.
क्या गेंदों का आकार बिगड़ना किसी खास ब्रांड की समस्या है?
टेस्ट क्रिकेट में तीन ब्रांड की गेंदें इस्तेमाल होती हैं. भारत में SG, इंग्लैंड और वेस्टइंडीज में Dukes, और बाकी जगहों पर Kookaburra. गेंदों का आकार बिगड़ना किसी एक ब्रांड तक सीमित नहीं है.
2010 के दशक के अंत में एक समय ऐसा भी था जब एसजी अक्सर अपनी शेप खो देती थीं और एसजी द्वारा प्रायोजित होने के बावजूद भारतीय खिलाड़ी इस बात को लेकर शिकायत करते थे. Kookaburra गेंद की सीम बाकी दोनों की तुलना में कम दिखती थी, लेकिन अब इसे मजबूत बनाया गया है. Dukes गेंद पर अब दोनों टीमों से बहुत शिकायतें हो रही हैं. वेस्टइंडीज सीरीज के पहले टेस्ट में भी खिलाड़ियों को Dukes गेंद पसंद नहीं आई.
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