Vaibhav Laxami Vrat Katha: शुक्रवार के दिन जरूर पढ़ें वैभव लक्ष्मी व्रत कथा, बनी रहेगी देवी की कृपा

Shukrawar Vaibhav Laxami Vrat Katha: शुक्रवार को लक्ष्मी माता का व्रत रखा जाता है. इसे 'वैभव लक्ष्मी व्रत' भी कहा जाता है. इस दिन मां वैभव लक्ष्मी की कथा सुनने से व्यक्ति की हर मनोकामना पूरी हो जाती है. इस दिन व्रत रखना काफी फलदायी माना जाता है. इससे व्यक्ति को कभी भी धन-सपंत्ति की समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता है. आइए जानते हैं वैभव लक्ष्मी व्रत की कथा और उद्यापन की विधि.

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Vaibhav Laxami Vrat Katha Vaibhav Laxami Vrat Katha

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 22 जुलाई 2022,
  • अपडेटेड 12:12 PM IST
  • वैभव लक्ष्मी व्रत की कथा
  • वैभव लक्ष्मी व्रत के उद्यापन का तरीका

Shukrawar Vaibhav Laxami Vrat Katha: हिंदू धर्म में हर दिन किसी ना किसी देवी-देवता को समर्पित होता है. शुक्रवार का दिन माता लक्ष्मी का दिन माना जाता है. माना जाता है कि जिस घर में माता लक्ष्मी का वास होता है, वहां कभी भी धन संपत्ति ने जुड़ी कोई समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है. शुक्रवार के व्रत को मां वैभव लक्ष्मी का व्रत भी कहा जाता है. इस दिन मां वैभव लक्ष्मी का व्रत और पूजन किया जाता है. शुक्रवार के दिन मां वैभव लक्ष्मी का व्रत रखने, पूजन करने और कथा सुनने से व्यक्ति की हर मनोकामना पूर्ण होती है.

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इस व्रत को ,स्त्री -पुरुष में से कोई भी रख सकता है. अगर आप चाहते हैं कि आपके घर में माता लक्ष्मी का वास हमेशा रहे तो इसके लिए यह व्रत रखना काफी उपयोगी माना जाता है. तो आइए जानते हैं क्या है मां वैभव लक्ष्मी की व्रत कथा.

वैभव लक्ष्मी व्रत कथा- 

एक शहर में बहुत से लोग रहा करते थे.  सभी अपने-अपने कामों में लगे रहते थे. किसी को किसी की परवाह नहीं थी. भजन-कीर्तन, भक्ति-भाव, दया-माया, परोपकार जैसे संस्कार कम हो गए. शहर में बुराइयां बढ़ गई थीं. शराब, जुआ, रेस, व्यभिचार, चोरी-डकैती वगैरह बहुत से गुनाह शहर में होते थे. इनके बावजूद शहर में कुछ अच्छे लोग भी रहते थे.

ऐसे ही लोगों में शीला और उनके पति की गृहस्थी मानी जाती थी. शीला धार्मिक प्रकृति की और संतोषी स्वभाव वाली थी. उनका पति भी विवेकी और सुशील था. शीला और उसका पति कभी किसी की बुराई नहीं करते थे और प्रभु भजन में अच्छी तरह समय व्यतीत कर रहे थे. शहर के लोग उनकी गृहस्थी की सराहना करते थे.

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देखते ही देखते समय बदल गया. शीला का पति बुरे लोगों से दोस्ती कर बैठा. अब वह जल्द से जल्द करोड़पति बनने के ख्वाब देखने लगा. इसलिए वह गलत रास्ते पर चल पड़ा फलस्वरूप वह रोडपति बन गया. यानी रास्ते पर भटकते भिखारी जैसी उसकी हालत हो गई थी. शराब, जुआ, रेस, चरस-गांजा वगैरह बुरी आदतों में शीला का पति भी फंस गया. दोस्तों के साथ उसे भी शराब की आदत हो गई. इस प्रकार उसने अपना सब कुछ रेस-जुए में गंवा दिया.

शीला को पति के बर्ताव से बहुत दुःख हुआ, किन्तु वह भगवान पर भरोसा कर सबकुछ सहने लगी. वह अपना अधिकांश समय प्रभु भक्ति में बिताने लगी. अचानक एक दिन दोपहर को उनके द्वार पर किसी ने दस्तक दी. शीला ने द्वार खोला तो देखा कि एक माँजी खड़ी थी. उसके चेहरे पर अलौकिक तेज निखर रहा था. उनकी आँखों में से मानो अमृत बह रहा था. उसका भव्य चेहरा करुणा और प्यार से छलक रहा था. उसको देखते ही शीला के मन में अपार शांति छा गई. शीला के रोम-रोम में आनंद छा गया. शीला उस माँजी को आदर के साथ घर में ले आई. घर में बिठाने के लिए कुछ भी नहीं था. अतः शीला ने सकुचाकर एक फटी हुई चद्दर पर उसको बिठाया.

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मांजी बोलीं- क्यों शीला! मुझे पहचाना नहीं? हर शुक्रवार को लक्ष्मीजी के मंदिर में भजन-कीर्तन के समय मैं भी वहां आती हूं.' इसके बावजूद शीला कुछ समझ नहीं पा रही थी. फिर मांजी बोलीं- 'तुम बहुत दिनों से मंदिर नहीं आईं अतः मैं तुम्हें देखने चली आई.'

मांजी के अति प्रेमभरे शब्दों से शीला का हृदय पिघल गया. उसकी आंखों में आंसू आ गए और वह बिलख-बिलखकर रोने लगी. मांजी ने कहा- 'बेटी! सुख और दुःख तो धूप और छाँव जैसे होते हैं. धैर्य रखो बेटी! मुझे तेरी सारी परेशानी बता.'

मांजी के व्यवहार से शीला को काफी संबल मिला और सुख की आस में उसने मांजी को अपनी सारी कहानी कह सुनाई.

कहानी सुनकर माँजी ने कहा- 'कर्म की गति न्यारी होती है. हर इंसान को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते हैं. इसलिए तू चिंता मत कर. अब तू कर्म भुगत चुकी है. अब तुम्हारे सुख के दिन अवश्य आएँगे. तू तो माँ लक्ष्मीजी की भक्त है. माँ लक्ष्मीजी तो प्रेम और करुणा की अवतार हैं. वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती हैं. इसलिए तू धैर्य रखकर माँ लक्ष्मीजी का व्रत कर. इससे सब कुछ ठीक हो जाएगा.'

शीला के पूछने पर मांजी ने उसे व्रत की सारी विधि भी बताई. मांजी ने कहा- 'बेटी! मां लक्ष्मीजी का व्रत बहुत सरल है. उसे 'वरदलक्ष्मी व्रत' या 'वैभव लक्ष्मी व्रत' कहा जाता है. यह व्रत करने वाले की सब मनोकामना पूर्ण होती है. वह सुख-संपत्ति और यश प्राप्त करता है.'

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शीला यह सुनकर आनंदित हो गई. शीला ने संकल्प करके आँखें खोली तो सामने कोई न था. वह विस्मित हो गई कि मांजी कहां गईं? शीला को तत्काल यह समझते देर न लगी कि मांजी और कोई नहीं साक्षात्‌ लक्ष्मीजी ही थीं.

दूसरे दिन शुक्रवार था. सबेरे स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनकर शीला ने मांजी द्वारा बताई विधि से पूरे मन से व्रत किया. आखिरी में प्रसाद वितरण हुआ. यह प्रसाद पहले पति को खिलाया. प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड़ गया. उस दिन उसने शीला को मारा नहीं, सताया भी नहीं. शीला को बहुत आनंद हुआ. उनके मन में 'वैभवलक्ष्मी व्रत' के लिए श्रद्धा बढ़ गई.

शीला ने पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से इक्कीस शुक्रवार तक 'वैभव लक्ष्मी व्रत' किया. इक्कीसवें शुक्रवार को माँजी के कहे मुताबिक उद्यापन विधि कर के सात स्त्रियों को 'वैभवलक्ष्मी व्रत' की सात पुस्तकें उपहार में दीं. फिर माताजी के 'धनलक्ष्मी स्वरूप' की छबि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगीं- 'हे मां धनलक्ष्मी! मैंने आपका 'वैभवलक्ष्मी व्रत' करने की मन्नत मानी थी, वह व्रत आज पूर्ण किया है. हे मां! मेरी हर विपत्ति दूर करो. हमारा सबका कल्याण करो. जिसे संतान न हो, उसे संतान देना. सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखंड रखना. कुंआरी लड़की को मनभावन पति देना. जो आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे, उनकी सब विपत्ति दूर करना. सभी को सुखी करना. हे माँ! आपकी महिमा अपार है.' ऐसा बोलकर लक्ष्मीजी के 'धनलक्ष्मी स्वरूप' की छबि को प्रणाम किया.

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व्रत के प्रभाव से शीला का पति अच्छा आदमी बन गया और कड़ी मेहनत करके व्यवसाय करने लगा. उसने तुरंत शीला के गिरवी रखे गहने छुड़ा लिए. घर में धन की बाढ़ सी आ गई. घर में पहले जैसी सुख-शांति छा गई. 'वैभवलक्ष्मी व्रत' का प्रभाव देखकर मोहल्ले की दूसरी स्त्रियां भी विधिपूर्वक 'वैभवलक्ष्मी व्रत' करने लगीं.

इस तरह करें वैभव लक्ष्मी व्रत का उद्यापन- 

अगर आप शुक्रवार को वैभव लक्ष्मी का व्रत रख रहे हैं तो आपको इसे 9, 11 और 21 शुक्रवार के लिए रखाना चाहिए. अंतिम शुक्रवार के दिन इस व्रत का उद्यापन करना चाहिए. उद्यापन के दिन व्यक्ति को वैभव लक्ष्मी की पूजा करने केबाद प7 से 9 कन्याओं को खीर और पूरी खिलानी चाहिए. इसके बाद सभी कन्याओं को वैभव लक्ष्मी व्रत की पुस्तक और केले का प्रसाद देकर विदा करना चाहिए. इसके बाद खुद भी इस प्रसाद को ग्रहण करें. 

 

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