अभिनेता पंकज धीर का बुधवार को निधन हो गया. उन्होंने बीआर चोपड़ा की महाभारत में 'कर्ण' का किरदार निभाया था और जीवन भर यह पहचान उनसे जुड़ी रही. उन्होंने अपनी अद्भुत संवाद अदायगी से कर्ण के किरदार को अमर बना दिया. महाभारत में कर्ण का जीवन जिन उतार-चढ़ाव और विडंबनाओं का साक्षी बनता है, पंकज धीर की आंखों में वो निराशा, चेहरे पर वैसे भाव और संवाद में वैसी ही गंभीरता दिखाई देती थी.
कुंती के विवाह से पहले हुआ था कर्ण का जन्म
आज पंकज धीर के बहाने ही महाभारत के इस योद्धा को याद करने का भी दिन है. आमतौर पर सभी जानते हैं कि कर्ण का जन्म महारानी कुंती के विवाह से पहले हुआ था. वह एक मंत्र के वरदान का फल था और सूर्यदेव का अंश था. कुंती ने जन्म के बाद नवजात को नदी में बहा दिया था और यही आगे चलकर कर्ण कहलाया, जिसके बचपन का नाम राधेय था. उसका लालन-पालन हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र के सारथि रहे अधिरथ के घर में हुआ था. अधिरथ की पत्नी का नाम राधा था, जिससे कर्ण को राधेय नाम मिला था.
कर्ण के जन्म का रहस्य
लेकिन कर्ण के जन्म का रहस्य इतना ही भर नहीं है. यह रहस्य भी पिछले जन्म में सूर्यदेव के एक वरदान में छिपा है. कर्ण का जन्म होना और जीवनभर यातनाएं भोगना भी उसके पूर्व जन्म का फल था.
नर-नारायण से हुआ था युद्ध
भागवत पुराण में नर और नारायण ऋषि की कथा आती है जो कि श्रीहरि के अंशावतार थे. वे तपस्या कर रहे थे. उनके ही काल में दुरदु्म्भ (दम्भोद्भवा) नाम का एक राक्षस हुआ था. उसने सूर्यदेव की तपस्या करके उनसे 100 कवचों और दिव्य कुंडलों का वरदान पा लिया था. सूर्यदेव के इन कवचों में इतनी ताकत थी कि कोई भी इसे तोड़ नहीं सकता था. राक्षस को वरदान था कि उसका वध वही कर सकता है जिसने एक हजार साल तप किया हो.
हर बार टूटता था एक कवच
सूर्यदेव के कवचों के साथ एक श्राप भी जुड़ा था कि जो भी उसका एक कवच भी तोड़ता उसकी भी मृत्यु हो जाती. दुरदुम्भ के अत्याचार से परेशान देवता विष्णु जी के पास गए तो उन्होंने सभी को नर-नारायण के पास भेज दिया. नर-नारायण ने देवताओं की बात सुनीं और उनकी सहायता का वचन दिया. इसके बाद दुरदुंभ वहां पहुंचा जहां नर और नारायण तपस्या कर रहे थे.
पहले नर फिर बाद में नारायण ने किया युद्ध
राक्षस को आक्रमण करते देख पहले नर ने उसका सामना किया. इस दौरान नारायण तपस्या करते रहे. कई दिन तक युद्ध के बाद नर ने राक्षस का कवच तोड़ दिया और नर की भी मृत्यु हो गई. इस पर नारायण उठे और अपनी तपस्या के फल से नर को जीवित कर दिया. अब नर ने तपस्या शुरू की और नारायण युद्ध करने लगे. नारायण ने दूसरा कवच तोड़ा तो उनकी भी मृत्यु हो गई, लेकिन उन्हें नर ने तप के फल से जीवित कर दिया. इस तरह लगातार युद्ध चलता रहा. नर-नारायण एक-एक करके युद्ध करते रहे, कवच तोड़ते रहे और एक-दूसरे को जीवित करते रहे.
जब एक-एक करके राक्षस के 99 कवच टूट गए तो राक्षस भागा और सूर्य के पीछे जा छिपा. सूर्य देव ने नर-नारायण से शरणागत की रक्षा की प्रार्थना की. तब नारायण ने कहा कि ठीक है, इसका फल आपको भी भुगतना होगा. अब यह राक्षस आपके तेज से द्वापर में जन्म लेगा और यही कवच-कुंडल तब भी इसके पास रहेंगे, लेकिन मृत्यु के समय काम नहीं आएंगे.
कैसे कवच-कुंडल के साथ जन्मा था कर्ण
कवच-कुंडल के साथ जन्मा कर्ण वही राक्षस था, लेकिन इस बार युद्ध से ठीक पहले इंद्र उससे कवच-कुंडल दान में मांग ले गए. लिहाजा कवच रहा नहीं और अर्जुन की रक्षा हो गई. वरदान के अनुसार अगर अर्जुन कर्ण का कवच तोड़ देता तो उसकी भी मृत्यु हो जाती. वैसे सूर्यदेव ने भी कर्ण की रक्षा की बहुत कोशिश की थी. उन्हें पता था कि महाभारत में नारायण कृष्ण अवतार लेंगे और पांडवों की रक्षा करेंगे, इसलिए उन्होंने कर्ण को सबसे बड़े पांडव के रूप में भेजा था, लेकिन तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है... होइहे वही जो राम रचि राखा... पांडव बनकर जन्म लेने के बाद भी आखिरकार कर्ण युद्ध में मारा ही गया. यह कथा महाभारत के आदिपर्व और भागवत पुराण में कही जाती है, जहां कृष्ण-अर्जुन के पूर्व जन्म के रहस्य को बताया गया है.
अमर है कर्ण दानवीरता
कर्ण का अंत भले ही महाभारत में हो जाता है, लेकिन उसकी दानवीरता अमर रही, बल्कि महाभारत में हुए तमाम छल और निगेटिव किरदारों के खेमे में रहने के बावजूद कर्ण के चरित्र पर सिर्फ एक दाग लगा कि उसने दुर्योधन का मौन समर्थन द्रौपदी चीर हरण के समय किया था और जब दुर्योधन द्रौपदी को वैश्या कह रहा था तब कर्ण ने इस पर हामी भरी थी. इस पर अर्जुन ने कर्ण के वध की सौगंध खाई थी.
इंद्र देव ने युद्ध से पहले दान में मांग लिए थे कवच-कुंडल
महारथी कर्ण का हर रोज का नियम था कि वह प्रातः काल गंगा स्नानकर सूर्य देव को अर्घ्य देता था और पूजन की समाप्ति के तुरंत बाद जो भी उससे कुछ भी मांगता, कर्ण बिना संकोच उसे वह दान दे देता था. कई बार यही नियम उसके खुद के लिए प्रतिकूल भी साबित हुआ, बल्कि ये जानते हुए भी कि नियम उसके प्रतिकूल है, लेकिन खुद जलकर सारे संसार को प्रकाशित करने वाले सूर्य का पुत्र कैसे अपने नियम से डिग जाता, लिहाजा कर्ण ने भी कभी अपना नियम नहीं भंग किया. इस तरह एक दिन इंद्र ब्राह्मण वेश में आए और युद्ध से पहले कर्ण से कवच-कुंडल मांग ले गए. इस तरह कर्ण का महाभारत युद्ध में वध हो सका.
विकास पोरवाल