बिजनौर से भगवान श्रीकृष्ण का पुराना नाता रहा है. ऐसी मान्यताएं हैं कि बिजनौर में महात्मा विदुर की कुटिया में कृष्ण ने दुर्योधन के छप्पन भोग त्यागकर बथुए का साग खाया था. इसीलिए श्रीकृष्ण की आरती के बाद लगने वाले भोग में एक श्लोक बिजनौर में महात्मा विदुर की इस कुटिया से भी जुड़ा है. इसमें कहा गया है- 'दुर्योधन की मेवा त्यागी साग विदुर घर खायो जी'. यह श्लोक उस समय कहा गया था जब महाभारत का युद्ध होने वाला था और महात्मा विदुर इस युद्ध के पक्ष में नहीं थे.
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महात्मा विदुर ने महाराज धृतराष्ट्र को समझाते हुए आधा राज्य पांडवों को देने की बात कही थी. तब धृतराष्ट्र ने उन्हें अपमानित करते हुए राज दरबार से निकाल दिया था. इसके बाद महात्मा विदुर ने हस्तिनापुर का त्याग कर दिया था. वह यहीं बिजनौर से 10 किलोमीटर दूर गंगा किनारे कस्बा गंज में आकर अपनी कुटिया बनाकर रहने लगे थे और यहीं पर तपस्या करते थे.
बाद में जब श्रीकृष्ण पांडवों के दूत बनकर दुर्योधन को समझाने आए थे कि वह युद्ध को टाल दें. लेकिन दुर्योधन ने समझौते का प्रस्ताव ठुकरा दिया और इससे नाराज होकर कृष्ण ने दुर्योधन के 56 भोग का त्याग करते हुए हस्तिनापुर से विदुर कुटिया में आकर बथुए का साग खाया था. तभी से इस विदुर कुटिया के प्रांगण में 12 महीने बथुए का साग पैदा होता है. अब यह कुटिया एक विशाल मंदिर का रूप ले चुकी है.
इस मंदिर का निर्माण 1960 में हुआ था और उस समय राष्ट्रपति रहे राजेंद्र प्रसाद ने मंदिर के अंदर महात्मा विदुर की भव्य मूर्ति का अनावरण किया था. आज इस मंदिर को पर्यटन के रूप में विकसित किया जा रहा है. इसे सजाने-संवारने का काम जोर-शोर से चल रहा है. यहां पर वृद्ध आश्रम का काम लगभग पूरा हो चुका है.
दीवारों पर पेंटिंग बनाई जा रही है. मंदिर को केसरिया रंग से रंगा जा रहा है और यहां आर्युवेदिक संस्थान का निर्माण कार्य भी चल रहा है. मंदिर में वृक्ष वाटिका की स्थापना भी की जा रही है. इसे भव्य बनाने के लिए कई योजनाएं चल रही हैं जिसका कार्य अभी जारी है.
जन्माष्टमी के दिन मंदिर पर भी लोग श्रीकृष्ण की पूजा-अर्चना के लिए पहुंचते हैं और आज के दिन मंदिर में श्रीकृष्ण भागवत कथा का भी आयोजन किया जाता है, ताकि कृष्ण को इस कथा के रूप में याद किया जा सके. इस जगह को दारानगर कहा जाता है. ग्रंथों में बताया गया है कि महात्मा विदुर ने ही इस नगरी को बसाया था और एक जमाने में यहां स्त्री को दारा कहा जाता था.
इस जगह का नाम दारानगर इसलिए रखा गया, क्योंकि महाभारत के युद्ध में शहीद होने वाले सैनिकों की विधवा पत्नियां हस्तिनापुर से गंगा पार करके यहां महात्मा विदुर के पास आकर रहने लगी थीं. तभी उन्होंने इस नगर को बसाया था और चूंकि यहां रहने वाली सभी स्त्रियां ही थीं तो इसलिए इसका नाम दारानगर रखा गया था.