उत्तर भारतीय मैदानी भागों में जब पितृ पक्ष चल रहे होते हैं तब इसी दौरान विश्वकर्मा पूजन का आयोजन किया जाता है. यह पूजा और त्योहार हर साल 16 या 17 सितंबर को ही मनाया जाता है. वैसे तो अक्सर सभी पर्व और त्योहार हिंदी मास की तिथियों से होते हैं, जिनकी एक फिक्स डेट नहीं होती है. फिर भी विश्वकर्मा पूजा का विधान हर साल अंग्रेजी कैलेंडर की फिक्स तारीख को मनाई जाती है.
सूर्य पंचांग पर आधारित पूजा
असल में यह पूजा मकर संक्रांति की ही तरह सौर पंचांग पर आधारित है. सौर पंचांग की तिथियां अक्सर ग्रेगेरियन कैलेंडर की तारीखों के आस-पास पड़ती हैं. सूर्य जब कन्या राशि में गोचर करते हैं तब विश्वकर्मा पूजा का आयोजन किया जाता है और यह खगोलीय घटना तभी होती है, जब सूर्य दक्षिणायन में होते हैं. भारत में ये समय शरद के आगमन का, खेतों में कास नाम की घास के फूलने का और वर्षा ऋतु के समापन का समय होता है.
नए निर्माण का अनुकूल समय
ठीक से देखा जाए तो यह समय नए निर्माण के लिए अनुकूल होता है. कुम्हार नए बर्तनों के लिए जलोढ़ मिट्टी इकट्ठी कर लेता है. मिस्त्री-मजदूर वर्ग वर्षा बंद होने के बाद भवन निर्माण के लिए अपने औजार ठीक करने और सहेजने में लग जाते हैं. बढ़ई के लिए भी यह समय नई लकड़ियों के चुनाव का आ जाता है. लोहार के लिए इन सबके लिए औजार तैयार करने का मौका मिलता है. इन सभी की तैयारियों का दिन ही है विश्वकर्मा पूजा.
सामाजिक संरचना को समझने का उत्सव
आप विश्वकर्मा पूजा को देवत्व और धार्मिक आधार पर न भी देखें तो इसे ऐसे समझें कि यह उत्तर भारत के गंगा-यमुना के मैदानी इलाकों की एक सामाजिक व्यवस्था है. इसे सोशल इको सिस्टम की तरह समझना चाहिए. कैसे मौसम, पर्यावरण और समाज का हर एक वर्ग मिलकर एक साथ नए निर्माण की ओर बढ़ते हैं. जब हर हाथ में रोजगार की आशा होती है और वह पूरी भी होती है.
आप इस सोशल इकोसिस्टम को समझिए. वर्षा बंद हो चुकी है. तालाब की खुदाई और सफाई होनी है. मजदूरों को काम मिला. उनके फांवड़े-गैंती जैसे औजार बनाने हैं, उनकी धार तेज करनी है तो लोहार और बढ़ई को काम मिला. तालाब से निकली मिट्टी कुम्हार अपने दीये और मिट्टी के बर्तन बनाने में इस्तेमाल करेगा तो उन्हें भी रोजगार मिला. विश्व में कर्म की इसी अवधारणा का नाम 'विश्वकर्मा' है. कर्म ही पूजा है और कर्म का यही देवता विश्वकर्मा है.
देवदत्त पटनायक अपने एक लेख में इस बारे में विस्तार से लिखते हैं. वह बताते हैं कि, श्राद्ध पक्ष और नवरात्रि के बीच विश्वकर्मा पूजा का मनाया जाना यह बताता है कि निर्माण जीवन की एक कड़ी है. पितृ पक्ष, जब पूर्वजों या पितरों की पूजा की जाती है, मृत्यु पर केंद्रित होता है, जबकि नवरात्रि पुनर्जनन और पुनर्जन्म का प्रतीक है. इस तरह विश्वकर्मा पूजा मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच की कड़ी के रूप में मनाई जाती है.
कन्या संक्रांति को होती है पूजा
यह शिल्प के देवता विश्वकर्मा के सम्मान में आयोजित होती है, जो सभी शिल्पकारों के संरक्षक माने जाते हैं. यह पर्व कन्या संक्रांति के दिन मनाया जाता है, जब सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है. मान्यता है कि इसी दिन विश्वकर्मा ने हल का आविष्कार किया और इसे मानवता को उपहार में दिया. हल का बनना वास्तव में मानवीय समस्याओं का पहला हल था. इसलिए उसे हल कहा भी गया. यह भोजन की समस्या को समाप्ति का पहला प्रयास और यंत्र था. हल ने भूमि को कुरेदा और बीज का बोया जाना आसान बना दिया.
इसलिए जितने भी निर्माण से जुड़े कर्म हैं और उन्हें करने वाले लोग हैं, वे भी विश्वकर्मा हैं. विश्वकर्मा को कई नामों से जाना जाता है, जैसे प्रजापति (लोगों का मुखिया ), महाराणा (प्रधान शिल्पकार), ब्रह्मणस्पति (अंतरिक्ष का स्वामी), और दक्ष यानी सबसे सक्षम शिल्पकार.
इस तरह जो लोग स्थापत्य कला, वास्तु शास्त्र, शिल्पकला से जुड़े थे वह सभी विश्वकर्मा कहलाए. ये भवन, बस्ती, नगर निर्माण, प्लॉटिंग, यंत्र बनाने वाले आदि से जुड़े लोग हैं. विश्वकर्मा को शायद पहला शिल्पकार माना जाता है और वे विश्वकर्मा जाति या शिल्पकारों की जाति जैसे बढ़ई और लोहार के देवता हैं.
पश्चिमी सभ्यता में भी है विश्वकर्मा की मौजूदगी
विश्वकर्मा की मौजूदगी भारतीय संस्कृति भर में नहीं है. पश्चिमी सभ्यता में उनकी तुलना ग्रीक देवता हेफेस्टस और रोमन देवता वल्कन से की जाती है. उपकरणों का उपयोग करने की क्षमता ही मनुष्यों को पशुओं से अलग करती है.
वेदों में, विश्वकर्मा को त्वष्टा के नाम से जाना जाता है. जब कोई पुरुष किसी स्त्री के पास जाता है, तो उसे आह्वान किया जाता है, क्योंकि वह गर्भ में शिशु को उचित आकार देता है. कुछ लोग उसे ब्रह्मा, सभी जीवों के सृजक, से जोड़ते हैं. प्रारंभिक वैदिक ग्रंथों में, उन्हें उस बीज के रूप में देखा जाता है, जिससे पांच ऋषि उत्पन्न हुए. ये पांच ऋषि, सात ऋषियों से अलग, विचारों को आकार देने के बजाय वस्तुओं को गढ़ने वाले थे. इसीलिए वे विशेष थे.
विश्वकर्मा को इंद्र से भी जोड़ा जाता है. जिन्हें ऋग्वेद में आकाश और पृथ्वी को अलग करने वाला पहला देवता कहा गया है. इसीलिए, इंद्र की तरह, विश्वकर्मा को चित्रों में हाथी पर बैठे हुए दिखाया जाता है, उनके हाथों में हथौड़ा, कैनवस, छेनी और स्केल दिखाए जाते हैं.
ब्रह्मदेव और विश्वकर्मा एक जैसे क्यों नजर आते हैं
विश्वकर्मा को दाढ़ी के साथ दिखाने से उनकी छवि ब्रह्मा की तरह गढ़ी गई है. ब्रह्मा ने ही सृष्टि का निर्माण किया और विश्वकर्मा ने उनके आदेश से सृष्टि के सभी जरूरी निर्माण कार्य किए इसलिए ऋग्वेद का त्वष्टा, पुराणों के ब्रह्मा और पौराणिक कथाओं में देव शिल्पी कहलाने वाले विश्वकर्मा लगभग एक ही जैसे हैं.
पौराणिक कथाएं कहती हैं कि ब्रह्ना जी ने सृष्टि के संचालन, इसके तत्वों के निर्माण, संरक्षण और विकास के लिए अलग-अलग मानस पुत्रों को अपने शरीर से उत्पन्न किया. इस लिहाज से प्रजापतियों का जन्म हुआ जिन्होंने शुरुआती दिनों में सृष्टि का संचालन किया. प्रजापति और विश्वकर्मा भाई भी कहे जाते हैं और एक-दूसरे के अंश भी.
कई नगरों के निर्माणकर्ता हैं विश्वकर्मा
पौराणिक कथाओं में दर्ज है कि विश्वकर्मा ने कई नगरों का निर्माण किया है. इसलिए वह नगर सभ्यता या सिविल सोसायटी बनाने वाले पहले देवता है. उन्होंने इंद्र के लिए अमरावती बनाई. असुरों के लिए हिरण्यपुर जो सुनहला चमकता था. यक्षों के लिए अलकापुरी बनाई और कृष्ण के लिए द्वारिका पुरी बनाई. लोककथाओं में है कि विश्वकर्मा ने देवी लक्ष्मी के आदेश से उनके लिए भी भव्य नगर बनाया था. ओडिशा के जगन्नाथपुरी में इस कथा का वर्णन किया जाता है.
उन्होंने सूर्यदेव की शक्तियों से भगवान विष्णु के लिए सुदर्शन चक्र बनाया था. दधीचि की हड्डियों से इंद्र के लिए वज्र बनाया था. त्रिपुर के नाश के लिए उन्होंने शिव के लिए विशेष रथ बनाया. विश्व कर्मा ने एक ही बांस से शिव का धनुष पिनाक, विष्णु का धनुष सारंग और इसके ही साथ श्रीराम का धनुष कोदंड भी बनाया था. कोदंड धनुष को पहले अगस्त्य ऋषि ने फिर विश्वामित्र ऋषि ने रखा और फिर उन्होंने एक शक्ति के रूप में श्रीराम को दिया.
आर्थिक उन्नति के भी प्रणेता
विश्वकर्मा सिर्फ यंत्र निर्माण के लिए नहीं जाने जाते हैं, बल्कि यंत्र के द्वारा आर्थिक उन्नति को कैसे बढ़ावा दिया जा सकता है इसके भी उदाहरण हैं. इसलिए वह बढ़ती अर्थव्यवस्था के प्रतीक हैं जो इसकी सबसे निचली इकाई का प्रतिनिधित्व करते हैं.
विश्वकर्मा पूजा का महत्व केवल धार्मिक या आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक भी है. यह पर्व शिल्पकारों को उनकी कला और मेहनत के लिए सम्मान देता है. यह हमें याद दिलाता है कि सृजन और निर्माण की प्रक्रिया कितनी महत्वपूर्ण है. विश्वकर्मा पूजा के दिन, शिल्पकार अपने उपकरणों और यंत्रों की पूजा करते हैं, यह मानते हुए कि ये उनके जीवन और आजीविका का आधार हैं. यह पर्व हमें यह भी सिखाता है कि मानवता की प्रगति में शिल्प और तकनीक का कितना बड़ा योगदान है.
यह पर्व न केवल शिल्पकारों के लिए, बल्कि समाज के हर उस व्यक्ति के लिए प्रासंगिक है जो सृजनात्मकता और नवाचार में विश्वास रखता है. विश्वकर्मा पूजा हमें यह सिखाती है कि हर निर्माण, चाहे वह एक भवन हो, एक उपकरण हो, या एक विचार, एक नई शुरुआत का प्रतीक है. यह मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र का हिस्सा है. यह चक्र ही जीवन को आगे बढ़ते रहने की ताकत देता है.
विकास पोरवाल