नवरात्रि के आठवें दिन नौ दुर्गा के अष्टम स्वरूप देवी महागौरी की पूजा की जाती है. देवी महागौरी गौर वर्ण की हैं और सुहागिन स्त्रियों की प्रतिनिधि देवी हैं. लोक परंपरा में भी यही देवी गौराजी, गौरी मैया और गौरा माता नाम से प्रसिद्ध हैं. इन्हें उमा पार्वती का ही एक स्वरूप माना जाता है और कई जगहों पर विवाह से पहले होने वाली गौरी पूजा में इन्हीं देवी की पूजा की जाती है. इसे गौरी मंगला व्रत भी कहते हैं. सीताजी ने भी विवाह से पहले गौरी मंगला व्रत किया था. इसका जिक्र रामचरित मानस और रामायण दोनों में मिलता है.
संत तुलसीदास ने तो रामचरित मानस में दुर्गा सप्तशती का निचोड़ ही उतारकर रख दिया है. अगर आप पूरे नवरात्रि में सप्तशती न पढ़ पाएं हों तो देवी महागौरी की पूजा वाले आज के दिन सिर्फ रामचरित मानस की वो चौपाइयां पढ़ लीजिए, जिसमें माता सीता गौरी पूजा करने के बाद उनसे मनचाहा वर पाने के लिए प्रार्थना कर रही हैं.
यह प्रार्थना उन्होंने तब की थी, जब सीताजी ने पुष्प वाटिका में पहली बार श्रीराम को देखकर भावविभोर हो गईं और ठीक उसी समय उन्हें अपने पिता का प्रण भी याद आ गया.
वह जानती थीं कि उनके जीवन का प्रारब्ध अब एक धनुष से जुड़ चुका है, इसलिए सीताजी सोचने लगीं कि यह सुकुमार किशोर भारी शिवधनुष कैसे उठा पाएंगे. ऐसा सोच-सोचकर वह परेशान हो उठीं. इस तरह परेशान होकर वह अंदर ही अंदर मां गौरी से प्रार्थना करने लगीं और इसी अवस्था में सहेलियों का हाथ छुड़ाकर गौरी मंदिर की ओर दौड़ती चली गईं. उन्हें अचानक क्या हुआ, यह रहस्य सखियां नहीं समझ सकीं.
इस स्थिति का वर्णन तुलसीदास ने कुछ इस तरह किया है...
जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥
प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥
देवी सीता ने विभिन्न नामों से की पार्वती जी की वंदना
इसके बाद, सीताजी तेज कदमों से गौरी मंदिर पहुंची और पार्वतीजी के कई अलग-अलग नाम लेकर उन्हें पुकारने लगीं. ये वैसे ही नाम हैं जो सप्तशती के श्रीदुर्गा अष्टोत्त शतनाम स्त्रोत में लिखे हैं. सीताजी कभी गौरी माता को कार्तिकेय-गणेश की मां कहतीं, कभी शिवप्रिया कहकर पुकारतीं. कभी पर्वत की पुत्री कहतीं, कभी दुर्गा-अंबा पुकारतीं. जो भी नाम याद आता, उसी नाम को लेकर प्रार्थना करने लगतीं. उनकी यह स्थिति देखकर कैलाश पर बैठी पार्वती जी भी भाव विभोर हो गईं.
संत तुलसीदास ने ये चौपाई उस समय के लिए लिखी है, जब सीता जी गौरी माता से बार बार बिनती कर रही हैं कि मेरे हृदय में जिसकी छवि बस गई है, वही मेरे जीवन में साकार हो. बस यही विनती है. मेरे मन में क्या है ये तो आप जानती ही हैं, क्योंकि आप तो सबके हृदय में रहती हैं. मेरे हृदय में जो उतर आया है उसे भी पहचान लीजिए और वही मनोरथ पूरा कर दीजिए.
सीताजी की प्रार्थना से देवी हो गईं द्रवित
इसके बाद, गौरी माता जो असल में कैलास से सब देख रही थीं, वह इस विनय-प्रेम भरी स्तुति से द्रवित हो गईं, वह इससे विचलित हुईं, उनकी माला खिसक गई, और कुछ सोचकर वह हंस पड़ीं. उनकी यही हंसी सीता जी के सामने गौरी प्रतिमा में भी उभर आई. देवी प्रसन्न हो गईं और उन्होंने अपनी कंठमाला गिराकर सीताजी के गले में डाल दी. इससे सीताजी को विश्वास हो गया कि देवी प्रसन्न हैं और उनका आशीर्वाद उन्हें मिल गया है. तब सीता जी मनचाहा वरदान पाकर अपने भवन को लौट आईं.
आप भी कीजिए सीता जी द्वारा की गई गौरी माता की स्तुति
जय जय गिरिबरराज किसोरी।
जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता।
जगत जननि दामिनी दुति गाता॥
देवी पूजि पद कमल तुम्हारे।
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥
मोर मनोरथ जानहु नीकें।
बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेऊँ प्रगट न कारन तेहिं।
अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥
बिनय प्रेम बस भई भवानी।
खसी माल मुरति मुसुकानि॥
सादर सियँ प्रसादु सर धरेऊ।
बोली गैरी हरषु हियँ भरेऊ॥
सुनु सिय सत्य असीस हमारी।
पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सूचि साचा।
सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सांवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एही भाँती गौरी असीस सुनी सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
विकास पोरवाल