करवाचौथ का चंद्रमा क्यों है सौभाग्य का प्रतीक... देवी लक्ष्मी, सागर मंथन और शिव-पार्वती से क्या है कनेक्शन

चंद्रमा का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व प्राचीन वेदों और पुराणों में विस्तार से वर्णित है. यह न केवल रात का राजा है बल्कि सौभाग्य, प्रेम और आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक भी माना जाता है.

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करवाचौथ के चंद्रमा को सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है करवाचौथ के चंद्रमा को सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 08 अक्टूबर 2025,
  • अपडेटेड 12:14 PM IST

हमारे दैनिक जीवन में चंद्रमा कई रूपों में मौजूद है. सामान्य तौर पर वह बच्चों का मामा है और अध्यात्म में चंद्रमा रहस्य और ऐश्वर्य का प्रतीक है. यही खासियत चंद्रमा को दैवीय बनाती है. जिस तरह सूर्य को नारायण कहा जाता है, चंद्रमा को चंद्रदेव कहा गया है. सूर्य अगर दिवाकर हैं तो चंद्र निशाकर हैं. वह रात के राजा हैं, और वेदों में इन्हें सभी औषधियों का स्वामी कहा गया है. वह रसों के देवता हैं. पुष्पों की आत्मा हैं और उड़ने वाले सभी जीवों की चेतना हैं. चंद्रदेव को स्त्रियों के सौभाग्य का प्रतीक भी बताया गया है और करवाचौथ पर स्त्रियां उनसे उसी सौभाग्य का आशीर्वाद मांगती हैं.

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इसके अलावा धरती पर भी जो बहुत सौम्य और कोमल जीव हैं, उन्हें भी चंद्रमा का संरक्षण मिलता है. इनमें हिरन, खरगोश, मेमने, बछड़े जैसे जीव शामिल हैं. इंद्र और अन्य देवताओं का सबसे प्रिय पेय सोमरस, चंद्रमा की किरणों से मिलकर औषधियों के रसों से बना पेय ही है. इसीलिए वेदों में चंद्र को सोमदेव कहा गया है.

चंद्रमा की उत्पत्ति की कहानी सूर्यदेव की उत्पत्ति जैसी है. ऋग्वेद के दशम मंडल में जिस पुरुष सूक्त का वर्णन है, उस विराट पुरुष की कल्पना में ही चंद्रदेव की भी उत्पत्ति का रहस्य छिपा है.  

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत,
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च हृदयात्सर्वमिदं जायते.

भावः उस विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा, चक्षु (आंखों) से सूर्य, श्रोत्र से वायु तथा प्राण और हृदय से यह सम्पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ. विष्णु पुराण की कथा कहती है कि जब कहीं कुछ था ही नहीं, तब उस विराट पुरुष (पुराणों में भगवान विष्णु को पहले विराट पुरुष कहा गया है) की इच्छा से दूध जैसा सफेद एक सागर बना. उस क्षीर सागर में पीपल का पत्ते पर एक अजन्मा शिशु लेटा हुआ था. यह शिशु अपनी ही इच्छा से विकसित होता गया और पूर्ण पुरुष बन गया. उसके चार हाथ थे और सिर पर नागों की छाया थी. उस विराट पुरुष ने आंखें खोलीं तो नेत्रों से निकला प्रकाश सूर्य बन गया और मन से बना चंद्रमा. कानों से ध्वनि और उसकी सांस लेने की इच्छा के कारण ही ब्रह्मांड प्राण वायु से भर गया.

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शिव पुराण में सूर्य और चंद्र की उत्पत्ति

शिव पुराण में सूर्य और चंद्रमा की उत्पत्ति का कारण शिव-पार्वती के आनंद तांडव को कहा गया है. जब शिव और पार्वती आनंद तांडव करते हुए एक होने लगे तब शिवजी के नेत्रों से निकली ऊर्जा सूर्य बन गई और देवी पार्वती की कांतिमान देह से चंद्रदेव आकाश में स्थापित हो गए. 

ब्रह्नवैवर्त पुराण इसकी एक और व्याख्या करते हुए कहता है कि, जब श्रीहरि विष्णु के नाभिकमल पर बैठे ब्रह्मा जी ने आंखें खोलीं तो देखा कि कहीं कुछ भी नहीं है. तब उनके मन में यह भाव जागा कि वह एक हैं और अकेले हैं. वेदों में इसे एको अहं बहुष्यामि कहा गया है, यानी कि 'एक हूं पर बहुत होना चाहता हूं.' तब ब्रह्मदेव ने अपने हृदय पर हाथ रखा तो उनके मन से निकलकर एक शीतल पिंड सामने आया. साफ, सफेद और शांति के इस प्रतीक पिंड ने ब्रह्मदेव को बहुत शांति और शीतलता का अनुभव कराया. यही पिंड चंद्रमा बनकर आकाश में स्थापित हुआ.

ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी चंद्रमा को महर्षि अत्रि का पुत्र बताया गया है, लेकिन उनकी माता दिशाएं हैं. जब महर्षि अत्रि का तप पूरा हो गया और ब्रह्नदेव के दर्शनों के लिए उन्होंने आंखें खोलीं तो भाव विभोर होने के कारण उनके नेत्रों से प्रकाशमान तेज जल की कुछ बूंदे गिरीं. उन बूंदों को चारों दिशाओं ने पुत्रों की कामना से ग्रहण कर लिया और सभी के चार-चार तेजस्वी पुत्र हुए. ये सभी चंद्रमा की 16 रूप गुण हैं, जिन्हें चंद्रकला कहा गया.

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वेदों में चंद्रमा का वर्णन, जिस तरीके से हुआ है उसमें वह आदित्यों के भाई के तौर पर नहीं दिखाई देते हैं. न ही उनकी गिनती, इंद्र, सूर्य, अग्नि, मित्र, वरुण और रुद्र के साथ होती है, लेकिन सोमदेव के तौर पर उनकी स्तुति जरूर सामने आती है.

सौभाग्य का प्रतीक कैसे बन गया चंद्रमा?
चंद्रमा सौभाग्य का प्रतीक कैसे बन जाता है? इसकी व्याख्या स्कंद पुराण में मिलती है. स्कंद पुराण में समुद्र मंथन की कथा में देवी लक्ष्मी और चंद्रमा दोनों की उत्पत्ति सागर मंथन से बताई गई है. देवी लक्ष्मी सौभाग्य की देवी हैं और सागर से उत्पत्ति होने के कारण चंद्रमा उनके भाई हैं. इसलिए वह सौभाग्य के प्रतीक बन जाते हैं. 

दूसरी वजह यह है कि जब ऋषि दुर्वासा ने इंद्र को ऐश्वर्य हीन हो जाने का शाप दिया  था, तब इंद्र के सभी रत्न, आभूषण, अमरावती का वैभव ही लुप्त नहीं हुए थे. चंद्रदेव भी लुप्त हो गए थे. इसके कारण संसार से चांदनी का लोप हो गया था और रात पूरी तरह अंधकारमय हो गई थी. इससे रात्रि नकारात्मक शक्तियों का प्रतीक बन गई. जब सागर मंथन के बाद चंद्रमा की फिर से उत्पत्ति हुई तब उन्होंने अपनी किरणों से रात्रि के नकारात्मक प्रभाव को दूर कर दिया. इस तरह वह सौभाग्य के प्रतीक बन गए.

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यही वजह है कि चंद्रमा प्रेम के भी प्रतीक हैं और सुहागिन स्त्रियों के सौभाग्य के सूचक हैं. उन्हें यह वरदान देवी लक्ष्मी से ही मिला है. इसलिए सौभाग्य की चाहत के लिए स्त्रियां जब कोई व्रत करती हैं तो उनके साक्षी चंद्रदेव ही होते हैं जो व्रत पूरा होने के गवाह होते हैं. इसलिए वह सौभाग्य देने वाले भी देवता बन जाते हैं.

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