कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अक्षय नवमी के नाम से जाना जाता है. यह तिथि सिर्फ धार्मिक या पूजा-पाठ वाले महत्व की नहीं है, बल्कि यह एक तरीके आयुर्वेदिक दिन भी है. अक्षय नवमी को आखा नवमी भी कहा जाता है और दोनों का अर्थ ही अखंडता होता है, लेकिन सवाल उठता है कि इस अक्षय वरदान का प्रतीक आंवला कैसे बन गया? क्यों इस फल को अक्षय फल की मान्यता मिली है.
गुणकारी औषधियों में प्रमुख है आंवला
पद्म पुराण में जिक्र है कि सागर मंथन के दौरान विष की बूंदें छलकने से नशीली और गर्म प्रकृति वाली औषधियों-वनस्पतियों की उत्पत्ति हुई. वहीं अमृत की बूंदे छलकने से शीतलता पहुंचाने वाली, कई प्रकार के पुष्टिवर्धक तत्वों वाली औषधियों-वनस्पति की उत्पत्ति हुई. आंवला कई गुणकारी औषधियों में सबसे प्रमुख है और खास बात है कि यह अपने हर स्वरूप में अधिक से अधिक लाभदायक है.
आंवले को पेड़ से प्राप्त फल के तौर पर सीधे खाइए, सर्दियों में इसकी चटनी बनाकर खाइए, मुरब्बा और अचार के रूप में सेवन करें और वहीं आंवले को सुखाकर स्टोर कर लें या चूर्ण बना लें तो यह कई दिनों तक चलने वाली औषधि बन जाता है. त्रिफला नाम की आयुर्वेदिक औषधि का आधार आंवला है. यह ब्राह्मी और हरण के साथ मिलकर अचूक रामबाण औषधि बन जाता है.
इतने गुणों को देखकर ही आंवले को औषधियों में श्रेष्ठता का दर्जा मिला हुआ है और आयुर्वेद में औषिधीय फलों के रूप में प्रयोग किया जाने वाला यह फल वैद्यों की भी पहली पसंद है.
कैसे अक्षय भंडार का प्रतीक बन जाती है अक्षय नवमी
अब धार्मिक आधार पर देखें तो नवमी तिथि संपूर्णता का प्रतीक है. 9 की संख्या का मूलांक पूर्णता का परिचय देता है. ऐसी पूर्णता जो अक्षय हो, इसलिए अक्षय नवमी पूर्णता प्रदान करने वाली तिथि बन जाती है.
देवी लक्ष्मी ने की थी आंवला वृक्ष की पूजा
एक और पौराणिक कथा इस बाबत मिलती है, जो कार्तिक शुक्ल नवमी तिथि के अक्षय होने को सिद्ध करती है. हुआ यूं कि एक बार देवी लक्ष्मी धरती पर भ्रमण कर रही थी. भगवान विष्णु पालक होने के साथ सभी प्रकार के वैभव और ऐश्वर्य के देवता भी हैं और वहीं महादेव अविनाशी हैं. देवी लक्ष्मी ने धरती वासियों के दुख देखे तो उन्होंने सोचा कि ऐसा क्या उपाय हो कि धर्म कार्य में लगे लोगों को ऐसे पुण्य प्राप्त हों जिनका विनाश न हो सके. वह अविनाशी हों और कभी क्षय न होने वाले अक्षय पुण्य के लाभार्थी बनें.
देवी लक्ष्मी इसी उधेड़बुन में थीं कि वहां देवर्षि नारद आ गए. उन्होंने माता लक्ष्मी से उनकी चिंता का कारण पूछा. तब देवर्षि नारद ने कहा कि अगर भगवान विष्णु और महादेव की पूजा एक साथ की जाए तो दोनों के ही लाभ एक साथ साधे जा सकते हैं. लेकिन भगवान विष्णु का पूजन सभी एक साथ कर पाएं ऐसा संभव नहीं था. इसके लिए कोई सरल उपाय खोजना था, क्योंकि दोनों के ही लिए अलग-अलग तत्व और पदार्थ पूजा में होने चाहिए थे.
तुलसी और बेल दोनों के गुण हैं आंवले में
भगवान विष्णु को तुलसी दल प्रिय है तो महादेव शिव को बेलपत्र प्रिय है. तब देवी ने इसका हल आंवले में निकाला. आंवला एक ऐसी औषधि है, जिसमें अधिक शीत को नियंत्रित करने की क्षमता है साथ ही यह ठंडक भी प्रदान करता है. आंवले में तुलसी और बेल के पत्ते दोनों के गुण पाए जाते हैं.
तब देवी लक्ष्मी ने आंवले की पूजा कार्तिक के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को की. इससे भगवान विष्णु और शिव दोनों ही प्रकट हुए और आंवले की पूजा को अपनी पूजा की मान्यता प्रदान की. आंवला का वृक्ष केले के ही पेड़ की तरह शैव और वैष्णव परंपरा के बीच जुड़ाव का प्रतीक है. आंवले के फल को ब्रह्मा, तने को विष्णु और इसकी जड़ों को शिव माना जाता है. भगवान शिव का मूलशंकर नाम उन्हें यहीं से मिलता है. आंवले की पत्तियां देवियों के स्वरूप का प्रतीक हैं. इस तरह आंवला आरोग्य, ऐश्वर्य और ज्ञान का अक्षय भंडार बन जाता है.
आंवले के वृक्ष के नीचे भोजन करने की परंपरा भी इसके आरोग्य वर्धक गुण के कारण है. आंवला पर्यावरण को स्वच्छ करता है और साफ पर्यावरण में किया गया भोजन विकारों को दूर करके पोषण प्रदान करता है. इसलिए अक्षय नवमी के दिन आंवले के वृक्ष की पूजा करके उसकी छाया में बैठकर भोजन किया जाता है.
विकास पोरवाल