छत्तीसगढ़ के बस्तर में रथयात्रा का पर्व बहुत ही अनोखा, मनोरंजक और कई मायनों में दुर्लभ है. इसे गोंचा रथ यात्रा कहा जाता है. बस्तर में जगन्नाथ रथयात्रा का इतिहास कई साल पुराना है.
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बस्तर में भगवन जगन्नाथ रथ यात्रा देश के अन्य हिस्सों से बिल्कुल अलग तरीके से मनाई जाती है. इस पावन पर्व में तुपकी का अपना अलग महत्व है. बस्तर में भगवन जगन्नाथ रथ यात्रा के दौरान तुपकी से सलामी देने की परंपरा है. हर साल मनाए जाने वाले गोंचा रथ यात्रा में इस रस्म को पूरे रीति-रिवाजों के साथ मनाया जाता है.
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बस्तर में बंदूक को तुपक कहा जाता है. तुपक शब्द से ही तुपकी शब्द बना है. इसी तुपकी से रथयात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ को सलामी दी जाती है. बस्तर के लोग भगवान के प्रति आभार व्यक्त करने के उद्देश्य से सलामी देते हैं.
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तुपकी को फलों को भरा जाता है. इस फल को बस्तर की स्थानीय भाषा में पेंग या पेंगु कहते हैं. ये एक जंगली लता का फल है, जो आषाढ़ के महीने में पाया जाता है. इसे हिंदी भाषा में मालकांगिनी कहते हैं.
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तुपकी की गोली की रेंज 50 फीट तक होती है. तुपकी की नली में पीछे की तरफ से पेंग फल को भरा जाता है. इन फलों को तुपकी यानी बंदूक में बांस की बनी छड़ी की मदद से भरते हैं. इसके बाद भगवान जगन्नाथ को तुपकी से सलामी दी जाती है.
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पेंग फल के बीजों से तेल भी निकाला जाता है, जो कई औषधीय गुणों से भरपूर है. इस तेल का इस्तेमाल जोड़ों के दर्द, गठिया तथा वात रोगों के लिए दवा के रूप में किया जाता है. इसके तेल से शरीर की मालिश भी कर सकते हैं.
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मान्यता के अनुसार, रियासतकालीन गोंचा पर्व में विग्रहों को सलामी देने की एक प्रथा थी. इसके स्थान पर बस्तर के ग्रामीणों ने इस तुपकी का अविष्कार कर उस प्रथा को आज भी कायम रखा है. बस्तर के लोगों का मानना है कि, गोंचा रथ यात्रा में तुपकी की मार, शरीर पर अवश्य पड़नी चाहिए जिससे शारीरिक समस्याएं स्वयं समाप्त हो जाती हैं.
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कहा जाता है कि बस्तर में रथ यात्रा के उत्सव का आरंभ बस्तर के महाराजा पुरूषोत्तम देव की जगन्नाथपुरी की यात्रा के बाद हुआ था. मान्यताओं के अनुसार, ओडिशा में सर्वप्रथम राजा इन्द्रद्युम्न ने इस रथयात्रा की शुरुआत की थी. उनकी पत्नी का नाम ‘गुण्डिचा’था. ओडिशा में गुण्डिचा कहा जाने वाला ये पर्व बाद में बस्तर में ‘गोंचा’कहलाया. लगभग 605 वर्ष पूर्व प्रारंभ की गई रथ यात्रा की ये परंपरा आज भी कायम है.
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ओडिशा में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की पवित्र लकड़ियों की जो अर्धनिर्मित मूर्तियां स्थापित हैं, उन मूर्तियों का निर्माण भी महाराजा इंद्रद्युम्न ने करवाया था. माना जाता है कि इस रथ यात्रा के दर्शन करने से जीवन के सभी संकट दूर हो जाते हैं और व्यक्ति को बैकुंठ धाम की प्राप्ति होती है.
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रथ यात्रा के दौरान, परंपरागत तरीकों से रथों को सजाया जाता है. इन रथों में सवार भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं बहन सुभद्रा जी की प्रतिमाओं को जगन्नाथ मंदिर से पूरे नगर में घुमाया जाता है. माना जाता है, इस दौरान भगवान जगन्नाथ की पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं.
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