तेजस्वी के धुआंधार चुनावी वादे क्यों महागठबंधन की कमजोर कड़ी बन सकते हैं

महागठबंधन के सीएम कैंडिडेट तेजस्वी यादव ने अपनी तरफ से बिहार की जनता के लिए ढेर सारे वादे कर दिए हैं. इनमें से कुछ वादें ऐसे हैं जो किसी भी देश या राज्य के लिए व्यवहारिक नहीं हैं. सवाल उठता है कि क्या तेजस्वी के वादे आम लोगों को लुभाएंगे?

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तेजस्वी यादव ने भारी भरकम चुनावी वादे करके मुसीबत मोल ली है? तेजस्वी यादव ने भारी भरकम चुनावी वादे करके मुसीबत मोल ली है?

संयम श्रीवास्तव

  • नई दिल्ली,
  • 23 अक्टूबर 2025,
  • अपडेटेड 8:04 PM IST

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के मैदान में तेजस्वी यादव ने जैसे ही धुआंधार चुनावी वादों की बौछार शुरू की है राजनीतिक दलों में हलचल तेज हो गई है.तेजस्वी ने न केवल युवाओं, महिलाओं और कर्मचारियों को लुभाने वाले वादे किए हैं बल्कि इन्हें 'चेंज मेकर' का नारा देकर बिहार के बदलाव का प्रतीक बना दिया है. लेकिन सवाल यह है कि क्या ये वादे जैसे कि हर परिवार को सरकारी नौकरी, जीविका दीदियों को 30 हजार रुपये वेतन महागठबंधन की ताकत बन पाएंगे? 

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देखने में तो ये वादे न केवल आकर्षक लगते हैं, बल्कि बिहार की बेरोजगारी (लगभग 15%) और पलायन जैसी समस्याओं को सीधे निशाने पर लेते हैं. फिर भी, इनकी व्यावहारिकता, वित्तीय बोझ और विपक्ष के हमलों ने इन्हें जोखिम भरा बना दिया है. 

तेजस्वी यादव ने अपनी यात्राओं और प्रेस कॉन्फ्रेंसों के जरिए एक के बाद एक वादे किए, जो मुख्यतः रोजगार, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक न्याय पर केंद्रित हैं. इनमें से सबसे प्रमुख वादा है राज्य के हर परिवार को एक सरकारी नौकरी. तेजस्वी ने दावा किया कि महागठबंधन की सरकार बनते ही 20 महीनों में बिहार के हर परिवार (कुल 2.97 करोड़) को कम से कम एक सरकारी नौकरी दी जाएगी. 

इसके साथ ही जीविका दीदियों को स्थायी नौकरी और 30 हजार वेतन का वादा भी महत्वपूर्ण है. इस वादे के अनुसार बिहार की लगभग 2 लाख जीविका दीदियों (महिला स्वयं सहायता समूहों की सदस्य) को सरकारी कर्मचारी का दर्जा दिया जाना है. इसके साथ ही राज्य के सभी संविदा (कॉन्ट्रैक्ट) कर्मचारियों- जो संख्या में लाखों हैं को स्थायी नौकरी का वादा पूरा करना आसान काम नहीं है.

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इसके अलावा भी तेजस्वी ने बहुत से वादे किए हैं. हालांकि तेजस्वी के बहुत से वादे सरकार अपनी इच्छाशक्ति से पूरी कर सकती है. पर कुछ वादे जैसे हर परिवार को सरकारी नौकरी और महिलाओं को आर्थिक सहायता आदि ऐसे हैं जिन्हें पूरा करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी हैं. कांग्रेस और बीजेपी की जिन राज्यों में सरकारें वहां भी इस तरह के वादे आज तक पूरे नहीं हो सके हैं. जाहिर है कि बिहार की जनता भी समझ रही है कि तेजस्वी के ये वादे सिर्फ सत्ता में आने के लिए हैं. 

गैर-जिम्मेदार सपने बेचने वाले नेता की छवि बन सकती है

राजनीतिक विश्वेषक विजयेंद्र कहते हैं कि अगर कोई साइकल पर चलने वाला पिता अपने बेटे के लिए मोटरसाइकल गिफ्ट करने की बात करता है तो बेटा सपना पूरा होने की खुशी में नाचने लगता है . पर अगर वही पिता अपने बेटे के लिए कार खऱीदने की बात करता है तो बेटे के लिए यह चिढ़ाने जैसा या हवा हवाई वादे करने जैसा हो जाता है. विजयेंद्र कहते हैं कि तेजस्वी के वादे ऐसे ही हैं. आम लोगों को भी पता है कि ये वादे हैं वादों का क्या ?

भाजपा और जदयू पहले ही तेजस्वी के घोषणाओं को हवा-हवाई सपने बताने में जुट गए हैं. जनता को यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि तेजस्वी की आर्थिक समझ कमजोर है, और उनके वादे बिहार को दिवालिया बना सकते हैं.

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भाजपा की ओर से बार-बार यह कहा जा रहा है कि तेजस्वी यादव नौकरियों की बात करते हैं, पर बताएं पैसा कहां से आएगा? नीतीश कुमार भी तंज कसते हैं कि वादे करना आसान है, निभाना मुश्किल.

जाहिर है कि इन बयानों के ज़रिए भाजपा-जदयू गठबंधन तेजस्वी की छवि एक गैर-जिम्मेदार सपने बेचने वाले नेता के रूप में गढ़ना चाहते हैं. अगर जनता को ये बात समझ में आ जाती है कि ये लोग वोट तो ले लेंगे, लेकिन ये वादे पूरे नहीं कर पाएंगे तो यह महागठबंधन के लिए उल्टा पड़ जाएगा. 

वादों की बजाय विश्वसनीय योजना की जरूरत

तेजस्वी यादव अगर अपने वादों को महागठबंधन की ताकत बनाना चाहते हैं, तो उन्हें वादे नहीं बल्कि योजनाएं पेश करनी चाहिए थीं.उदाहरण के लिए उन्हें नौकरियों की बात करते समय यह बताना चाहिए था कि इसे कैसे क्रियान्वित किया जाएगा.
हालत यह हो गई है महागठबंधन के नेता पत्रकारों का जवाब नहीं दे पा रहे हैं.

कांग्रेस नेता कन्हैया कुमार जैसा हाजिर जवाब भी इस मुद्दे पर बगलें झांकने लगते हैं. आज तक पंचायत में जब उनसे हर परिवार को सरकार नौकरी देने के तेजस्वी के वादे के बारे में पूछा गया तो वो ठीक से जवाब नहीं दे सके. उनके विरोधियों ने उनके जवाब को रील्स बनाकर उनका खूब मजाक बनाया. जाहिर है कि हर परिवार को सरकारी नौकरी देने का मतलब कम से कम 2 करोड़ सरकारी नौकरियां देना. जो कोई सरकार अगले 20 सालों में नहीं कर सकती है जबकि तेजस्वी 20 महीने में ही अपना वादा पूरा करने की बात करते हैं.

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जाहिर है कि जब तक वादों को ठोस नीति में नहीं बदला जाएगा, वे केवल भाषणों की सजावट बने रहेंगे. महागठबंधन को चाहिए कि वह अपने घोषणापत्र को भावनात्मक अपील की बजाय आर्थिक व्यवहार्यता के साथ तैयार करे.यही रणनीति जनता में भरोसा जगाएगी और विपक्ष के हमलों को कमजोर करेगी.

वादों का राजनीतिक जाल या आत्मघाती कदम?

तेजस्वी यादव का करिश्मा, संवाद शैली और युवाओं से जुड़ाव उन्हें बिहार की राजनीति में एक बड़ा चेहरा बनाते हैं. लेकिन उनकी पूरी चुनावी रणनीति धुआंधार वादों के इर्द-गिर्द घूम रही है. राजनीति में कोई भी वादा तब ताकत बनता है जब उसमें विश्वसनीयता, यथार्थता और क्रियान्वयन की संभावना हो.

आम युवा यह समझ रहा है कि इस तरह का वादा तो बीजेपी और जनसुराज भी कर सकती है. पर उन लोगों ने नहीं किया क्योंकि वो इस तरह जनता को मूर्ख नहीं बना रहे हैं. एनडीए और जनसुराज ने भी बहुत से वादे किए हैं जो व्यवहारिक हैं, उन्हें सरकार बनने के बाद पूरा किया जा सकता है. 

तेजस्वी के वादों को आधार इस लिए भी नहीं मिल रहा है कि महागठबंधन में उनके सहयोगी भी इस तरह के वादों को इंडोर्स नहीं कर रहे हैं. कांग्रेस नेता कभी इस तरह के वादे नहीं कर रहे हैं जो वो पूरी नहीं कर पा रहे हैं. कांग्रेस ने कर्नाटक और हिमाचल में ओल्ड पेंशन स्कीम बहाली की बात की थी पर आज तक वो पूरी नहीं हो सकी हैं. 

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तेजस्वी यादव के वर्तमान वादों में उत्साह तो है, पर ठोस नीति और वित्तीय रूपरेखा का अभाव है. यही अभाव भाजपा-जदयू के लिए हमला बोलने का सबसे आसान रास्ता खोल देता है.

प्रशासनिक विश्वसनीयता का अभाव

तेजस्वी यादव जब 2015–2017 में उपमुख्यमंत्री थे, तब उनके अधीन विभागों (विशेषकर सड़क और भवन निर्माण) में कई विवाद हुए. उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भले ही अभी अदालत में साबित न हुए हों, पर भाजपा-जदयू इन मामलों को बार-बार उछालते हैं.ऐसे में जब वे कहते हैं कि हम युवाओं को नौकरी देंगे, तो विपक्ष तुरंत पूछता है - क्या उसी तरीके से, जैसे लालू-राबड़ी राज में दिया जाता था? यह व्यंग्य जनता के मन में प्रशासनिक अक्षमता का भाव जगाता है.

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