अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी (तालिबान नेता) के भारत दौरे और उन्हें मिले स्वागत को लेकर देश के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों के बीच नाराजगी है. उनमें से एक हैं ख्यात शायर जावेद अख्तर. उनकी चिढ़ का कारण क्या है? 13 अक्टूबर 2025 को जावेद अख्तर ने एक्स पर एक पोस्ट लिखी, जिसमें उन्होंने मुत्तकी को दिल्ली में मिले सम्मान और उत्तर प्रदेश के दारुल उलूम देवबंद में किए गए भव्य स्वागत पर गहरी नाराजगी जताई. उनका कहना था कि मुझे शर्मिंदगी महसूस होती है जब दुनिया के सबसे खराब आतंकवादी समूह तालिबान के प्रतिनिधि को उन लोगों से सम्मान मिलता है जो हर तरह के आतंकवाद के खिलाफ मंच से चिल्लाते हैं. देवबंद पर भी शर्म आती है, जो लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिबंध लगाने वाले 'इस्लामी हीरो' को इतना आदर दे रहा है. अख्तर लिखते हैं कि मेरे भारतीय भाइयों-बहनों, हमारे साथ क्या हो रहा है?
तालिबानी विदेश मंत्री के पीसी में पहले महिला पत्रकारों की एंट्री नहीं होने पर काफी बवाल मचने के बाद मुत्तकी ने अपनी पीसी में महिलाओं की एंट्री पर से रोक हटा दी थी. मामले को यहीं पर खत्म हो जाना चाहिए था. पर कुछ लोगों को यह पच नहीं रहा है कि अपने पड़ोसी मुल्क अफगानिस्तान के साथ भारत दोस्ती का हाथ क्यों बढ़ा रहा है. क्या ऐसे लोगों को पाकिस्तान के प्रति हमदर्दी रखने का नाम नहीं दिया जा सकता?
आखिर अफगानिस्तान के साथ संबंध क्यों नहीं बहाल होने चाहिए?
आखिरकार जिन तथ्यों के आधार पर यह तर्क दिया जा रहा है कि अफगानिस्तान के साथ संबंधों को बहाल नहीं किया जाना चाहिए. आखिर बामियान की बुद्ध मूर्तियों को गिराने, भारतीय इंजीनियरों को मारने की बातें याद दिलाकर कहा जा रहा है कि भारत किस आधार पर अफगानिस्तान के साथ संबंध बहाल कर रहा है? पर इस तरह तो पाकिस्तान के गुनाहों की लिस्ट इतनी लंबी हो जाएगी. जाहिर है कि उन तर्कों के आधार पर तो पाकिस्तान को भी एक देश के रूप में मान्यता नहीं देना चाहिए. आखिर पाकिस्तान के गुनाहों के बावजूद पाकिस्तान के साथ भारत अब तक किस तरह संबंध बनाए हुए था?
मुत्तकी 9 अक्टूबर 2025 को दिल्ली पहुंचे. यह 2021 में तालिबान की सत्ता हथियाने के बाद उनका पहला उच्च-स्तरीय भारत दौरा था. उन्होंने विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से मुलाकात की. चर्चा में भारत-अफगानिस्तान के आर्थिक, व्यापारिक और विकास सहयोग पर जोर दिया गया. भारत ने काबुल में अपनी तकनीकी मिशन को पूर्ण दूतावास का दर्जा देने की बात कही. इस्लामी शिक्षा के केद्र देवबंद में मुत्तकी को माल्यार्पण, तालियां और बड़ी भीड़ ने स्वागत किया. दारुल उलूम के उप-कुलपति मौलाना अबुल कासिम नोमानी और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने उनका स्वागत किया.
तालिबान को वैश्विक स्तर पर मान्यता नहीं मिली है, खासकर महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों का हनन (जैसे छठीं कक्षा के बाद शिक्षा पर प्रतिबंध) के कारण. अख्तर, जो खुद एक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष विचारक हैं, इसे भारत की छवि और नैतिकता के लिए शर्मनाक मानते हैं.
जावेद अख्तर की आलोचना सही हो सकती है, और उन्हें पूरा अधिकार है कि वो देवबंद में जो हुआ वो उसकी आलोचना करें. पर उनका यह कहना कि जब दुनिया के सबसे खराब आतंकवादी समूह तालिबान के प्रतिनिधि को उन लोगों से सम्मान मिलता है जो हर तरह के आतंकवाद के खिलाफ मंच से चिल्लाते हैं. जाहिर है कि उनका इशारा केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर था.
जावेद अख्तर शायद यह भूल गए कि कूटनीति अक्सर आदर्शों से परे होती है. भारत ने तालिबान को कभी मान्यता नहीं दी, लेकिन पड़ोसी देश होने के नाते व्यावहारिक संबंध बनाए रखना जरूरी है. इसके अलावा अफगानिस्तान में खनिज संसाधनों में निवेश, चाबहार बंदरगाह का विकास (ईरान के रास्ते अफगानिस्तान तक पहुंच), और वाघा बॉर्डर से व्यापार बढ़ाने की बात हुई. मुत्तकी ने खुद कहा कि वे भारत-अफगानिस्तान संबंधों को मजबूत करना चाहते हैं.
दरअसल ये भारत नहीं करेगा तो कोई और करेगा. आज रूस, चीन और पाकिस्तान और तुर्किए तो तालिबान को मान्यता दे ही चुके हैं. देश इस तरह के नैतिक ढकोसलों से नहीं चलता है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप दुनिया के सबसे बड़े आतंकी राष्ट्र पाकिस्तानी नेताओं के साथ घूम रहे हैं. सीरिया के उन नेताओं के साथ अमेरिका पेंग बढ़ा रहा है जिन्हें संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका खुद आतंकी मानता रहा है. दुनिया के तमाम आतंकी गुटों को पनाह देने वाले मुल्क कतर के साथ अगर संबंध बनाए जा सकते हैं तो फिर अपनी सुरक्षा और अन्य आवश्यकताओं के लिए क्या तालिबान से बात करना वाजिब नहीं हो जाता है.
जावेद अख्तर का ही डॉयलॉग है- लोहे को लोहा ही काटता है
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि तालिबान को पाकिस्तान के खिलाफ चेतावनी देने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. जो भारत के लिए फायदेमंद है. कहने को तो भारत अफगानिस्तान को मानवीय मदद भेजता रहा है, और यह दौरा उसी का हिस्सा था.पर दुनिया को पता है कि भारत और अफगानिस्तान की बढ़ती नजदीकी से सबसे अधिक परेशानी किसे महसूस हो रही है. पाकिस्तान जिसने तालिबान को अफगानिस्तान में प्लांट करने के लिए वो सब कुछ किया उसे करना चाहिए था. अब भारत से तालिबान की बढती नजदीकी से एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि तालिबान अब उनके हाथ की कठपुतली नहीं है.
भारत की रणनीति 'लोहे को लोहा काटता है' के सिद्धांत पर चलने की तरह है. जिसे कभी जावेद अख्तर ने खुद ब्लॉकबस्टर मूवी शोले में ये सिद्धांत दिया था. दरअसल इस फिल्म के पटकथा लेखक सलीम जावेद थे. फिल्म में ठाकुर डाकू गब्बर सिंह से बदला लेने के लिए 2 चोरों की मदद लेता है.ठाकुर रिटायर्ट पुलिस वाला होता है पर उसे गब्बर को पकड़ने के लिए पुलिस से अधिक दो शातिर चोरों पर भरोसा होता है.फिल्म का एक डॉयलॉग भी है कि लोहे को लोहा ही काटता है. पाकिस्तान जिस तरह भारत के लिए सरदर्द बना हुआ उसके लिए इससे बेहतर तरीका हो नहीं सकता था.
देवबंद में तालिबानी नेता को मिले सम्मान की आलोचना भी तार्किक नहीं है
दारुल उलूम एक गैर-सरकारी, धार्मिक संस्था है. उनका मुत्तकी का स्वागत करना एक धार्मिक-सांस्कृतिक कदम हो सकता है, न कि तालिबान की नीतियों का समर्थन. देवबंद ने पहले भी तालिबान की कुछ नीतियों (जैसे शिक्षा पर प्रतिबंध) की आलोचना की है, इसलिए इसे पूर्ण समर्थन मानना शायद गलत है. संभव है कि देवबंद ने इसे एक अवसर के रूप में देखा हो, ताकि तालिबान नेताओं को उदार इस्लामी विचारधारा (जो देवबंद दावा करता है) से प्रभावित किया जाए.
भारत सरकार तालिबान से रणनीतिक संबंध बनाए रख रही है, तो देवबंद जैसे संस्थान का स्वागत भी उसी दिशा में एक कदम हो सकता है. इसे तालिबान की विचारधारा का समर्थन मानना जरूरी नहीं. अख्तर ने शायद इसे गलत संदर्भ में लिया.
इतिहास में भी, भारत के धार्मिक नेताओं ने विदेशी नेताओं (विवादास्पद भी) से मुलाकात की है. बिना उनकी नीतियों का समर्थन किए.
देवबंद ने स्पष्ट रूप से तालिबान के शासन की तारीफ नहीं की, बल्कि एक अतिथि का स्वागत किया है. वैसे भी भारत में संभल सपा सांसद रहे शफीकुर रहमान बर्क ने 2021 में तालिबान की जीत की तारीफ की थी.क्या ऐसे लोगों और उनकी पार्टियों की आलोचना तब जावेद अख्तर ने की थी?
डी फैक्टो ही आगे चलकर डी जूर हो जाता है
अंतराष्ट्रीय संबंध में एक टर्म आता है डी जूर और डीफैक्टो.डी जूर (De Jure) का मतलब है कानून के अनुसार, जो आधिकारिक और कानूनी मान्यता प्राप्त स्थिति को दर्शाता है, जबकि डी फैक्टो (De Facto) का अर्थ है वास्तव में, जो वास्तविकता में मौजूद स्थिति को दर्शाता है, भले ही वह कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त न हो. आसान शब्दों में, डी जूर वह है जो कानूनी रूप से सही है, और डी फैक्टो वह है जो वास्तव में हो रहा है.
दुनिया भर के देशों में जब तख्तापलट या क्रांति के द्वारा सत्ता परिवर्तन होता है तो बहुत दिनों तक यह स्थिति रहती है. आज अफगानिस्तान में डी फैक्टो की स्थिति है. धीरे-धीरे वह डी जूर हो जाएगा. दुनिया के तमाम देशों में तख्तापलट या क्रांति के बाद सत्ता में आने वाली सरकारों को पहले मान्यता नहीं मिली. बाद में धीरे-धीरे दुनिया भर के देशों ने उन्हें मान्यता दी. अफगानिस्तान में तालिबान सरकार के साथ भी ऐसा हो रहा है. उसकी पर्सनल नीतियों जैसे महिलाओं की शिक्षा और पर्दा प्रथा के चलते हम उनसे दूरी नहीं बना सकते हैं. क्योंकि इस आधार पर तो अमेरिका, चीन, रूस और इजरायल जैसे सभी देशों से नाता तोड़ लेना चाहिए. क्योंकि ये सभी देश दुनिया में इतने बड़े नरसंहार कर चुके हैं कि उनको मान्यता देना तो दूर उनके साथ किसी भी प्रकार का व्यापार या अन्य सहयोग भी नहीं करना चाहिए.
संयम श्रीवास्तव