मर्दानगी की नई परिभाषा लिख रही है 'एनिमल', क्या शायरी करने वाले कमजोर होते हैं?

रणबीर कपूर की एनिमल को जनता जितना पसंद कर रही है उतना ही उसका विरोध भी कर रही है. अत्यधिक हिंसा और महिलाओं के लिए अपमानजनक डॉयलॉग्स वगैरह को लेकर फिल्म की खूब आलोचना हो रही है. आइये देखते हैं कि आलोचना का पक्ष कितना सही है?

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संयम श्रीवास्तव

  • नई दिल्ली,
  • 05 दिसंबर 2023,
  • अपडेटेड 8:46 PM IST

महज तीन फिल्मों अर्जुन रेड्डी, इसकी रिमेक कबीर सिंह और अब एनिमल के जरिए इसके डायरेक्टर संदीप वांगा ने नायक की मर्दानगी की नई परिभाषा गढ़ दी है. जिन्होंने अर्जुन रेडी या कबीर सिंह और एनिमल देखी होगी उन्हें इन फिल्मों के किरदारों से न चाहते हुए भी प्यार हो जाएगा. ये किरदार भारतीय पारंपरिक समाज में कभी पसंद नहीं किए गए पर कहांनियों और किस्सों में ऐसे मर्दों को खूब लोकप्रियता मिलती रही है. मुगलेआजम का सलीम हो या देवदास का देवदास ऐसे ही किरदार रहे हैं. जिन्हें भारत में खूब पसंद किया गया. वांगा का हीरो इन्हीं किरदारों का विस्तार है. 

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वांगा की फिल्मों का नायक करीब करीब सनकी होता है, वह आम जनजीवन में परफेक्ट नहीं है, पर अपनी सनक में कुछ भी कर सकता है लेकिन अपनों पर जान देता है. ये यूथ सेंटिमेंट है. बॉडी, स्वैग, स्टाइल, दारू, सिगरेट, टशन, उस पर मरने वाली खूबसूरत जहीन लड़की, खूब पैसा, स्टाइलिश बाइक आदि. एनिमल का हीरो रणविजय सिंह बलबीर (रणबीर कपूर) तो रेंज रोवर और प्राइवेट जेट से चलता है. हम ऐसे लोगों से आम जीवन में नफरत करते हैं पर पर्दे पर उन्हें पसंद करने लगते हैं. अर्जुन रेड्डी और कबीर सिंह के बाद वांगा की फिल्म एनिमल का सुपर डुपर हिट होना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.

एनिमल इस कदर हिट हो रही है कि इसके आगे पठान और जवान कहीं नहीं टिकती. जाहिर है ऐसी फिल्मों के साथ विवाद भी बड़े पैमाने पर होते हैं. फिल्म को लेकर जाने माने गीतकार स्वानंद किरकिरे और प्रख्यात लेखिका शोभा डे आदि ने भी सवाल उठाए हैं. फिल्म में बहुत कुछ ऐसा है जिस पर विवाद हो सकता है और होना भी चाहिए. लेकिन, कई ऐसे मुद्दों पर आलोचना हो रही है, जो बेतुका है...

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अल्‍फा मेल से जलन रखने वाले कमजोर लोगों ने रची है पोएट्री

थोड़ा स्‍पॉयलर है, लेकिन बात समझाने के लिए जरूरी है. फिल्‍म के शुरुआत में अमेरिका से कई साल बाद इंडिया आया हीरो अपने दोस्त के घर पहुंचता है. दोस्त की बहन की सगाई हो रही है. दोस्त की बहन हीरो को भैय्या बुलाती है. एंगेजमेंट के बाद लड़की से मिलकर हीरो पूछता है कि तुम तो कहती थी कि तुम्हें अमेरिका जाना है, एमबीए करना है ...क्या तुम लव मैरिज कर रही हो. लड़की जवाब देती है कि नहीं पैरंट्स ने एक हफ्ते पहले ही मिलवाया. तबसे बातचीत हो रही है. अब शादी करके यूएस चली जाउंगी, वहीं पढ़ाई पूरी करूंगी. हीरो उसे कहानी सुनाता है कि इतिहास में महिलाओं को अपना वर चुनने की आजादी रही है. वो किसके साथ रहेंगी उनकी मर्जी होती थी. हीरो उसे बताता है कि पुराने जमाने में दो प्रकार के पुरुष होते थे- एक अल्फा मेल दूसरे वीक (कमजोर) लोग. महिलाएं अल्फा मेल को चुनती थीं ताकि उनकी सुरक्षा हो सके और उनके ह्रष्टपुष्ट बच्चे हो सकें. बाद में कमजोर लोगों ने देखा कि ये तो सभी अच्‍छी स्त्रियां अल्फा मेल के पास चलीं गईं. तो कमजोर लोगों ने पोएट्री का इजाद किया. महिलाओं को रिझाने के लिए कमजोर लोग कहने लगे कि मैं तुम्हारे लिए चांद तारे तोड़कर लाऊंगा आदि आदि. इस कहानी को सुनाने के बाद हीरो हीरोइन से पूछता है कि अगर तुम उस जमाने में होती और तुम्हें चुनाव करना होता तो दोनों तरह के मर्दों में किसे चुनती? लड़की सकुचाते हुए बोलती है कि अल्फा मेल को.

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लड़की का ये स्‍वाभाविक चुनाव ही इस फिल्‍म की कामयाबी का कारण है. क्‍यों लोगों को अल्‍फा मेल वाली एनिमल ज्‍यादा पसंद आ रही है, बजाय किसी भी रोमांटिक फिल्‍म के. वैसे आजकल तो न कोई रोमांटिक फिल्‍म बन रही है, न ही कोई इसे देख रहा है. कुछ लोग शुरू के इस सीन को लेकर कह रहे हैं कि इसमें स्त्रियों को कमतर बता दिया गया है. अब ये कहानी एक शख्स अपनी पुरानी गर्लफ्रेंड को इंप्रेस करने के लिए सुनाता है. इसमें एथिक्स की बात कहां से आ गई. इस तरह के प्रसंगों में भी अगर नैतिकता और अनैतिकता की बात होने लगी तो फिल्में बननी मुश्किल हो जाएगी. 

महिलाओं की छवि खराब करने के आरोप पूरी तरह गलत

मशहूर गीतकार स्वानंद किरकिरे ने एनिमल में महिलाओं की छवि खराब करने का आरोप लगाते हुए नाराजगी जताई है. उन्होंने ट्विटर पर लिखा, “शांताराम की औरत, गुरुदत्त की साहब बीवी और गुलाम, ऋषिकेश मुखर्जी की अनुपमा, श्याम बेनेगल की अंकुर और भूमिका, केतन मेहता की मिर्च मसाला, सुधीर मिश्रा की मैं जिंदा हूं, गौरी शिंदे की इंगलिश विंगलिश, बहल की क्वीन, सुजीत सरकार की पीकू आदि, हिंदुस्तानी सिनेमा की कई ऐसी फिल्में हैं, जिन्होंने मुझे सिखाया कि स्त्री, उसके अधिकार, उसकी स्वायत्तता की इज्जत कैसे की जानी चाहिए. लेकिन एनिमल फिल्म देखने के बाद मुझे सच में आज की पीढ़ी की महिलाओं पर दया आ गई. वो लिखते हैं कि अब आपके लिए एक नया आदमी तैयार हो गया है, जो ज्यादा डरावना है, जो आपकी उतनी इज्जत नहीं करता और जो आपको अपने वश में करना चाहता है. तुम्हें दबाता हूं और खुद पर गर्व महसूस करता हूं. जब तुम, आज की पीढ़ी की लड़कियां, उस सिनेमा हॉल में बैठकर रश्मिका की सराहना कर रही थीं, तो मैंने मन ही मन समानता के हर विचार को श्रद्धांजलि दी. मैं हताश, निराश और कमजोर होकर घर आया हूं.”

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किरकिरे को समझना चाहिए कि एनिमल एक कमर्शल मूवी है. उन्होंने जिन फिल्मों और फिल्मकारों की चर्चा की है उन फिल्मों की तुलना एनिमल से कैसी की जा सकती है. पिछले 50 साल की हिंदी फिल्में देख लीजिए, 90 प्रतिशत फिल्मों में हीरो स्टाकर की तरह हीरोइन का पीछा करता रहा है. हीरो जिस तरह हीरोइन के पीछे जबरन पब्लिक प्लेस से लेकर घर परिवार तक पहुंचता रहा है उस तरह की हरकत तो आज की फिल्मों में खलनायक भी नहीं करते हैं. याद करिए कोई हसीना जब रूठ जाती है तो और भी नमकीन हो जाती है..., खंभे जैसी खड़ी है -लड़की है छड़ी है..इस तरह के हजारों गाने हैं जिसमें हीरो जो कर रहा होता है वो आजकल के दर्शक पचा नहीं सकेंगे.

एनिमल का हीरो हीरोइन से कहता है कि मैने तुम्हें पहले किस किया, पहले सेक्स किया, थप्पड़ भी पहले मैं ही मारुंगा. पर पूरी फिल्म में हीरोइन जो उसकी पत्नी बन चुकी है उसे कई बार थप्पड़ मारती है पर उद्दंड हीरो कभी अपनी पत्नी पर हाथ नहीं उठाता है. एक बड़े घर का बेटा है जिसे तमाम समीक्षक पुरुषवादी मानसिकता वाला बता रहे हैं पर वो अपनी बहन से कहता है कि क्या अपने पति के पीछे-पीछे चलती रहती हो. हारवर्ड से एमबीए क्या इसलिए ही किया था? वो अपनी बहन से पारिवारिक बिजनेस में इन्वॉल्व होने के लिए खुद कहता है. क्या कोई पुरुषवादी मानसिकता वाला शख्स इस तरह की बात कर सकता है?   

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'लिक माय बूट' वाले सीन के तह में जाना होगा

फिल्म पर आरोप है कि इसमें प्रेम करने वाली महिला के प्यार को परखने के लिए उसे जूते चाटने को कहा जाता है. पर ये आधी अधूरी बात है. फिल्म देखने के पहले मुझे भी बहुत बुरा लगा था कि ऐसा कैसे हो सकता है? लेकिन हकीकत कुछ और ही निकली. फिल्म की कहानी में एक और महिला किरदार की एंट्री होती है. विषकन्या के रूप में उसे विलेन ने नायक के पास भेजा है. लेकिन नायक उसे प्रेम के जाल में उलझाकर अपने दुश्मन का राज जानने की कोशिश करता है. जब महिला के राज खुल जाते हैं तो नायक उसे चले जाने के लिए कहता है. तृप्ति डिमरी इस महिला के किरदार में बेहद आकर्षक लगी हैं. नायक से महिला कहती है कि उसे प्यार हो गया है. रणविजय सिंह कहता है कि अगर वास्तव में प्यार है तो लिक माय बूट (मेरे जूते चाटो). पर जब वो नीचे झुकती है तो हीरो अपना पैर हटा लेता है. उसके दोस्त उस लड़की को मारने के लिए कहते हैं पर हीरो उसे ससम्मान छोड़ने के लिए कहता है. दरअसल हीरो उससे प्यार नहीं कर रहा होता है. और वो महिला उसकी और उसके परिवार को खत्म करने की योजना पर काम कर रही होती है. ऐसी महिला के साथ अगर हीरो इस तरह की बात करता है तो वो किस तरह से महिला विरोधी हो जाता है, ये समझ से परे है.
 
हां, विलेन और उसके धर्म से जुड़ी बातें गैरजरूरी और बे‍तुकी हैं...

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फिल्म और नाटक के शिल्प की एक विशेषता होती है कि हर पात्र के नाम और उसके परिचय का कहानी में कहीं न कहीं से जुड़ाव होता है और कुछ तर्क होते हैं. फिल्म के खलनायक को मुसलमान दिखाने की कोई जरूरत थी नहीं. वैसे ही फिल्मों में मुसलमानों को बार-बार आतंकवादी देखते हुए बच्चे बड़े हो रहे हैं. इस फिल्म में खलनायक को मुसलमान बताना और उसकी तीसरी शादी होते दिखाना, ये भी बताना कि उसकी पहली दो बीवियों से 8 बच्चे हैं. इतना ही नहीं तीसरी बीवी के साथ सबके सामने सेक्स करना आदि दिखाकर मुसलमानों के प्रति घृणा को और फैलाने के लिए फिल्म जरूर जिम्मेदार है. फिल्म की कहानी में कहीं से भी जरूरत नहीं थी कि खलनायक को मुसलमान दिखाया जाए. यदि उसे किसी जाति या धर्म का न भी दिखाते, तो चल जाता. और अगर मुसलमान दिखाए भी थो तीन -तीन शादियां और आठ बच्चे वगैरह दिखाकर डायरेक्टर क्या दिखाना चाहता है, समझ से परे है.

पूरी फिल्म में सैकड़ों हत्याएं होती हैं पर कहीं भी पुलिस नहीं दिखती है. लगता है कि वास्तव में फिल्म किसी जंगल में चल रही है. भारत में ही नहीं, नीदरलैंड में भी कोई पुलिस नहीं है, कोई कानून नहीं है. भारी हथियारों के साथ चार्टर्ड प्लेन से हीरो अपने साथियों और बंदूकों के साथ नीदरलैंड जाता है और खलनायक का खात्मा करके आता है. वहां भी कोई पुलिस नहीं है. गजब है.
 

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