प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर बार क्रिसमस के मौके होने वाले अलग अलग आयोजनों में हिस्सा लेते रहे हैं. पिछले साल वे मंत्रिमंडल में अपने साथी जॉर्ज कुरियन के घर क्रिसमस सेलिब्रेशन में शामिल हुए थे और फिर बिशप कान्फ्रेंस में भी हिस्सा लिया था. आज गुरुवार की सुबह क्रिसमस पर प्रधानमंत्री मोदी नई दिल्ली के एक चर्च में पहली कतार में बैठे नजर आए. सामने प्रार्थना चल रही थी, घंटियां बज रही थीं और कैमरे हर कोण से यह सीन दर्ज कर रहे थे. क्रिसमस की शुभकामनाओं के साथ यह कार्यक्रम तो संपन्न हुआ, लेकिन उसके बाद मौका था राजनीतिक चर्चाओं का. जिसमें दिल्ली से लेकर केरल और वेटिकन तक का जिक्र आया.
मोदी ने ईसा मसीह के प्रेम, करुणा और शांति के संदेश की बात की. सोशल मीडिया पर भाईचारे और सद्भाव की अपील की. शब्द वही थे जो वे हर साल बोलते आए हैं, लेकिन राजनीति में शब्दों से ज्यादा महत्व समय और मंच का होता है. खासतौर पर तब जबकि बीजेपी केरल में अपने लिए नई जमीन तलाश रही है. लोकसभा और विधानसभा चुनाव में इक्का-दुक्का उपलब्धियों के अलावा इस बार उत्साह बढ़ाने का काम नगरीय निकाय ने किया है. तिरुअनंतपुरम नगर निगम के बोर्ड पर पहली बार भाजपा काबिज हुई है. ऐसे में केरल में अगले साल अप्रैल में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा की उम्मीदें बढ़ जाना स्वाभाविक है.
केरल में क्या बीजेपी को मिलेगी ईसाइयों की कृपा?
देश में ईसाई आबादी संख्या में भले कम हो, लेकिन केरल में वही सत्ता की गणित बदलने की ताकत रखती है. यहां की आबादी में हिंदू 55 प्रतिशत, मुस्लिम 26 तो ईसाई 18 प्रतिशत है. ऐसे में बीजेपी जब तक ईसाई समुदाय का भरोसा नहीं जीत लेती, यहां वह हाशिये पर ही रहेगी. लेकिन, उसके लिए दरवाजा पूरी तरह बंद नहीं हुआ है. मोदी का चर्च जाना उसी दरवाजे पर दी गई एक सधी हुई दस्तक है. जोरदार नहीं, लेकिन लगातार. केरल में भी वहां के भाजपा अध्यक्ष राजीव चंद्रशेखर ने चर्च जाकर क्रिसमस सेलिब्रेशन में हिस्सा लिया. हालांकि, केरल के सीएम पनरई विजयन बीजेपी और संघ पर आरोप लगाते हैं कि उनसे जुड़े लोगों ने पिछले दिनों ईसाइयों पर हमले किए हैं. अब जरूरत है कि भाजपा का ये चेहरा जनता के सामने लाया जाए.
केरल का सियासी गणित और ईसाई समुदाय की सोच
केरल की राजनीति भावनाओं से नहीं, गणित से चलती है. यहां ईसाई कोई एक जैसा वोट-बैंक नहीं हैं. हां, राजनीतिक रूप से जागरुक जरूर है. चर्च का प्रभाव तो है, लेकिन वोट चर्च की प्रार्थना सभा में तय नहीं होते. बल्कि, अलग अलग जगह कहीं वो रबर बागानों में, कहीं मछुआरों की बस्तियों में, तो कहीं गल्फ से आने वाले पैसे और शिक्षा-स्वास्थ्य से जुड़े संस्थानों की सुरक्षा के सवालों पर तय होता है.
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले थेलासेरी के आर्चबिशप जोसेफ पेम्प्लानी ने कहा था कि यदि भाजपा वादा करे कि वह रबर का समर्थन मूल्य 300 रुपए प्रति किलो कर देगी तो यहां से उसे एक सांसद मिल सकता है. केरल में ईसाई यदि वोट बैंक है तो यह आर्चबिशप का बयान उस वोट बैंक की सोच की हकीकत. यह आस्था की राजनीति नहीं, एक्सचेंज वाली राजनीति है.
मोदी का पोप और ईसाई समुदाय से रिश्ता
मोदी के चर्च जाने की तस्वीर अचानक नहीं बनी है. इसके पीछे एक सिलसिला है. वेटिकन में पोप फ्रांसिस से मुलाकात, G7 सम्मेलन के दौरान संवाद, भारत आने का निमंत्रण और अब दिल्ली के चर्च में जाना. यह सब मिलकर संकेत देता है कि बीजेपी ईसाई समुदाय को दूर से नहीं देखना चाहती, बल्कि संवाद की राजनीति करना चाहती है. पोप फ्रांसिस के निधन पर मोदी द्वारा उन्हें 'करुणा का प्रतीक' कहना भी इसी भाषा का हिस्सा था. अंतरराष्ट्रीय मंच पर यह संदेश गया कि भारत का नेतृत्व वैश्विक धार्मिक नेतृत्व से दुराव या टकराव नहीं, बल्कि सम्मान की भाषा में बात कर रहा है.
पीएम मोदी का चर्च जाना भले ही क्रिसमस सेलिब्रेशन में शामिल होने की सहज कोशिश हो. लेकिन, सियासत में कुछ भी सहज नहीं होता. क्रिसमस को एक तरफ करके सवाल यही पूछा जा रहा है कि पीएम मोदी चर्च में क्यों गए? क्योंकि उसी से जुड़ा अगला सवाल सामने आता है कि क्या उनके चर्च जाने का संदेश केरल चुनाव के दौरान भी कायम रहेगा? क्या पीएम मोदी का चर्च की पहली कतार में बैठना उन्हें चुनाव के दौरान ईसाई समुदाय के दिलों में जगह दिला पाएगा? केरल में फैसला इसी कसौटी पर होगा.
धीरेंद्र राय