कभी-कभी लगता है कि इस देश में कुछ बहसें खत्म होने के लिए बनी ही नहीं हैं. मैकाले की चर्चा भी ऐसी ही है. हर कुछ साल बाद किसी बहस के बहाने उसका नाम फिर से सामने आ जाता है. कोई कहता है कि हमने वह मॉडल बहुत पहले पीछे छोड़ दिया, तो कोई मानने को तैयार ही नहीं कि हम उससे आज भी बाहर नहीं निकल पाए हैं. लेकिन, सच की जगह कहीं बीच में ही मिलती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को मैकाले मॉडल को फिर से चर्चा में ला दिया है.
साल 1835 में जब थॉमस मैकाले ने अपना मशहूर मिनट लिखा, तो उसका इरादा कोई छुपा हुआ रहस्य नहीं था. उन्हें ऐसे लोग चाहिए थे जो अंग्रेजों की भाषा समझें, उनके हिसाब से काम कर सकें और प्रशासन चला सकें-बस. उस वक्त अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों का एक छोटा-सा वर्ग तैयार करना ही काफी था. धीरे-धीरे यही लोग क्लर्क, अफसर, दुभाषिए बनकर शहरों में एक नया तबका बना बैठे. सोचने का ढंग बदला, बोलचाल बदली, और उसी के साथ शिक्षा का पूरा ढांचा भी बदल गया.
हमारा पुराना सिस्टम इससे अलग था. गुरुकुल, पाठशालाएं, फिर बाद में बड़े संस्थान जैसे नालंदा-तक्षशिला. सदियों में कई आक्रमण हुए, बहुत कुछ मिटा, बहुत कुछ टूटा. जब अंग्रेज आए तो जो ढांचा बचा था, वो पहले ही कमजोर पड़ चुका था. जिसे बचा सकते थे, उसे भी उन्होंने अपनी जरूरतों के हिसाब से बदल दिया.
आजादी मिली लेकिन पढ़ाई का जो ढांचा अंग्रेज़ छोड़ गए थे, हम उसी पर आगे बढ़ते रहे. नए देश को अफसर, डॉक्टर, इंजीनियर चाहिए थे, और अंग्रेजी पहले से बनी-बनाई माध्यम थी. उसे बदलना आसान भी नहीं था और शायद उस समय प्राथमिकता भी नहीं. धीरे-धीरे प्रतियोगी परीक्षाएं, प्रोफेशनल कोर्स, सब अंग्रेजी के इर्दगिर्द घूमने लगे.
बीच-बीच में बदलाव की कोशिशें हुईं. उदाहरण के तौर पर, 1999-2004 में मुरली मनोहर जोशी के समय कुछ नए प्रयोग शुरू हुए भारतीय ज्ञान परंपरा को थोड़ा-बहुत कोर्स में लाने की कोशिश पर पूरा सिस्टम इतना बड़ा था कि कुछ खास बदल नहीं पाया. 2014 के बाद नई शिक्षा नीति आई, जिसमें मातृभाषा में पढ़ाई और लचीले पाठ्यक्रम की बात की गई. कई जगह लागू भी हुई, लेकिन जमीन पर इसका असर अभी भी आधा-अधूरा ही है.
सच्चाई ये है कि अच्छी नौकरी की उम्मीद आज भी अंग्रेजी से जुड़ी होती है. आईआईटी, आईआईएम से लेकर कॉर्पोरेट सेक्टर तक, काम वही भाषा मांगता है. माता-पिता भी अपने अनुभव के आधार पर यही मानते हैं कि अंग्रेजी आएगी तो आगे बढ़ने के मौके मिलेंगे. इसे पूरी तरह गलत कहना भी ठीक नहीं, लेकिन सिर्फ यही रास्ता है, यह भी सच नहीं.
तो हां, मैकाले का मॉडल खत्म भी नहीं हुआ और वैसा का वैसा बचा भी नहीं है. असल लड़ाई अब अंग्रेजी बनाम भारतीय भाषाओं की नहीं है. असल बात ये है कि हमारी अपनी भाषाओं में भी उतनी ही मजबूत, आधुनिक और नौकरी-योग्य शिक्षा कैसे दी जाए.
जब तक इसका ठोस जवाब नहीं मिलेगा, तब तक हम बहस करते रहेंगे, कभी मैकाले को कोसेंगे, कभी उसे बहाना बनाकर अपनी कमियां छुपाएंगे.
मानसी मिश्रा