बिहार विधानसभा चुनावों के लिए पहले चरण की वोटिंग में इतिहास बन गया है. बताया जा रहा है कि 2020 में जितने वोट पड़े थे उससे करीब 8 प्रतिशत अधिक वोट पड़े हैं. बिहार के इतिहास में कभी इतने बड़े पैमाने पर वोटिंग नहीं हुई थी. यह महिलाओं और युवाओं के बढ़ते उत्साह को दर्शाता है. जाहिर है कि मतदाताओं में वोटिंग को लेकर उदासीनता नहीं है. बूथों पर महिलाओं की लंबी लाइन देखने को मिली है. उसी तरह मुस्लिम समुदाय ने भी जमकर वोटिंग की है. जाहिर है कि दोनों पक्ष अपने अपने हिसाब से इसका अर्थ निकाल रहे हैं. पर एक बात और निकल कर आई है कि नीतीश कुमार को जो लोग खत्म मानकर चल रहे ,थे उनके लिए सेटबैक है.
एनडीए सरकार में न आए पर यह तय है कि नीतीश कुमार एक बार फिर ताकतवर बन कर उभर रहे हैं. बूथों पर जिस तरह महिलाओं की भीड़ उमड़ी है उसकी सीधा मतलब है कि नीतीश फैक्टर अब भी बिहार में काम कर रहा है.
अब सवाल उठता है कि आखिर वे कौन से कारण हैं कि बिहार में लगातार दो दशकों से मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश कुमार के पास होने के बाद भी आम लोगों में उनके प्रति किसी भी प्रकार का गुस्सा नहीं नजर आया है. नीतीश कुमार बीमार हैं, नीतीश कुमार अजीब हरकतें कर रहे हैं, नीतीश कुमार को भूलने की बीमारी हो गई हैं... कितनी तरह की बातें उनके खिलाफ हो रही हैं . इन सब घटनाओं के बाद भी नीतीश कुमार के खिलाफ बिहार में कोई आवाज नहीं है. आइये देखते ऐसा क्यों हैं.
1-नीतीश की ईमानदार और ‘सॉफ्ट गवर्नेंस’ वाली छवि
नीतीश कुमार को बिहार में अब भी एक संवेदनशील और संतुलित प्रशासक के रूप में देखा जाता है. उनके शासन की शैली आक्रामक राजनीति की न होकर समझौतावादी और व्यवस्थावादी रही है. यही उनकी सबसे बड़ी ताकत है. उन्होंने अपने कार्यकाल में जनता के साथ संवाद बनाए रखा. चाहे जनता के दरबार में मुख्यमंत्री का कार्यक्रम हो या पंचायत स्तर पर योजनाओं की मॉनिटरिंग.
20 साल किसी राज्य का मुखिया रहने के बाद उनके खिलाफ एक भी भ्रष्टाचार का मामला नहीं है. उनके घोर विरोधी भी उन पर भाई भतीजावाद और भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगा सकते हैं. राजनीतिक विरोधी भी उनकी टीम को भ्रष्ट बोलते हैं, पर नीतीश के नाम पर सबकी जुबान रुक जाती है. जनता मानती है कि नीतीश खुद ईमानदार हैं. यह निजी ईमानदारी उन्हें उस नैतिक ऊंचाई पर ले जाती है, जो मुकाम बिहार के बाकी नेताओं के लिए दुर्लभ लगता है.
निजी संसाधनों की बात छोड़िए वह सरकारी तौर पर चार्टर्ड प्लेन, हेलिकॉप्टर, बड़े बंगले , बंगलों में शीशमहल जैसी सजावट, महंगी गाड़ियों के काफिले में नहीं देखे जाते हैं. कई बार तो वो दिल्ली की यात्रा फ्लाइट में आम लोगों के साथ करते देखें गए हैं. आजकल किसी भी बड़े स्टेट का सीएम बिना चार्टर्ड फ्लाइट के नहीं चलता. यहां तक कि बड़े राज्यों के विपक्ष के नेता भी चार्टर्ड फ्लाइट का इस्तेमाल करते देखे जा रहे हैं.
2-महिलाओं के लिए क्यों मसीहा बन गए नीतीश
बिहार की महिलाएं नीतीश कुमार के पक्ष में सबसे मजबूत और स्थायी वोट बैंक बन चुकी हैं. उनके शासन की कई प्रमुख योजनाएं जैसे छात्राओं के लिए साइकिल योजना, पोशाक योजना, बालिका प्रोत्साहन योजना, कुशल युवा कार्यक्रम, शराबबंदी कानून, और नौकरियों में महिला आरक्षण ने महिलाओं के बीच उन्हें एक संरक्षक के रूप में स्थापित किया है.
शराबबंदी का सबसे बड़ा सामाजिक असर महिलाओं को राहत के रूप में मिला. घरेलू हिंसा, पारिवारिक झगड़ों और आर्थिक नुकसान में कमी आई. भले ही पुरुषों में इसके खिलाफ असंतोष रहा हो, महिलाओं ने नीतीश की इस नीति को “घर की शांति की गारंटी” माना है.
आज भी ग्रामीण इलाकों में यह धारणा मजबूत है कि 'नीतीश जी ने हमारी ज़िंदगी बदली है.' यही वजह है कि गांव-देहात की महिलाएं जाति और पार्टी से ऊपर उठकर नीतीश के पक्ष में वोट डालती हैं.
3-बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन बेमेल नहीं
नीतीश कुमार के पक्ष में एक बात और जाती है, वह है उनका बीजेपी के साथ सबसे पुराना गठबंधन. जब देश भर की पार्टियां बीजेपी को अछूत मानती थीं तभी से नीतीश कुमार उसके साथ हैं. हालांकि गुजरात दंगों को लेकर तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका को देखते हुए उन्होंने कुछ समय के लिए एनडीए का साथ छोड़ दिया था. नीतीश कुमार की यह रणनीति अपने मुस्लिम समर्थकों का साथ बनाए रखने की थी. कई ऐसे मुद्दों पर उन्होंने अपना मुंह न खोलकर मुस्लिम समुदाय को अपने साथ बनाए रखने की भरपूर कोशिश की. आज की तारीख में भी उनकी पार्टी ने मुस्लिम समुदाय को बिहार विधानसभा के 4 टिकट दिए हैं. जबकि वो जानते हैं कि बीजेपी के साथ होने के चलते उन्हे मुसलमानों के वोट नहीं मिलने वाले हैं. पर इतना सब कुछ होने के बावजूद भी उन्होंने अपनी पार्टी की छवि ऐसी बनाई है जो अगड़ों की भी पार्टी है और पिछड़ों और अतिपिछड़ों की भी पार्टी है. कट्टर हिंदू भी उन्हें वोट देने से पीछे नहीं हटते और मुसलमान भी उन्हें वोट देते रहे हैं.
आज की तारीख में भी कई ऐसे गठबंधन होते हैं जहां वोट को अपने सहयोगी पार्टी को ट्रांसफर कराना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी होता है. पर जेडीयू और बीजेपी के बीच इस तरह का तालमेल बिहार में कि दोनों ही पार्टियों के वोट दोनों के ही कैंडिडेट के बीच ट्रांसफर हो जाते हैं.
इसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और केंद्र की योजनाएं (जैसे उज्ज्वला, पीएम आवास, आयुष्मान भारत) का श्रेय भी राज्य सरकार के साथ साझा होता है. ग्रामीण मतदाता इसे दोनों सरकारों की साझा मेहनत के रूप में देखता है.
4-विकास की ठोस बुनियाद रखी नीतीश कुमार ने
जब नीतीश कुमार ने 2005 में सत्ता संभाली थी तब बिहार अपराध, बिजली की कमी, टूटी सड़कों और पलायन से जूझ रहा था. उनके शुरुआती वर्षों में सड़क, बिजली और कानून व्यवस्था पर जो फोकस था, उसने जनता के मन में विकास का भरोसा पैदा किया.
बिहार से आ रहे चुनाव विश्लेषणों के वीडियो देखिए, एक बात कॉमन होगी. पूरे बिहार की सड़कें चकाचक दिख रही हैं. पटना में डबल डेकर फ्लाइओवर, गंगा पर बना कई किलोमीटर लंबा पुल, चौबीस घंटे बिजली की बातें नीतीश के समर्थक हो या उनके विरोधी यू-ट्यूबर भी मानते हैं कि बिहार में काम तो हुए हैं.
आज की तारीख में भी बिहार का विकास दर राष्ट्रीय विकास दर से ज्यादा है. ग्रामीण सड़कों का नेटवर्क, स्कूलों और अस्पतालों का विस्तार, पंचायती व्यवस्था की मजबूती, इन सबने नीतीश शासन को एक मॉडल प्रशासन की छवि दी हुई है.
बेशक, आज भी बेरोज़गारी और पलायन की समस्या बनी हुई है, पर जनता का मानना है कि नीतीश के समय में कम से कम कुछ सुधार तो हुआ है.
5- जातीय संतुलन साधने की कला
नीतीश कुमार की राजनीति का सबसे बड़ा कौशल है, सामाजिक संतुलन साधना. उन्होंने हर जाति को सत्ता की भागीदारी का एहसास कराया है. उन्होंने महादलितों की अलग श्रेणी बनाकर सम्मान दिया है. अति पिछड़ों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया है.
सवर्णों और ओबीसी का भरोसा भी बनाए रखा है. यह समावेशी जातीय समीकरण नीतीश की ढाल है. वे जानते हैं कि बिहार की राजनीति जाति पर टिकी है, और उन्होंने इसे संघर्ष नहीं, सहअस्तित्व की रणनीति से साधा है.
संयम श्रीवास्तव