भारतीय समाज में जाति हमेशा से महत्वपूर्ण रही है. राजनीति में और भी ज्यादा. आज सामाजिक न्याय की मांग के नाम पर जाति कार्ड खेलना आम है. हर राजनेता और पार्टी इसमें शामिल हैं. जातियों के वोट साधने में उसके प्रतीकों का स्मरण और यशगान इसी के निमित्त हो रहा है. वरना, ऐसा तो कभी सोचा ही नहीं गया कि 1962 के चीन युद्ध के शहीदों को जातिगत चश्मे से देखा जाए.
बुधवार को समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने फिर से इस बहस को हवा दी है. 26 नवंबर 2025 को लखनऊ में फरहान अख्तर की नई फिल्म '120 बहादुर' की विशेष स्क्रीनिंग में शिरकत करते हुए उन्होंने रेजांगला युद्ध के वीर सैनिकों, जिनमें अधिकांश अहीर (यादव) समुदाय से थे, की बहादुरी की तारीफ की है. उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, कि अहीर सैनिकों ने इस युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. यह हमारी सेना का गौरवपूर्ण अध्याय है, जिसे समझा जाना चाहिए. यह बयान न केवल फिल्म की सराहना था, बल्कि अहीर समुदाय की ऐतिहासिक वीरता पर गर्व जताने वाला भी था.
क्या है विवाद का कारण
18 नवंबर 1962 को भारत-चीन युद्ध के दौरान लद्दाख के रेजांगला दर्रे पर 13 कुमाऊं रेजिमेंट के मात्र 120 सैनिकों ने चीनी सेना के 3000 से अधिक सैनिकों का डटकर मुकाबला किया था. ठंडे पहाड़ी इलाके में, बिना पर्याप्त हथियारों और संसाधनों के, इन बहादुरों ने अंतिम सांस तक लड़ाई लड़ी. परिणामस्वरूप, 114 सैनिक शहीद हो गए, लेकिन उन्होंने चीनी सेना को भारी नुकसान पहुंचाया.
इन 120 सैनिकों में से अधिकांश हरियाणा के रेवाड़ी, महेंद्रगढ़ और गुड़गांव क्षेत्रों से थे, जो अहीर (यादव) समुदाय से संबंधित थे. कैप्टन रामचंद्र यादव जैसे वीरों ने अपनी जान की बाजी लगाई. इस युद्ध के लिए मेजर शैतान सिंह को परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया, लेकिन अहीर समुदाय का योगदान अक्सर मुख्यधारा के इतिहास में पीछे छूट जाता है.
फिल्म '120 बहादुर' इसी गाथा पर आधारित है, जो फरहान अख्तर के अभिनय से सजी है. लेकिन फिल्म रिलीज से पहले ही विवादों में घिर गई. अहीर समुदाय के संगठनों ने इसे 'इतिहास का विकृति' करार देते हुए बहिष्कार की अपील की. उनका कहना है कि फिल्म में अहीर सैनिकों की जातिगत पहचान को ठीक से उभारा नहीं गया. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने भी रिलीज से पहले कहा कि इतिहास से खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं होगा.
समुदाय का कहना है कि फिल्म में राजपूत अधिकारी को अधिक महत्व दिया गया, जबकि शहीद अहीर थे. अखिलेश की तारीफ ने इस विवाद को और भड़का दिया. क्या वे समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में बोल रहे थे या राजनीतिज्ञ के? अखिलेश का यह बयान कई सवाल खड़ा करता है.
1-क्या वीरों की कोई जाति होती है, क्या राष्ट्रीय नायकों को किसी जाति से जोड़ना उचित है
अखिलेश का यह गर्व एक गंभीर सवाल खड़े करता है कि क्या राष्ट्रीय नायकों को जाति से जोड़ना ठीक है? रेजांगला के शहीद भारतीय सैनिक थे, न कि सिर्फ अहीर. फिल्म विवाद में अहीर संगठनों का कहना है कि उनकी जाति को दबाया जा रहा है, लेकिन क्या उल्टा यह नहीं है कि जाति पर जोर देकर हम उनकी राष्ट्रीय पहचान को कमजोर कर रहे हैं?
इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि युद्ध में जाति मायने नहीं रखती; बल्कि देशभक्ति ही सब कुछ होती है. अखिलेश का बयान निसंदेह अच्छा लगता है, लेकिन यह सेना में जाति-आधारित भर्ती या रेजिमेंट की मांग को मजबूत करता है, जो ब्रिटिश काल की 'मार्शल रेस' थ्योरी को याद दिलाता है.
रेजांगला युद्ध में 120 बहादुर सैनिकों को 'अहीर वीर' कहकर सम्मानित करने वाले उनकी राष्ट्रीय वीरता का अपमान ही कर रहे हैं. क्या स्वतंत्रता संग्राम के नायकों जैसे भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस या रानी लक्ष्मीबाई को जाति से जोड़कर उनका सम्मान करना ठीक रहेगा? ये सभी भारतीय थे, जिन्होंने जाति, धर्म या वर्ग से ऊपर उठकर लड़ाई लड़ी. राष्ट्रीय नायकों को जाति से जोड़ना न केवल अनुचित है, बल्कि सामाजिक एकता के लिए खतरा भी है.सम्राट अशोक या पृथ्वीराज चौहान जैसे महापुरुषों को जातिगत अस्मिता तक सीमित करने की कोशिशें हो रही हैं, जो इतिहास को तोड़-मरोड़ रही हैं.
याद करिए अभी कुछ दिन पहले सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा में 'गुर्जर' शब्द जोड़ने पर विवाद हुआ था. इसे लेकर कई जगहों पर राजपूतों और गुर्जरों में विवाद होते होते बचा. राष्ट्रीय नायकों को जाति से जोड़ना अनुचित है. इससे उनकी सार्वभौमिकता नष्ट होती है. हमें उन्हें राष्ट्र की साझा विरासत के रूप में सम्मानित करना चाहिए.
2-क्या जातियों के आधार पर रेजिमेंट की जरूरत है आज के परिवेश में
सेना के एक पूर्व अफसर लिखते हैं कि अहीर रेजिमेंट रेजांगला शहीदों की स्मृति होगी. अखिलेश यादव भी इस तरह की मांग करते रहे हैं. उनकी यह मांग 2019 के लोकसभा चुनाव घोषणापत्र से चली आ रही है, जब उन्होंने कहा था कि सेना में जाति-आधारित रेजिमेंट बनाना समुदायों को उनका हक देगा. अखिलेश ने अहीर रेजिमेंट की बात बुधवार को एक बार फिर उठाई. लेकिन क्या यह वास्तव में न्याय है? या फिर वोट बैंक की राजनीति?
भाजपा समर्थक सोशल मीडिया पर कह रहे हैं, अखिलेश सेना को जाति-आधारित राजनीतिक भोज में बदलना चाहते हैं. पहले अहीर रेजिमेंट, कल क्या हर वोट बैंक के लिए नई रेजिमेंट मांग करेंगे? एक पोस्ट में लिखा गया, सेना की संरचना ऑपरेशनल जरूरतों पर आधारित है, न कि एसपी की जाति सर्कस पर. दरअसल भारतीय सेना की ताकत उसकी एकता में है. सिख, जाट, मराठा, गोरखा, मद्रासी सब एक साथ लड़ते हैं. क्या रेजांगला के शहीद खुद चाहते कि उनकी वीरता को जाति से जोड़ा जाए, न कि भारतीय सैनिक की पहचान से? अखिलेश के इस बयान ने पुराने विवादों को भी जिंदा कर दिया है.
3-क्या राजनीतिक फायदे के लिए सेना को घसीटना ठीक है
अखिलेश यादव का इस फिल्म को देखना और अहीर सैनिकों की तारीफ करना संयोग मात्र नहीं है. समाजवादी पार्टी का घोषणापत्र 2019 से ही 'अहीर रेजिमेंट' की मांग करता आ रहा है. अखिलेश ने कई मौकों पर कहा है कि रेजांगला जैसे युद्धों में अहीरों की वीरता को मान्यता मिलनी चाहिए. यह गर्व जताना उनके लिए राजनीतिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर महत्वपूर्ण है, क्योंकि यादव समुदाय उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादी पार्टी का प्रमुख वोट बैंक है.
अखिलेश यादव का राजनीतिक सफर ही जाति-आधारित सामाजिक न्याय पर टिका है. मुलायम सिंह यादव के पुत्र के रूप में उन्होंने समाजवादी पार्टी को 'पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक' (पीडीए) गठबंधन का चेहरा बनाया. 2023 में उन्होंने जाति जनगणना की मांग की, तर्क देते हुए कि आरक्षण जाति के आधार पर होना चाहिए, न कि गरीबी पर. बिहार की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में भी जाति सर्वेक्षण की वकालत की.
यही कारण है कि रेजांगला जैसे मुद्दे पर उनका रुख अधिक भावुक और समुदाय-केंद्रित हो जाता है. फिल्म '120 बहादुर' की स्क्रीनिंग के दौरान उन्होंने कहा, कि यह फिल्म नई पीढ़ी को सैनिकों के बलिदान से परिचित कराएगी. पर उन्होंने अहीर सैनिकों की भूमिका को विशेष रूप से रेखांकित किया, जो सीधे उन्हें अपने समुदाय से जोड़ता है. यह गर्व जताना अखिलेश के लिए दोहरी तलवार है. एक ओर, यह अहीर/यादव समुदाय में उनकी लोकप्रियता बढ़ाता है. हरियाणा और उत्तर प्रदेश के यादव युवा सेना में भर्ती होते हैं, और रेजांगला की गाथा उनके लिए प्रेरणा स्रोत है. पर दूसरी जातियों के जो लोग सेना में भर्ती होना चाहते हैं और जिन्हें मार्शल रेस नहीं माना जाता है उनके लिए यह उतना ही हतोत्साहित करने वाला है.
4-क्या लंबे समय से उपेक्षित समुदायों को हक दिलाने का ये सही तरीका है
भारतीय समाज में उपेक्षित समुदायों जैसे दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग को हक दिलाने की मांग लंबे समय से चली आ रही है. इस संदर्भ में रेजांगला युद्ध के अहीर सैनिकों की वीरता पर गर्व जताकर अखिलेश यादव जैसे नेता राष्ट्रीय नायकों को जाति से जोड़ते हैं. क्या यह तरीका सही है? यह बहस का विषय है, क्योंकि एक ओर यह सामाजिक न्याय का माध्यम लगता है, वहीं दूसरी ओर विभाजनकारी भी होता है. सकारात्मक पक्ष से देखें तो हां, यह तरीका उपेक्षित समुदायों को उनकी ऐतिहासिक भूमिका की पहचान दिलाता है. भारत में जाति प्रथा ने सदियों से वंचितों को शिक्षा, नौकरी और सम्मान से दूर रखा. जाति-आधारित आरक्षण इसी आधार पर लागू हुआ, जो वंचितों को अवसर देता है.
इसी तरह, राष्ट्रीय नायकों को जाति से जोड़ना समुदायों को आत्मसम्मान देता है. लेकिन नकारात्मक पक्ष मजबूत है. यह तरीका सही नहीं, क्योंकि यह समाज को जाति के आधार पर बांटता है. भारत निर्वाचन आयोग की आचार संहिता स्पष्ट है कि चुनाव में जाति-धर्म का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए. राष्ट्रीय नायकों को जाति से जोड़ना इतिहास का राजनीतिकरण है, जो ऊंची-नीची जातियों के बीच टकराव बढ़ाता है.
संयम श्रीवास्तव