आज की कहानी शुरु करने से पहले आपको एक क़िस्सा बताना चाहता हूं। ये क़िस्सा है साल 1932 का। हुआ यूं कि उस साल बाज़ार में एक किताब आई, जिसका नाम था - अंगारे। और इस किताब के आते ही हर तरफ हंगामा सा मच गया। अदबी हलकों में भी इसे लेकर लानते भेजी जानें लगीं। इस किताब में कुल आठ कहानियां थी जिन्हें कई राइटर्स ने मिल कर लिखा था। इनमें प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन के सबसे बड़े नाम सज्जाद ज़हीर, अहमद अली, महमूदुज़्ज़फर के अलावा एक फीमेल राइटर भी थी।
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शोर मच गया, चौराहों पर इस किताब और इसके राइटर्स के पुतले जलाए जाने लगे। कहा गया इन कहानियों के सबजेक्ट्स बहुत ही बाग़ियानी है, रिबिलियस हैं। इन्हें मज़हब के ख़िलाफ, फहाश यानि अश्लील और खिलाफ़ ए हुकूमत यानि राजद्रोही भी कहा गया। ये पहली बार था जब समाज किसी फीमेल राइटर को इतने बुलंद लहजे में दुनिया से बात करते हुए देख रही थी। इस राइटर का नाम था - डॉ रशीद जहां। इससे पहले तक रशीद जहां, उस दौर का जो तरीका था - यानि औरतें मर्दों के नकली नाम से लिखा करती थीं, वैसे ही लिखती थीं। समाज के खिलाफ बाग़ावत की लौ जलाने वाली इस किताब पर एक औरत के नाम ने पुरानी सोच वाले मर्दवादी समाज को... बौखला कर रख दिया। उन दिनों अंग्रेज़ों की हुकूमत थी... सारी किताबें ज़ब्त कर ली गयीं। लेकिन रशीद जहां ने अपने तेवर कम ना किए क्योंकि तरक्कीपसंदी, रौशनख्याली और आज़ादी वो अपनी विरासत... बल्कि अपने खून में लेकर आयीं थी। ये वही रशीद जहां हैं जिनके बारे में मशहूर राइटर इस्मत चुग्ताई ने अपनी बाओग्राफी में लिखा है -
ज़िंदगी के उस दौर में मुझे एक तूफानी हस्ती से मिलने का मौका मिला, जिसके वजूद ने मुझे हिला कर रख दिया। मिट्टी से बनी रशीद आपा ने संगमरमर के सारे बुत मुनहदिम कर दिये।अगर वो मेरी कहानियों की हीरोइनों से मिलें तो दोनों जुड़वा बहनें नज़र आए क्योंकि अनजानें तौर पर मैंने रशीदा आपा को ही उठाकर अफसानों के ताकचों पर बैठा दिया है, क्योंकि मेरे तसव्वुर की दुनिया की हीरोइन सिर्फ वो हो सकती थीं।
तो चलिए आपको सुनाता हूं रशीद जहां की कहानी, जिसका नाम है चोर
रात के दस बजे का वक्त था। मैं अपनी क्लीनिक में अकेली बैठी थी और एक मेडिकल जनरल पढ़ रही थी कि दरवाजा खुला और एक आदमी एक बच्चा लेकर अंदर आया। मुझको अपनी नर्स पर गुस्सा आया कि यह दरवाज़ा खुला छोड़ गयी । मेरे मरीज़ देखने का वक्त बहुत देर पहले ही खत्म हो चुका था। मैंने रुखाई से कहा-
“मेरे मरीज देखने का वक्त मुद्दत हुई खत्म हो चुका, या तो कल सुबह लाना, वरना किसी दूसरे डाक्टर को दिखा दो।"
मर्द छोटे कद का तो था लेकिन बदन कसरती था और बच्चा जो गोद में था, उसका साँस बुरी तरह से चल रहा था और साफ़ ज़ाहिर था कि निमोनिया हो गया है। बच्चा गर्दन डाले निढाल था और चल-चलाव के करीब मालूम होता था। मर्द ने अकड़ कर कहा-
"मेम साहब फीस ले लीजिए और क्या आपको चाहिए!”
मैं फीस के नाम पर शायद धीमी भी हो जाती पर उसकी अकड़ से चिढ़ कर बोली- “फीस के बगैर कोई डाक्टर देखता है? मैं इस वक्त मरीज नहीं देखती । तुम को मालूम होना चाहिए कि यह वक्त डाक्टरों के आराम का होता है। दूसरे तुम्हारा बच्चा बहुत बीमार है”
“तभी तो आपके पास लाया हूँ। हमारी साली का बच्चा तो और भी बीमार था, आप के इलाज से अच्छा हो गया" अब उसका बात करने का ढंग, नम्रतापूर्वक था।
मैंने बिगड़ कर कहा, "जो मेरा इलाज कराना था तो जल्दी आते!”
“कोई दूसरा लाने वाला ही न था, और मैं इससे पहले नहीं आ सकता था”
उसकी कनपटी पर जख़्म का एक गहरा निशान था। इतना बदमिज़ाज आदमी जरूर किसी मार पीट में जख्मी हुआ होगा!
बच्चे ने बिल्कुल मुर्दा आवाज़ में रोना शुरू किया! जिसको देखकर मुझको तरस आ गया और मैं आला को निकाल कर खड़ी हुई। मर्द ने फौरन कमीज की जेब से दस रुपये का नोट निकालकर मेज पर रख दिया। बच्चे को देखकर मैंने कहा, “एक इंजेक्शन तो मैं फौरन लगाए देती हूँ, चार रोज तक बराबर यह इंजेक्शन चार-चार घण्टे पर लगेंगे। इंतज़ाम कर लेना” उसकी गरीबी की तरफ निगाह करके मैंने कहा,
“फ़ीस की जरूरत नहीं, इंजेक्शन की कीमत मैं ले लूंगी, बाकी की दवाएँ तम बाजार में बनवा लो”
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जमशेद क़मर सिद्दीक़ी