'तोड़ दिया दर्पण मेरा..' साहित्य आजतक पर सुमन केशरी, सविता सिंह और अनामिका की कविताओं से मंत्रमुग्ध हुए दर्शक

साहित्य आजतक 2025 के आखिरी दिन सत्र 'कविता: मैं स्त्री… बदलते समय की आवाज' में कवयित्रियों और लेखिकाओं ने अपनी कविताओं के माध्यम से दर्शकों के दिल को छू लिया.

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लेखिका अनामिका, सुमन और सविता ने कविताएं सुनाई (Photo:ITG) लेखिका अनामिका, सुमन और सविता ने कविताएं सुनाई (Photo:ITG)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 23 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 10:12 PM IST

Sahitya Aajtak 2025: साहित्य आजतक 2025 का तीसरा और अंतिम दिन भी साहित्य प्रेमियों के लिए यादगार रहा. कार्यक्रम के सत्र 'कविता: मैं स्त्री… बदलते समय की आवाज' में कवयित्रियों और लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं के माध्यम से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया.

'पिरामिडों की हथेलियों में और हिडिम्बा और निमित्त नहीं 'लेखिका सुमन केशरी,'टोकरी में दिगंत, खुरदुरी हथेलियां और डूब-धन' की लेखिका और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखिका अनामिका और 'नींद थी और रात थी, अपने जैसा जीन और खोई चीजों का शोक' की कवियित्री  प्रो. सविता सिंह ने स्त्रियों पर अपनी कविताओं से दर्शकों को भावविभोर कर दिया.

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कवयित्री सुमन केशरी ने सत्र की शुरुआत में अपनी कविताएं सुनाईं-

ऐन सूरज की नाक के नीचे

रेगिस्तान की तपती रेस में
औरत ने ऐन सूरज की नाक के नीचे घर बना लिया है. 
धूल की उष्णता उसके दरवाजे से टकराती है,
पर उसके हाथों ने ठहराव और सुकून बो दिया है

सुमन केशरी ने इसके बाद अपनी दूसरी कविता सुनाने से पहले कहा, 'लोग मोनालिसा की मुस्कान देखते हैं, लेकिन मैं उसकी आंखें देखती हूं.'

क्या था उस दृष्टि में
उस मुस्कान में कि मन बंध कर रह गया

वह जो बूंद छिपी थी,आंख की कोर में
उसी में तिर कर जा पहुंची थी
मन की अतल गहराइयों में
जहां एक आत्मा हतप्रभ थी
प्रलोभन से पीड़ा से ईर्ष्या से द्वन्द्व से...
वह जो नामालूम सी जरा सी तिर्यक 
मुस्कान देखते हो न मोनालिसा के चेहरे पर 
वह एक कहानी है औरत को 
मिथक में बदले जाने की कहानी

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मैं रहूंगी यहीं 

मैं रहूंगी यही, इसी धरती पर,
भले ही रहूं कहीं भी.
फूल, अधजली अतड़ियों से निकल आऊं,
पेड़ कोई, शाखें फैलाओ
किंतु सुनो, मैं लिंग नाम से परे हूं.
एक विचार की तरह,
एक चेतना की तरह,
मैं रहना चाहती हूं,
बिना नाम, बिना सीमा,
सिर्फ अस्तित्व की सहजता में
एक विचार की तरह रहना चाहती हूं.

सविता सिंह की कविताएं

'कविता: मैं स्त्री… बदलते समय की आवाज' सत्र में प्रो.सविता सिंह ने अपनी कविताएं सुनाईं. उन्होंने इस दौरान बांग्लादेश एक ब्लॉगर अभिजीत पर भी एक कविता सुनाई, जिसे उन्होंने 2017-18 में लिखा था. इस दौरान उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में शेख हसीना के साथ जो हो रहा है, उससे तो हम सभी वाकिफ हैं. 

अभिजीत तुम एक सवाल हो

ओ अभिजीत, तुम किसी देवी-देवता को नहीं मानते,
तुम्हें केवल खुद पर विश्वास है.

विवेक के ढोंग पर तुमने सच कहा था,
कि डर की बनी जमीन हमेशा भरी रहती है.

तुम्हारे खून की एक-एक बूंद पूछती है,
क्या हमने न्याय नहीं दिया?

अभिजीत, तुम केवल एक नाम नहीं,
तुम एक सवाल हो, एक चुनौती हो,
एक पीड़ा और उम्मीद हो. 
अभिजीत तुम एक सवाल हो

बेटी

पिता का हाथ पकड़कर चलती है बेटी,
पिता के कद की ऊंचाई,
पिता के हाथ की गर्मी
कहीं पीछे ना छूट जाए, इस डर से

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कदम से कदम मिलाकर चलती है वह,
पर अचानक पाता है पिता,
बेटी खुद से दो कदम आगे निकल गई.

अपनी उंगलियों पर दवाब महसूस करता है,
और तेजी से उसके पीछे दौड़ता है,
जैसे समय भी थम गया हो,
और केवल यह दो कदम की दूरी,
प्यार और भरोसे की परख हो.
 

रात, नींद, सपने और स्त्री

नींद में ही छुपा है स्त्री होना,
उसके भीतर कई सौंदर्य पलते हैं.
एकाग्र भाव से बुनती है वह अपनी दुनिया,
रात में नींद उसकी,
दिन में सौंदर्य उसका.
नींद में जागती है रात,
मनोकामनाओं जैसी स्त्री,
जो कभी पीछे हटी नहीं,
बल्कि अपने भीतर की ताकत से आगे बढ़ती रही. 

साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखिका अनामिका ने आखिर में अपनी कविताओं से सबको मंत्रमुग्ध कर दिया. 

जो बातें मुझको चुभ जाती हैं,मैं उन्हें अपनी सुई बना लेती हूं.

जो बातें मुझको चुभ जाती हैं
मैं उनकी सुई बना लेती हूं
चुभी हुई बातों की ही सुई से मैंने
टांकें हैं फूल सभी धरती पर
रहती हूं मस्त और किसी से नहीं डरती

अनामिका ने अपनी दूसरी कविता में वर्किंग वुमेन्स की भावनाओं को बहुत खूबसूरती से बयां किया.

माई री मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की, माई री
जब भी सुनती हूं मैं गीत, आपका मीरा बाई,
सोच में पड़ जाती हूं, वो क्या था
जो मां से भी आपको कहते नहीं बनता था,

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हालांकि संबोधन गीतों का
अक्सर वह होती थीं
वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में पीछे का ढाबा!
दस बरस का छोटू प्यालियां धोता-चमकाता
क्या सोचकर अपने उस खटारा टेप पर
बार-बार मीरा का ये ही वाला गीत आपका बजाता है!

लक्षण तो हैं उसमें
क्या वह भी मनमोहन पुरुष बनेगा,
किसी नन्ही-सी मीरा का मनचला.
अड़ियल नहीं, जरा मीठा!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल की हम सब औरतें
ढूंढती ही रह गईं कोई ऐसा
जिन्हें देख मन में जगे प्रेम का हौसला
लोग मिले-पर कैसे-कैसे 
ज्ञानी नहीं, पंडिताऊ,
वफादार नहीं, दुमहिलाऊ,
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू,
दृढ़ प्रतिज्ञ कहां, सिर्फ जिद्दी,
प्रभावी नहीं, सिर्फ हावी,
दोस्त नहीं, मालिक,
सामजिक नहीं, सिर्फ एकांत 
धार्मिक नहीं, केवल कट्टर
 
ऐसों से क्या खाकर हम करते हैं प्यार!
सो अपनी वरमाला
अपनी ही चोटी में गूंथी
और कहा खुद से
मैं एक हूं, फिर भी मैं अनेक बन जाऊंगी.

सृजन फिर से

सृष्टि की पहली सुबह थी वह
कहा गया मुझसे
तू उजियारा है धरती का
और छीन लिया गया मेरा सूरज
कहा गया मुझसे
तू बुलबुल है इस बाग का
और झपट लिया गया मेरा आकाश
कहा गया मुझसे
तू पानी है सृष्टि की आंखों का
और मुझे ब्याहा गया रेत से
सुखा दिया गया मेरा पानी
कहा गया मुझसे
तू बिम्ब है सबसे सुन्दर
और तोड़ दिया गया मेरा दर्पण.

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