सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को यह स्पष्ट किया कि पड़ोसियों के बीच हुई गरमागरम बहस और झगड़े स्वाभाविक रूप से आत्महत्या के लिए उकसाने के तौर पर नहीं माने जाएंगे. जस्टिस बीवी नागरत्ना और केवी विश्वनाथन की बेंच ने कर्नाटक हाई कोर्ट द्वारा एक महिला को तीन साल की सजा सुनाने का फैसला पलट दिया. यह सजा पड़ोसी के आत्महत्या के मामले में धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत दी गई थी.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी भी मामले में दोषी का इरादा पीड़ित को आत्महत्या के लिए उकसाने का होना जरूरी है. बेंच ने कहा, हालांकि 'अपने पड़ोसी से प्रेम करो' वाक्य समाज का आदर्श है, लेकिन पड़ोसी झगड़े सामाजिक जीवन का हिस्सा रहे हैं. सवाल यह उठता है कि क्या तथ्यों के आधार पर आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला बनता है?
'हम तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते...'
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब अपीलकर्ता का परिवार और पीड़ित का परिवार आपस में विवाद कर रहे थे तो कोई भी प्रमाण नहीं था कि अपीलकर्ता ने जानबूझकर पीड़ित को आत्महत्या के लिए प्रेरित किया हो. यह झगड़े तो रोजमर्रा की जिंदगी में होते हैं और हम तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि अपीलकर्ता की ऐसी कोई प्रेरणा थी जिससे पीड़ित के पास आत्महत्या करने के अलावा कोई विकल्प ना बचा हो.
यह मामला कर्नाटक हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देने के तहत आया था, जिसमें आरोपी महिला को IPC की धारा 306 के तहत दोषी ठहराया गया था, जबकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3(2)(v) से उसे बरी कर दिया गया था.
मामले में पीड़ित महिला निजी शिक्षिका थीं और आरोपी महिला के बीच एक मामूली झगड़ा लगभग छह महीनों तक चला. लगातार उत्पीड़न से पीड़ित महिला ने आत्महत्या कर ली थी. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने इस बात को भी स्पष्ट कर दिया कि सिर्फ झगड़ा होने से आत्महत्या के लिए उकसाने का प्रमाण नहीं बनता.
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