उत्तराखंड: बंजर पहाड़ी को बुजुर्ग दंपति ने बना दिया खूबसूरत जंगल, ऐसा है उनका सफर

उत्तराखंड के चकोड़ी में बुजुर्ग दंपति ने मानव निर्मित जंगल तैयार किया है. इसमें हजारों की संख्या में पेड़-पौधे हैं. साल 1996 में उन्होंने यहां पेड़ लगाना शुरू किया था. जिस पहाड़ी पर इन्होंने जंगल बनाया है वह पहले एक बंजर जमीन के अलावा कुछ भी नहीं थी. लेकिन आज यहां पर हरा-भरा घना जंगल है.

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78 वर्षीय नारायण सिंह मेहरा और 70 वर्षीय नंदादेवी. 78 वर्षीय नारायण सिंह मेहरा और 70 वर्षीय नंदादेवी.

तेजश्री पुरंदरे

  • चकोड़ी,
  • 20 अगस्त 2022,
  • अपडेटेड 8:46 AM IST

यदि इंसान एक बार मन में कुछ करने का ठान ले तो वह असंभव जैसी चीज को भी पूरा कर लेता है. ऐसा ही कुछ कर दिखाया है उत्तराखंड के चकोड़ी में रहने वाले बुजुर्ग दंपति ने. 78 वर्षीय नारायण सिंह मेहरा और 70 वर्षीय नंदादेवी ने चकोरी के पहाड़ों पर मानव निर्मित जंगल खड़ा कर दिया है. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिस पहाड़ी पर इन्होंने जंगल बनाया है वह पहले एक बंजर जमीन के अलावा कुछ भी नहीं थी. लेकिन आज यहां पर हरा-भरा घना जंगल है.

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दरअसल, नारायण सिंह मेहरा और नंदा देवी ने इस काम की शुरुआत आज से 25 साल पहले यानि सन 1996 में की थी. नंदादेवी बताती हैं कि उन्हें शुरू से ही गांव में रहने का शौक रहा है. इसलिए उन्होंने अपने पति से जिद की कि वे चकोड़ी के पहाड़ों पर जंगलों के बीच ही रहना चाहती हैं. बस उसके बाद से दोनों चकोड़ी की पहाड़ियों पर रहने चले आए.

लेकिन साल 1996 में जब वे चकोड़ी आए तब सिर्फ खुला मैदान और बंजर जमीन के अलावा यहां कुछ भी नहीं था. फिर एक दिन उनके पति नारायण सिंह को ख्याल आया कि पहाड़ों के बीच असली वजह पर्यावरण है. लेकिन यहां तो पेड़, पौधे और जंगल जैसा तो कुछ है नहीं. बस फिर क्या था, उन्होंने उसी दिन एक पेड़ लगाने शुरू कर दिए. एक वो दिन था और एक आज का दिन है, जहां आज हजारों पेड़ लगाकर एक जंगल खड़ा कर दिया है.

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जमीन की खुदाई में आईं मुश्किलें
नारायण सिंह हॉर्टिकल्चर विभाग में काम करते थे इसलिए उन्हें ज्यादातर पौधों की परख थी. उसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने जंगल बनाने की शुरुआत की. चूंकि इलाका पहाड़ी था इसलिए शुरुआती दौर में जमीन की खुदाई में बड़ी मुश्किलें आईं. लेकिन दोनों ने जंगल बनाने का ठान ही लिया था इसलिए वे रुके नहीं. अपनी समझ और सूझ-बूझ से नंदा देवी ने ऐसे पौधे लगाए जो छाया भी दें और फल भी. वहीं, उनकी पत्नी ने ऐसे पौधे और पेड़ लगाए जो औषधीय गुणों से भरपूर भी थे और छायादार भी. इसी मेलजोल के साथ वे काम करते गए और आज एक घना जंगल सांस ले रहा है.

बच्चों की तरह रखते हैं पेड़-पौधों का ध्यान
नंदा देवी बताती हैं कि शुरुआत में उन्हें मुश्किलें बहुत आईं. कभी पौधे मार जाते तो कभी कोई जानवर खा जाता. इसके अलावा पहाड़ों पर पानी की कमी कारण भी कभी-कबार पौधे मर जाते. पर उन्होंने पौधों पर खास ध्यान देना शुरू किया. दोनों के लिए ही पेड़-पौधे परिवार से भी बढ़कर हैं इसलिए वे उनका एक बच्चे की तरह ही ध्यान रखते हैं.

पेड़ों की रक्षा करना एकमात्र मकसद
इसके अलावा जब-जब उनके आस पास के जंगलों में आग लगी, तब-तब उन्होंने पूरी कोशिश करके उस आग को बुझाने की कोशिश की. कई बार तो ऐसा भी हुआ कि पेड़ों की आग बुझाने वक्त खुद भी झुलस जाते थे. नंदादेवी एक घटना को याद करते हुए बताती हैं कि घर पर कोई नहीं था और जंगल में आग लग गई, उन्होंने ढेर सारी गीली घास इकट्ठा करके आग को बुझाने की कोशिश की लेकिन वे भूल गईं कि इस दौरान उनके खुद के कपड़ों ने भी आग पकड़ ली है.

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नंदादेवी बताती हैं कि उनकी पीठ भी इस घटना के दौरान जल गई थी. वहीं, नारायण सिंह बताते हैं कि ऐसा उन लोगों के साथ एक बार नहीं, बल्कि कई बार हुआ. लेकिन उनका मकसद एक ही था और वो था पेड़ों की रक्षा करना.

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