इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा की थी. लेकिन 21 महीने बाद इसे हटाने को इंदिरा गांधी को मजबूर होना पड़ा था. इंदिरा ने राजनीतिक नुकसान को देखते हुए जिस तरह अचानक आपातकाल लागू करने की घोषणा की थी, ठीक उसी तरह जब उन्हें लगा कि अब आपातकाल को नहीं हटाया तो पार्टी के अंदर ही विरोध झेलनी पड़ सकती है.
दरअसल संजय गांधी के राजनीति में आने के बाद 5 सूत्रीय प्रोग्राम के तहत नसबंदी का मामला खराब हो गया और जब इंदिरा को लगा कि अब दुरुपयोग हो रहा है तो उन्होंने अचानक इमरजेंसी हटाने का फैसला किया. उस वक्त खबर तो ये भी थी कि संजय गांधी 35 साल तक इमरजेंसी रखना चाहते थे लेकिन मां ने चुनाव करवा दिए. आपातकाल के दौरान निराश होकर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बाबू जगजीवन राम ने पार्टी छोड़ दी.
आपातकाल के दौरान इंदिरा ने कहा था कि उनके इस कदम से विरोध बिल्कुल शांत हो गए हैं. लेकिन 21 महीने में उन्हें गलती और लोगों के गुस्से का एहसास हो गया. 18 जनवरी 1977 को उन्होंने अचानक ही मार्च में लोकसभा चुनाव कराने का ऐलान कर दिया. 16 मार्च को हुए चुनाव में इंदिरा और संजय दोनों ही हार गए. 21 मार्च 1977 को आपातकाल खत्म हो गया.
बता दें, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावों में धांधली करने का दोषी करार दिया था. कानून के आदेश के अनुसार उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना होता और संसद से बाहर निकलना पड़ता. लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया. वे आपातकाल हटाने पर भी तब मजबूर हुईं, जब उन्होंने महसूस किया कि उनकी अपनी ही पार्टी आपातकाल को अनिश्चितकाल के लिए बढ़ाते जाने के पक्ष में नहीं थी.
इंदिरा गांधी को देश में आपातकाल लगाने की सलाह बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने एक चिट्ठी लिखकर 8 जनवरी, 1975 को दी थी. शंकर रे चिट्ठी में लिखा था कि देश में फैल रही अराजकता और देशभर में शासन को चरमराने से रोकने के लिए आपातकाल का ऐलान जरूरी है.
गौरतलब है कि आपातकाल की समाप्ति के बाद देश में लोकसभा चुनाव हुए. 1977 में हुए इस चुनाव में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी और कांग्रेस पार्टी को अपने गलत फैसले की सजा मिली और वह केंद्र की सत्ता से बाहर हो गई थी.
अमित कुमार दुबे