अमेरिकी के पूर्व राष्ट्रपति ड्वाइट डेविड आइजनहावर का एक मशहूर कथन है. 'Leadership is the art of getting someone else to do something you want done because he wants to do it.' यानी कि नेतृत्व किसी और से वह करवाने की कला है जो आप करना चाहते हैं और क्योंकि वह इसे करना चाहता है.
प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी (Prime minister Narendra Modi) को अपने दूसरे कार्यकाल के पहले बहुप्रतिक्षित कैबिनेट फेरबदल (cabinet reshuffle) के वक्त इस कथन का ध्यान आया होगा या नहीं ये तो हम नहीं कह सकते, लेकिन अपने टीम के नए साथियों को चुनते वक्त उनका ध्यान जरूर इस ओर गया होगा कि उन्हें ऐसे परफॉर्मेंस देने वाले दमदार लोग चाहिए जो उनके मनमुताबिक, उनकी रफ्तार एवं ब्रांड मोदी को ध्यान में रखते हुए उनका 'काम' कर सकें. पीएम मोदी ने ऐसे 'काबिल' चेहरों को चुनने में काफी वक्त लगाया है.
बता दें कि पीएम के नए मंत्रिमंडल में 15 कैबिनेट मंत्रियों और 28 राज्यमंत्रियों ने शपथ ली है. कैबिनेट में शामिल वाले नए हैवीवेट नामों में ज्योतिरादित्य सिंधिया, सर्वानंद सोनोवाल, आरसीपी सिंह और नारायण राणे जैसे नाम हैं.
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यूं तो ये सरकार में ये फेरबदल अपेक्षित था, लेकिन कोरोना के व्यापक प्रभाव ने इस कैबिनट विस्तार की अहमियत कई गुना बढ़ा दी है. कोरोना की विनाशलीला के बाद सरकार 'इमेज क्राइसिस' के भयंकर दौर से गुजर रही है. डॉ हर्षवर्धन का इस्तीफा लेकर केंद्र सरकार ने कहीं न कहीं से ये मान ही लिया है कि कोरोना मैनजमेंट ऑउट ऑफ कंट्रोल हो गया था.
अयोध्या और 370 का गुडविल कोरोना के विलाप में बह गया
अयोध्या जजमेंट और 370 जैसे फैसलों सरकार ने जनता की नजरों में जो गुडविल हासिल किया था वो कोरोना के विलाप में बिल्कुल बुरी तरह से खो गया है. कोरोना के बाद रही सही कसर 200 रुपये लीटर सरसों तेल और 100 रुपये लीटर बिक रहे पेट्रोल ने पूरी कर दी है.
सरकार के प्रति उदासीनता और नकारात्मकता के इस घनघोर दौर में पीएम मोदी को ताजा चेहरों और परफॉर्मेंस देने वाले सहयोगियों की जरूरत है. ऐसे लोग जिनके मीम्स अभी सोशिल मीडिया में हर दो चार दिन में वायरल न होते हों. बता दें कि केंद्रीय मंत्री रह चुके रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावड़ेकर ने भी इस्तीफा दे दिया है.
पीएम मोदी को ब्रिटिश राजनीतिज्ञ के नायक की तलाश
अब हम एक और पश्चिमी विचारक के विचारों से आपको रू-बरू कराते हैं. 17वीं सदी के ब्रिटिश राजनीतिज्ञ जोफेस एडिशन ने कहा था, "No one is more cherished in this world than someone who lightens the burden of another." यानी कि इस दुनिया में किसी और का बोझ हल्का करने वाले से बढ़कर दूसरा और कोई दुलारा-प्यारा नहीं होता है."
बस पीएम मोदी को ऐसे ही 'दुलारों' की तलाश है जो उनका बोझ उठा सके. यूं तो मंत्रिमंडल एक सामूहिक सत्ता (collective entity) है. लेकिन संवैधानिक तौर पर इसके प्रमुख प्रधानमंत्री ही होते हैं. या फिर मैनेजमेंट की भाषा में कहें तो CEO प्रधानमंत्री ही होते हैं. इस सरकार में तो ये सत्य और भी गहरा है. कहने का तात्पर्य यह है कि पीएम मोदी को ऐसे कंधे चाहिए जो उनका बोझ हल्का कर सकें.
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पीएम मोदी के सामने इन नए मंत्रियों के परफॉर्मेंस की परीक्षा दो मुहाने पर होनी है. एक मंत्रिमंडल में इन नियुक्तियों का चुनावी असर होने वाला है और दूसरा इन मंत्रियों से अपने अपने सेक्टर में जोरदार काम की उम्मीद है.
बता दें कि कुछ ही महीनों में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव होने को हैं, जहां बीजेपी का काफी कुछ दांव पर लगा है. पीएम मोदी ने उत्तर प्रदेश से 7 नए चेहरों को अपने कैबिनेट में लिया है. ऐसा करते हुए जातीय संतुलन का खास ध्यान रखा गया है.
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क्या पीएम मोदी ने टोनी ब्लेयर का सबक याद किया?
1997 से 2007 तक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहने वाले टोनी ब्लेयर कहा करते थे कि, "The art of leadership is saying no, not saying yes. It is very easy to say yes." इसका मतलब ये हुआ कि नेतृत्व की कला न कहने में है, हां कहने में. हां कहना बहुत आसान है.
निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मोदी के लिए मंत्रियों के काम का आकलन एक कठिन अभ्यास रहा होगा. उनके Appraisal लिस्ट से न सिर्फ बाहर होने वाले बल्कि सरकार से ही बाहर होने वाले अगर चार अहम नामों रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावड़ेकर, डॉ हर्षवर्धन, रमेश पोखरियाल निशंक पर नजर डालें तो ये चार नाम बताते हैं कि पीएम मोदी ने Appraisal के लिए पैमाना काफी सख्त और ऊंचा रखा था.
लेकिन पीएम मोदी टोनी ब्लेयर के शब्दों में शायद समय गए थे कि अब न कहने का वक्त आ गया है. क्योंकि अब सवाल मोदी ब्रांड का आ गया था. जो दिनों दिन निर्बल और निस्तेज होता दिख रहा था. पिछले 7 सालों में मोदी सरकार का इकबाल इतना कमजोर शायद ही कभी देखा गया.
यही वजह रही कि पीएम मोदी ने सख्ती से काम लिया और लोगों को दो टूक न कहा. कैबिनेट के फैसलों की जानकारी देने वाले सरकार के बड़े नामों में शुमार रहे वन और पर्यावरण मंत्री रहे जावड़ेकर परफॉर्मेंस ग्राउंड पर टिक नहीं पाए और इस Appraisal लिस्ट से बाहर हो गए. Twitter समेत दूसरी टेक कंपनियों के सामने इंडियन यूनियन का पक्ष रख रहे कानून और संचार मंत्री रहे रविशंकर प्रसाद भी पीएम के पैमाने पर खरे नहीं उतर पाए.
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कोरोना वैक्सीनेशन में जी जान से जुटे डॉ हर्षवर्धन को स्वास्थ्य मंत्रालय गंवाना पड़ा है. कोरोना काल के दौरान बदइंतजामियों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. इधर शिक्षा मंत्री रहे डॉ निशंक लगातार बीमार चल रहे थे, कोरोना से रिकवर होने के बाद उनकी मुश्किलें बढ़ गई थी. डॉक्टरों की सलाह के बावजूद उन्होंने महकमे में अपनी सक्रियता बरकरार रखने की कोशिश की. लेकिन पिछले डेढ़-दो सालों में एजुकेशन सेक्टर बुरी तरह प्रभावित हुआ है. 10वीं-12वीं की पढ़ाई और परीक्षा को लेकर काफी परेशानी और दिक्कतें हुई. सीबीएसई की 12वीं की परीक्षा हो या न हो इसे तय करने के लिए पीएम मोदी को खुद मीटिंग करनी पड़ी थी. पीएम की अध्यक्षता में हुई ये मीटिंग आने वाले भविष्य का इशारा दे गई थी.
Appraisal की आड़ में किसी के काम को खारिज नहीं कर रहे
दरअसल काम का मूल्यांकन और नए चेहरों की आमद मंत्रिमंडल और गवर्नेंस की एक सतत प्रक्रिया है. कैबिनेट में हुआ फेरबदल किसी मंत्री के काम और उसके योगदान को सिरे से खारिज नहीं कर सकता है. एक अफ्रीकी कहावत है, "Until the lion learns how to write, every story will glorify the hunter." यानी कि जब तक शेर लिखना नहीं सीख जाता, तब तक हर कहानी शिकारी की महिमा का ही गुणगान करेगी.
कहने का तात्पर्य यह है कि हर शख्स की हर परिस्थिति विशेष में अपनी भूमिका होती है. इसका एक आधार पर आकलन गलत हो सकता है. कैबिनेट में फेरबदल का प्रावधान ही इसलिए किया गया है ताकि अलग क्षमता और निपुणता के व्यक्ति देशकाल की अलग परिस्थितियों में सरकार में अपना योगदान दें. इससे ही सिस्टम में नवाचार आता है और जोश का संचार होता है.
3 साल की पारी, 24 की मेगा तैयारी
मोदी 2.0 सरकार अपने हनीमून पीरियड से बाहर निकलकर उस दौर में आ गई है, जहां सरकार के लिए नीतिगत फैसले लेने और उन पर अमल करने का वक्त है, ताकि 2024 आने से पहले ही इन फैसलों का असर दिख सके. इन फैसलों को लेकर आम जनता के मन में अच्छी यादें हों, और वह इन्हीं अच्छी यादों (याद करिए अच्छे दिन) के साथ वोट डालने जाए. इस कार्यकाल में पीएम मोदी के पास 3 साल से कम का समय बचा है.
साल 2022 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा चुनाव होने को हैं. इन चारों ही राज्यों में बीजेपी सत्ता में है. 2023 में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक में चुनाव है. यहां भी दो राज्यों में बीजेपी ही सत्तारूढ़ है. बीजेपी का शीर्ष नेतृ्तव और पीएम मोदी कभी नहीं चाहेंगे कि इन राज्यों की सरकारों को चुनावों में दोहरे एंटी इन्कम्बेंसी फैक्टर (यानी कि राज्य के अलावा केंद्र का भी) का सामना करना पड़े. पीएम मोदी को इन दो-ढाई सालों में जनता की शिकायतों का समाधान करना है, महंगाई रूपी जख्म पर राहत की मरहम लगानी है, नौकरी की आस लगाने युवाओं को रोजगार देना है और विनिवेश, निजीकरण, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे नितीगत फैसलों पर भी काम करना है.
और फिर इसके बाद 2024 में सत्ता का महासमर है. 2025 में संघ के 100 साल पूरे हो जाएंगे. संघ अपना शताब्दी वर्ष निश्चित रूप से केंद्र में बीजेपी छत्रछाया में मनाना चाहेगा. लेकिन इसके लिए पीएम मोदी की राहें आसान नहीं है.
इस फेरबदल के बाद उनके साथ सिंधिया, अनुराग ठाकुर, धर्मेद्र प्रधान, अश्विनी वैष्णव, सर्वानंद सोनोवाल जैसे युवा जोश और अनुभवी चेहरे हैं तो वहीं, उन्होंने यूपी और बंगाल तो समुचित प्रतिनिधित्व देकर क्षेत्रीय संतुलन भी साध लिया है. अब तो बारी एक्शन की है.
बुधवार को पीएम नरेंद्र मोदी ने अपने हिस्से का Appraisal किया है. आज से कुछेक दशकों के बाद पीएम नरेंद्र मोदी का प्रदर्शन मूल्यांकन (Performance Appraisal) इस आधार पर होगा कि क्या भारत ने 21वीं सदी में स्वास्थ्य, शिक्षा, इकोनॉमी, रक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है?
पन्ना लाल