25 जून... यह तारीख जैसे ही करीब आती है, राजनेताओं और राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के साथ ही विद्वान 25 जून 1975 से 18 जनवरी 1977 के बीच के 'काले दिनों' को पूरी गंभीरता से याद करने लगते हैं. देश को फिर कभी उन दिनों जैसी परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ेगा, ऐसी घोषणाओं की बहार आ जाती है. संजय गांधी और उनके समर्थकों की ओर से नसबंदी अभियान के आतंक से लेकर मीडिया पर बंदिश और बंदियों के अधिकार निलंबित किए जाने तक, तमाम विषयों पर बहस का नया दौर शुरू हो जाता है.
इमरजेंसी के अब 50 साल पूरे हो गए हैं. 'वैसे दिन अब फिर नहीं' की घोषणाओं की बाढ़ के बीच भारतीय समाज ने सामूहिक रूप से एक प्रश्न को नजरअंदाज किया है, ईमानदारी से जवाब देने से परहेज किया है. इस सवाल का जवाब देने के लिए आत्मनिरीक्षण की जरूरत होगी. यह सवाल है कि क्या होता अगर इंदिरा गांधी ने देश में लागू इमरजेंसी हटाने का फैसला नहीं लिया होता? इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी हटाने का अचानक ऐलान कर अपने कट्टर आलोचकों को भी आश्चर्यचकित कर दिया था.
देश में इमरजेंसी क्यों लगाई गई? इसे लेकर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन इस बात पर केवल अटकलें ही लगती रही हैं कि इमरजेंसी हटाई क्यों गई? सच्चाई यह है कि इमरजेंसी लागू होने के बाद देश में सबकुछ ट्रैक पर था. ट्रेन टाइम पर चल रही थी, अधिकारी और कर्मचारी समय से पहले दफ्तर पहुंच रहे थे. किसी भी तरह के गंभीर विद्रोह या उग्रवाद के कोई संकेत नहीं थे. लगातार दो साल मॉनसून की अच्छी बारिश के कारण खाद्यान्न की प्रचूर उपलब्धता थी, खाद्य सुरक्षा में सुधार हुआ था और महंगाई दर भी कम हो गई थी. न्यायपालिका में ऊंचे ओहदे पर बैठे लोगों की नींद उड़ी हुई थी. स्कूली छात्रों को तब सार्वजनिक अवकाश का आनंद मिला था, जब इमरजेंसी के आदेश पर हस्ताक्षर करने वाले राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का निधन हुआ.
यह सवाल अनुत्तरित ही रहा कि अगर इमरजेंसी नहीं हटाई गई होती तो क्या 1977 में कोई विनाशकारी घटना घट सकती थी? इस सवाल के जवाब की तलाश से पहले उस मिथक पर चर्चा जरूरी है, जो इमरजेंसी हटाए जाने के बाद से अब तक लगातार प्रचारित किया जाता रहा है. वह मिथक यह है कि इमरजेंसी से भारतीय इतने नाराज थे कि मार्च, 1977 में हुए आम चुनाव में बैलट पेपर पर सामूहिक रूप से अपनी नाराजगी जाहिर की और कांग्रेस को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया. क्या पूरे देश में इंदिरा गांधी और कांग्रेस को हराने के लिए जनता एक टीम की तरह काम कर रही थी? इसे समझने के लिए 1977 चुनाव के आंकड़ों पर गौर करना होगा.
1977 के आम चुनाव
इमरजेंसी हटाए जाने के बाद साल 1977 में हुए पहले आम चुनावों के आंकड़े इस दावे को खारिज करते हैं कि जनता में इतनी नाराजगी थी कि बैलट पेपर के जरिये उसे जाहिर कर इंदिरा गांधी और कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया. इस चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि देश के एक बड़े हिस्से ने पूरे दिल से इंदिरा गांधी का समर्थन किया था. नाराजगी जैसी बात पूरे देश में नहीं थी और केवल हिंदी हार्टलैंड के साथ पूर्वी भारत तक ही सीमित थी.
कांग्रेस की सीटें 1971 में मिली 352 से घटकर 1977 में 154 पर आ गईं, पार्टी के वोट शेयर में भी तब नौ फीसदी की कमी आई थी. साल 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर 2009 के मुकाबले 10 फीसदी कम हुआ था और सीटों की संख्या भी पहली बार 50 से भी नीचे 44 पर आ गई थी. सीटों की यह संख्या ऐसी है, जिसकी कल्पना इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी के कट्टर विरोधियों ने भी कभी नहीं की होगी.
इसे दूसरे तरीके से देखें तो इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनाव और अपनी रायबरेली सीट हारने के बाद तीन साल से भी कम समय में 353 सीटों पर जीत दिलाई. 1977 की हार के बाद इंदिरा की कांग्रेस ने 1980 के लोकसभा चुनाव में ही पलटवार कर दिया, जबकि 2014 के आम चुनाव में 44 सीट पर सिमटने के बाद 2019 और 2024, दो लोकसभा चुनाव हो चुके हैं लेकिन पार्टी सौ सीट का आंकड़ा भी नहीं छू पाई.
इंदिरा के खिलाफ कौन?
इंदिरा गांधी के खिलाफ कौन था? इसे समझने के लिए रीजनवाइज डेटा की चर्चा करनी होगी. इमरजेंसी के तुरंत बाद हुए चुनाव में मतदाताओं के व्यवहार को लेकर डेटा क्या कहता है? सीमित सीटों वाले पूर्वोत्तर के साथ साउथ इंदिरा के साथ मजबूती से खड़ा नजर आता है. इंदिरा ने पश्चिमी भारत में भी अपना आधार बनाए रखा और कांग्रेस को तब 2014 के चुनाव की तरह देशव्यापी गुस्से का सामना नहीं करना पड़ा तो इसके पीछे इन राज्यों के मतदाताओं की ही अहम भूमिका रही.
हिंदी पट्टी और पूर्वी राज्यों में इसके उलट तस्वीर देखने को मिलती है. इन इलाकों के मतदाताओं में इमरजेंसी के बाद हुए पहले चुनाव में इंदिरा गांधी और कांग्रेस को लेकर तीव्र गुस्सा था. इमरजेंसी को लेकर देशव्यापी आक्रोश की थ्योरी पर कोई कुछ भी कह ले, वास्तव में ऐसा था नहीं. कहीं आक्रोश था और कहीं समर्थन. उत्तर प्रदेश में तब लोकसभा की 85 सीटें हुआ करती थीं और कांग्रेस शून्य पर सिमट गई थी. अविभाजित बिहार की कुल 54 में से एक भी सीट इंदिरा की पार्टी नहीं जीत पाई थी.
मध्य प्रदेश की 40, राजस्थान की 25 सीटों में से कांग्रेस को एक-एक सीट पर जीत मिली थी. हरियाणा की 10 सीटों पर भी कांग्रेस खाता नहीं खोल पाई थी. कुल मिलाकर देखें तो हिंदी हार्टलैंड की 204 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस महज दो ही जीत सकी थी. हिंदी हार्टलैंड में हुआ नुकसान ही 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी की हार का मुख्य कारण था. इस चुनाव में पश्चिम बंगाल और ओडिशा ने नॉकआउट पंच मारा.
कांग्रेस को तब पश्चिम बंगाल की 42 में से तीन और ओडिशा की 21 में से चार सीटों पर ही जीत हासिल हो पाई थी. उत्तर के तीन राज्यों हिमाचल प्रदेश, पंजाब और दिल्ली में कांग्रेस शून्य पर सिमट गई थी. कुल मिलाकर देखें तो कांग्रेस उत्तर और पूर्वी भारत की 291 लोकसभा सीटों में से महज नौ ही जीत सकी थी. इंदिरा और कांग्रेस के खिलाफ जहां के नागरिकों में आक्रोश था, वह यही राज्य थे, पूरा भारत नहीं.
इंदिरा के साथ कौन?
इंदिरा गांधी और कांग्रेस का प्रदर्शन कुछ राज्यों में अच्छा भी रहा था. दक्षिण के राज्यों की बात करें तो कांग्रेस को आंध्र प्रदेश की 42 में से 41, कर्नाटक की 28 में से 26 सीटों पर जीत मिली थी. कांग्रेस ने केरल की 20 में से 11, तमिलनाडु में 39 में से 14 सीटें जीती थीं. असम की 14 में से 10 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार जीते थे. पश्चिमी राज्यों की बात करें तो गुजरात की 26 में से 10, महाराष्ट्र की 48 में से 20 सीटों पर कांग्रेस जीती थी. डेटा यही कहता था कि इस निष्कर्ष पर पहुंच जाना सही नहीं है कि इमरजेंसी को लेकर पूरे देश में नाराजगी थी. कोई यह भी कह सकता है कि देश के शिक्षित और समृद्ध इलाकों ने इमरजेंसी का समर्थन किया था.
अगर लागू रहती इमरजेंसी...
यह सवाल असहज करता है कि अगर इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी नहीं हटाई होती तो क्या होता? इसे लेकर कोई डेटा उपलब्ध नहीं है, लेकिन हम अपना बचपन याद करते हैं तो मध्यम वर्ग और शिक्षित भारतीय खुले तौर पर इमरजेंसी के समर्थन में थे. यह कम शिक्षित जनता थी, जिसने उन्हें सबक सिखाया और वह भी तब, जब इंदिरा गांधी ने स्वेच्छा से उनको यह अवसर दिया. कम शिक्षित जनता लोकतांत्रिक नॉर्म्स की बात करें तो यह 50 वर्षों में अपरिवर्तित रहा है.
चुनाव आयोग के डेटा और सर्वेक्षण के बाद सर्वेक्षण यह साबित करते हैं कि ग्रामीण, कम शिक्षित, गरीब भारत शहरी, अंग्रेजी बोलने वाले भारत की तुलना में लोकतंत्र का जश्न मनाने के लिए अधिक तादाद में निकलता है. मतदान के आंकड़ों में इतनी भिन्नता है कि उनकी तुलना भी बेमानी हो गई है. साल 1977 के आम चुनाव में उत्तर-दक्षिण या पूर्व-पश्चिम के विभाजन को इस समय देश के हर रीजन और राज्य में शहरी-ग्रामीण विभाजन को देखकर समझा जा सकता है.
राजनीति में एक हफ्ते का समय भी बहुत लंबा होता है और हम इमरजेंसी के बाद 50 साल के चुनावी राजनीति के इतिहास की बात कर रहे हैं. जितनी चीजें बदलती हैं, उतनी ही चीजें वैसी की वैसी भी रहती हैं. पिछले साल (2024 में) हुए लोकसभा चुनाव के नतीजे देखें तो कांग्रेस ने 99 सीटें जीती थीं और इसमें साउथ के राज्यों केरल, तेलंगाना, तमिलनाडु के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती.
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हां, यह भी सच है कि आंध्र प्रदेश और कर्नाटक बिल्कुल ही अलग दिशा में चले गए हैं और नया राज्य तेलंगाना अधर में लटक रहा है. लेकिन यह भी सच है कि कांग्रेस की आधी सीटें 1977 की ही तरह साउथ से ही आई हैं. मुख्य अंतर यह है कि इंदिरा गांधी तीन साल के भीतर क्या जीत पाईं और अभी की कांग्रेस एक दशक बाद भी क्या नहीं जीत पाई.
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हिंदी हार्टलैंड की बात करें तो यहां जो बुनियादी बदलाव आया है, वह यह है कि इस इलाके के मतदाता अब 1980 की तरह पुरानी पार्टी की ओर लौटने से इनकार कर रहे हैं. अब मूल सवाल पर वापस लौटते हैं कि क्या होता अगर इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी हटाने का फैसला नहीं लिया होता, चुनाव नहीं कराए होते या चुनाव नतीजे आने के बाद भी सत्ता छोड़ने से इनकार कर दिया होता? इंदिरा गांधी में चुनाव कराने का साहस था, भले ही उनको दक्षिण और पश्चिम से गलत संकेत मिल रहे थे कि सब कुछ ठीक है.
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सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इंदिरा गांधी में साल 1977 के जनादेश आने के बाद उसे स्वीकार करने, विपक्ष में बैठने की शिष्टता थी. इंदिरा गांधी ने इस हार के बाद भी काम किया, अपनी कड़ी मेहनत से 1980 के चुनाव में विजय भी पाई. एक बात तो तय है कि बदलाव और सम्पूर्ण क्रांति की चिंगारी सबसे गरीब और अंतिम पंक्ति से ही आती है. राजनीति के छात्रों के लिए यह तब भी सीखने योग्य था, आज भी है और कल भी रहेगा.
(यशवंत देशमुख सी वोटर रिसर्च फाउंडेशन के संस्थापक और एडिटर इन चीफ और सुतानु गुरु एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखकों की निजी राय है.)
यशवंत देशमुख / सुतानु गुरु