संघ के 100 साल: आपातकाल में प्रतिबंध और गिरफ्तारियों के बावजूद लड़ता रहा RSS

1974 में बाला साहब देवरस ने छात्रों की ऊर्जा का इस्तेमाल गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन में किया. इसका अगला प्रयोग बिहार में होना था. इधर जेपी पूरे देश में इसके लिए मुहिम चला रहे थे. इसी दौरान जेपी-बालासाहब देवरस की एक मीटिंग हुई. इसके साथ ही 1975 के आंदोलन की नींव रखी गई. RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज पेश है उसी घटना का वर्णन.

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आपातकाल से पहले जेपी और देवरस की मीटिंग हुई थी. (Photo: AI generated) आपातकाल से पहले जेपी और देवरस की मीटिंग हुई थी. (Photo: AI generated)

विष्णु शर्मा

  • नई दिल्ली,
  • 30 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 11:07 AM IST

“समाचार पत्रों और पत्रिकाओं, मंचों, डाक सेवा और निर्वाचित विधायिकाओं सहित संचार के सभी रूपों को रोक दिया गया था, ऐसे में सवाल यह था कि जन आंदोलन का आयोजन कौन करे? यह केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही कर सकता है. संघ के पास पूरे देश में शाखाओं का अपना नेटवर्क था और वह केवल इस क्षमता में सेवा कर सकता था. लोगों के बीच सीधे संपर्क के माध्यम से संघ जमीन से जुड़ा हुआ है. जनसंपर्क के लिए यह कभी भी प्रेस या मंच पर निर्भर नहीं रहा. नतीजा यह हुआ कि मीडिया के बंद का असर जहां दूसरी पार्टियों पर पड़ा, वहीं संघ पर इसका कोई असर नहीं पड़ा. अखिल भारतीय स्तर पर इसके केंद्रीय निर्णय प्रांत, विभाग, जिला और तहसील स्तरों के माध्यम से गाँव तक पहुंचते हैं. 

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आपातकाल की घोषणा के समय और आपातकाल की समाप्ति के बीच संघ की इस संचार प्रणाली ने त्रुटिपूर्ण ढंग से काम किया. संघ कार्यकर्ताओं के घर भूमिगत आंदोलन के ताने-बाने के लिए सबसे बड़ा वरदान साबित हुए, और परिणामस्वरूप, खुफिया अधिकारी भूमिगत कार्यकर्ताओं का पता लगाने में असमर्थ रहे”. संघ के विचारक रहे एच.वी. शेषाद्रि ने ‘कृतिरूप संघ दर्शन’ में इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल में संघ क्यों कामयाब रहा, इसको लेकर अपनी ये राय लिखी थी.

दूसरी महत्वपूर्ण लेकिन विदेशी मीडिया की राय भी जान लीजिए. 12 दिसंबर, 1976 के दिन ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने लिखा, ‘श्रीमती इंदिरा गांधी के विरुद्ध चल रहे भूमिगत आंदोलन में यह दावा किया जाता है कि वह विश्व में एक अकेली गैर-वामपंथी क्रांतिकारी ताकत है, जो यह दावा भी करती है कि वह रक्तपात तथा वर्ग संघर्ष दोनों से दूर है. वास्तव में उसे एक दक्षिणपंथी संगठन भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें जनसंघ की और इसके सांस्कृतिक सहबद्ध राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रभुता है लेकिन इस समय इसके प्लेटफार्म पर केवल एक ही मुद्दा है और वह यह कि कैसे भारत में प्रजातंत्र को वापस लाया जाए? इस ऑपरेशन के सिपाही (भूमिगत आंदोलन में) हजारों स्वयंसेवक हैं, जो ग्राम स्तर पर चार व्यक्तियों के एक दल के रूप में संगठित हैं. उनमें से अधिकतर राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नियमित सदस्य हैं, यद्यपि बड़ी संख्या में अधिक-से-अधिक नए युवा लोग भर्ती हो रहे हैं. दूसरी भूमिगत पार्टियों, जिन्होंने भूमिगत आंदोलन में सहभागियों के तौर पर शुरुआत की थी, ने जनसंघ तथा राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पक्ष में पूर्ण रूप से मैदान छोड़ दिया है.’

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अब ‘दि पीपल वर्सेस इमरजेंसी: ‘ए’ सागा ऑफ स्ट्रगल 1991’ में दर्ज खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उस वक्त की राय जानिए, “हम राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 10 प्रतिशत स्वयंसेवकों को भी पकड़ न पाए. वे सब भूमिगत हो गए हैं और राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रतिबंध के बावजूद उखड़ा नहीं है. इसके विपरीत, यह नए क्षेत्रों, जैसे केरल में अपनी जड़ें विकसित कर रहा है.”
 
जेपी-बालासाहब की मुलाकात ने रखी आंदोलन की नींव

बीबीसी के साथ एक इंटरव्यू में वरिष्ठ पत्रकार और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के अध्यक्ष रामबहादुर राय ने बताया कि, “देश की राजनीति में छात्रों का पहले पहल इस्तेमाल बाला साहब देवरस ने 1974 में गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन के दौरान किया. उसके बाद से भ्रष्ट और नाकारा सरकारों से इस्तीफ़ा दिलवाने के लिए छात्रों को सड़कों पर उतार कर आंदोलन चलवाना एक सर्वस्वीकृत दस्तूर बन गया. इसका अगला प्रयोग बिहार में किया गया”. राम बहादुर राय बताते हैं, "मैं 1974 में छात्र संघर्ष संचालन समिति का सदस्य हुआ करता था. जब जेपी घूमघाम कर आते थे तो उनके साथ जनसंघर्ष समिति और छात्र संघर्ष समिति की साझा बैठक हुआ करती थी. एक बार जब फ़रवरी 1974 में जेपी दिल्ली से आए तो अख़बारों में एक छोटी सी ख़बर छपी कि जेपी और बाला साहब देवरस की एक लंबी बातचीत हुई है."
 
उन दिनों पटना में संघ के विभाग प्रचारक गोविंदाचार्य ने भी एक इंटरव्यू में बताया था कि  "इस आंदोलन में हमारे और राम बहादुर राय के ख़िलाफ़ मीसा वारंट जारी कर दिया गया. वारंट के बाद मैं शाखा में जा नही सकता था, इसलिए आंदोलन में लग गया. इसके बाद संघ के कई लोगों को लगा कि कहीँ ऐसा मैंने अपने मन से तो नहीं किया है. जब बाला साहब देवरस अप्रैल, 1974 में पटना आए, तब तक छात्र आंदोलन अपने उफान पर पहुंच चुका था." वो बताते हैं, "उन्होंने उसी समय ये स्टैंड लिया कि संघ का स्वयंसेवक एक जागरूक और संवेदनशील नागरिक है. वो समाज में हो रहे बदलाव और समाज के तकाज़ों को अनसुना कैसे कर सकता है. उन्होंने मुझे नागपुर बुला कर कहा था कि हम बगैर तैयारी के अखाड़े में उतर पड़े हैं. अभी बहुत संकट आएंगे. लेकिन अब पीछे हटने का सवाल ही नहीं है. इसे अपने मुकाम तक पहुंचाना ही पड़ेगा... उन्होंने मुझसे यहाँ तक कहा कि एक ऐसी स्थिति भी आ सकती है कि मुझे तुम्हें सार्वजनिक रूप से 'डिसओन' करना पड़े. लेकिन तुम इसका बुरा मत मानना..".
 
बालासाहब के इंदिरा गांधी को पत्र को लेकर विवाद

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10 नवम्बर 1975 को यरवदा जेल से लिखे गए इस पत्र को लेकर नई पीढ़ी के कई संघ स्वयंसेवक भी हैरान थे कि आखिर इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर उन्हें सुप्रीम कोर्ट से बरी हो जाने पर बधाई देने की जरुरत क्या थी? उन लोगों को शायद पिछले प्रतिबंध की घटनाओं का भान नहीं था और ना पूरी तरह संघ की सोच का. कभी भी संघ ने विपक्षी पार्टियों के प्रधानमंत्रियों का एकदम बहिष्कार नहीं किया है. तमाम असहमतियों के बावजूद ना जाने कितने मुद्दों पर गुरु गोलवलकर और पंडित नेहरू के बीच ना केवल पत्राचार होता रहा था, बल्कि कई बार मुलाकातें भी हुई थीं. खुद पंडित नेहरू और सरदार पटेल ने राजा हरिसिंह को भारत में विलय को राजी करने के लिए महाराजा हरिसिंह के पास गुरु गोलवलकर को भेजा था और वो कामयाब भी हुए थे.

बाद में 1962 के युद्ध में भी जितना सहयोग संघ ने सीमा पर सैनिकों के रसद, मेडिकल मदद पहुंचाने में, सरहदी गांवों की सुरक्षा और गांववालों के सैन्य प्रशिक्षण में, घायल सैनिकों की मदद में, हजारों शरणार्थियों के लिए शिविर लगाने में और दिल्ली जैसे कई शहरों की ट्रैफिक व्यवस्था आदि संभालने में किया था, उसके लिए पंडित नेहरू ने खुद संघ को 26 जनवरी की परेड में पथसंचलन के लिए निमंत्रित किया था. इंदिरा गांधी के दौर में जब 1971 के युद्ध में तो संघ की ये मदद कई गुना बढ़ गई थी. उससे पहले शास्त्रीजी ने तो बाकायदा गुरु गोलवलकर को राजनैतिक दल ना होते हुए भी सर्वदलीय बैठक में आमंत्रित किया था. ऐसे में बालासाहब का इंदिरा गांधी को पत्र लिखना कोई बड़ी बात नहीं थी.   

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RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी 

उन स्वयंसेवकों ने बिलकुल उसी तरह से प्रतिक्रिया दी थी, जब कभी गांधी हत्या के बाद लगे संघ पर प्रतिबंध को हटाने के लिए समझौते की बातचीत में सरदार पटेल के प्रतिनिधि डीपी मिश्रा ने जब गुरु गोलवलकर से नेहरू को पत्र लिखने को कहा था, तब बालासाहब देवरस ने भी वैसी ही प्रतिक्रिया दी थी. डाक्टर करंदीकर ने अपनी पुस्तक 'तीन सरसंघचालक' में लिखा है, "प्रतिबंध के बाद सरदार पटेल की ओर से डीपी मिश्र बातचीत करने नागपुर आए थे. उन्होंने बाला साहब से मुलाकात की थी. वो चाहते थे कि गुरु गोलवलकर जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखें. इसे बाला साहब ने स्पष्ट रूप से मना कर दिया. जो निर्णय बाला साहब ने किया, उसे गुरु गोलवलकर ने यथावत माना." ये अलग बात है कि उस दौरान कई पत्र और मुलाकातें गुरु गोलवलकर और नेहरू-पटेल के बीच हुई थीं, जबकि 2 बार गुरु गोलवलकर को इसी दौरान जेल में डाला गया था. लेकिन गुरु गोलवलकर ने कभी संवाद के रास्ते बंद नहीं किए थे.

कुछ लोग इस पत्र की शुरूआती लाइंस को लेकर ही लगाते हैं, वो लाइनें थीं- ‘उच्चतम न्यायालय ने आपका चुनाव वैध ठहराया, इसलिए लिए आपका हार्दिक अभिनंदन’. ये लाइन उसी तरह से है जब कोई चुनाव जीत जाता है और हारने वाला ये बधाई देता है. इन लाइनों में गहरा व्यंग्य छुपा है, दरअसल इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद इमरजेंसी का ऐलान कर दिया था और बिना विपक्ष वाली संसद में एक ऐसा कानून पास कर दिया था, जिसके बारे में प्रभात प्रकाशन की किताब ‘इंदिरा फाइल्स’ में लिखा है कि, “अगस्त में संसद के अंदर उस कानून में ही संशोधन कर दिया गया, जिसके आधार पर उन्हें सजा मिली थी. उससे भी बड़ी हैरत की बात ये थी कि 53 वोट से पारित इस विशेष संविधान संशोधन के तहत प्रधानमंत्री के चुनाव के मामले में अदालतों से फैसला करने का अधिकार ही छीन लिया गया था. मतलब अगर पीएम चुनाव लड़ रहा हो तो वो कोई भी गड़बड़ी करने के लिए स्वतंत्र था, उसे किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी. सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी को राहत जरुर दी, लेकिन इस विशेष संविधान संशोधन के उस हिस्से को भी रद्द कर दिया, जिसमें प्रधानमंत्री के चुनाव के मामले में अदालतों से फैसला करने का अधिकार छीन लिया गया था.”

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पांचजन्य के सम्पादक हितेश शंकर के मुताबिक, “इस पत्र में इंदिरा गांधी को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उनके निर्वाचन को वैध ठहराने को लेकर बधाई दी जाती है, जो वास्तव में इंदिरा गांधी के लिए खुशी नहीं, बल्कि गहरी टीस का कारण था, क्योंकि अवकाशकालीन न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर द्वारा पारित सर्वोच्च न्यायालय के अंतरिम आदेश में कहा गया था कि वे लोकसभा में सांसद के रूप में बनी रह सकती हैं और सदन में उपस्थित हो सकती हैं, लेकिन वे इसकी कार्यवाही में भाग नहीं ले सकतीं या सांसद के रूप में मतदान नहीं कर सकतीं। वे सांसद के रूप में कोई पारिश्रमिक भी नहीं ले सकतीं”.
 
इस पत्र को लेकर कांग्रेस व कम्युनिस्ट नेता ये आरोप भी लगाते हैं कि इस पत्र में बालासाहब देवरस ने लिखा है कि, ‘आंदोलन तो जेपी का है, संघ का नहीं’. तो उन्हें शायद ये पता नहीं है कि संघ किसी राजनैतिक आंदोलन में कभी अपने बैनर तले नहीं उतरता ही नहीं है. सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान जब संघ संस्थापक डॉ हेडगेवार को जंगल सत्याग्रह में भाग लेने जाना था, तब वो डॉ परांजपे को सरसंघचालक पद का दायित्व सौंपकर गए थे. भारत छोड़ो आंदोलन हो या गोवा आंदोलन या फिर चाहे अन्ना आंदोलन, संघ के स्वयंसेवक हर आंदोलन में थे, लेकिन उसी आंदोलन का हिस्सा बनकर, संघ के बैनर तले नहीं. ऐसा ही कुछ आपातकाल के विरुद्ध हुए आंदोलन में हुआ था. गोविंदाचार्य वाले वाकए से इसे समझा जा सकता है. एक पूर्व आईबी चीफ टीवी राजेश्वर ने भी अपनी किताब में लिखा है कि बालासाहब को इमरजेंसी के दौरान कुछ फैसले पसंद आए थे, उनके संजय गांधी के नसबंदी जैसे फैसले अच्छे लगे थे. हालांकि इस सम्बंध में उन्होंने कोई सुबूत नहीं रखा है, लेकिन मुस्लिम आबादी और बिगड़ती जनसांख्यिकी को लेकर संघ की राय पहले से ही जगजाहिर है और अवैध अतिक्रमण को लेकर भी, खासकर जो मुस्लिम तुष्टिकरण के नाम पर कई सरकारों ने होने दिया था.
 
जेपी से बालासाहब की मुलाकात के साथ रखी गई आंदोलन की नींव

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गोविंदाचार्य को जिस तरह से बालासाहब का समर्थन बिहार आंदोलन को लेकर मिला था, उससे एक बात तो स्पष्ट हो गई थी कि इस आंदोलन को बालासाहब का समर्थन मिल गया है. 1 दिसम्बर 1974 को उन्होंने दिल्ली में एक बयान दिया कि, “जयप्रकाश नारायण एक संत हैं, जो हमारे समाज को बुरे और कठिन दौर से निकालने आए हैं”. सोचिए ये बयान एक दिन पहले दिल्ली में ही हुई जेपी व बालासाहब की बैठक के बाद आया था.

उन दिनों जेपी आंदोलन में महती भूमिका निभा रहे रामबहादुर राय ने एक साक्षात्कार में बताया कि "हम लोगों ने जेपी से पूछा कि हमें बताएं कि आपकी बाला साहब देवरस से क्या बातचीत हुई है? जेपी ने बताया कि मेरी देवरस से ये पहली मुलाकात थी. मैंने उनसे पूछा कि आपकी नज़र में हिंदुत्व क्या है. उनका जवाब था, 'हिंदुत्व धर्म नहीं है, हिंदुत्व राष्ट्रीयता है.' इससे मैं बहुत प्रभावित हुआ. हम लोगों को उसी समय आभास मिल गया कि जेपी और बाला साहब में एक तरह की समझदारी विकसित हुई है."
 
आडवाणीजी ने भी लिखी जेपी के हृदय परिवर्तन की कहानी

लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी जीवनी 'मेरा देश, मेरा जीवन' में जेपी के इस हृदय परिवर्तन के बारे में लिखा है, "अपनी युवावस्था में कट्टर मार्क्सवादी रहे जयप्रकाशजी यह मानते थे कि गांधीजी की हत्या में संघ का हाथ था. 1948 में दिल्ली में 'ऑर्गेनाइजर' कार्यालय के सामने संघ के विरोध में उन्होंने एक प्रदर्शन भी किया. इसलिए उन जैसे व्यक्ति के लिए जन संघ के साथ हाथ मिलाना आसान नहीं था. फिर भी, ऐसा दो महत्त्वपूर्ण कारणों से संभव हुआ. वे राष्ट्रीय हित में, विशेषकर लोकतंत्र की रक्षा के लिए, सभी गैर-कांग्रेसी ताकतों को एक मंच पर लाने के निश्चित मत के थे. दूसरी ओर, वे एक महान् बौद्धिक निष्ठा-संपन्न व्यक्ति थे तथा राजनीति में अवसरवाद से घृणा करते थे. इसलिए वे खुले संवाद के माध्यम से संघ और भाजपा के प्रति अपनी शंकाओं का पहले समाधान चाहते थे. इस संदर्भ में हम उन्हें पूर्ण रूप से संतुष्ट करने में सफल हुए.

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आडवाणी आगे लिखते हैं, “1973 के शुरू में एक दिन जयप्रकाशजी ने मुझे अपने घर बुलाया और कहा, 'मैं गांधीजी की हत्या में संघ की भूमिका के बारे में सतत आरोप सुनता रहा हूँ। मैं इस विषय का अध्ययन विस्तारपूर्वक करना चाहता हूँ और चाहूँगा कि आप मुझे अपनी ओर से सभी प्रकार की सूचनाएँ उपलब्ध कराएँ'. मैंने उनकी सभी जिज्ञासाओं का उत्तर दिया और लिखित साक्ष्य के साथ सभी पहलुओं के संबंध में उन्हें संपूर्ण सूचना भेज दी- गांधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे ने सन् 1933 में ही संघ के साथ किस तरह अपना संपर्क तोड़ लिया था. किस प्रकार वह संघ की कटु और खुलकर आलोचना करने लगा था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर से प्रतिबंध हटाने का नेहरू सरकार का निर्णय, सरदार पटेल और गुरुजी के बीच पत्राचार, न्यायमूर्ति कपूर आयोग के समक्ष सुनवाई और आयोग का अंतिम निर्णय आदि.”

आडवाणी लिखते हैं, “जयप्रकाशजी ने कुछ दिनों के बाद मुझे अपने पास बुलाया और कहा, 'मैंने इस विषय का समग्र अध्ययन कर लिया है. मैं इस बात से सहमत हूँ कि गांधीजी की हत्या में संघ की भूमिका नहीं थी. "जयप्रकाशजी को जन संघ के निकट लाने में दूसरे एक कारक का भी हाथ था-उनकी यह मान्यता कि राजनीति में सिद्धांत से अधिक महत्त्वपूर्ण आदर्शवाद होता है. जब वे यह महसूस करते थे कि जन संघ का सिद्धांत उनकी मान्यताओं के अनुरूप नहीं है, तब भी वे इसके कार्यकर्ताओं के आदर्शवाद की सराहना करते थे. वे सचमुच विश्वास करते थे कि जन संघ के नेता और कार्यकर्ता ईमानदार हैं, देशभक्त हैं और जिन्हें भ्रष्ट नहीं किया जा सकता."

और जो बालासाहब ने जेपी के लिए कहा था, वो भी वाकई में सच था. जेपी जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद भी संतुष्ट होकर नहीं बैठ गए थे. बल्कि नई सरकार को भी वायदे याद दिलाने के लिए आंदोलन कर रहे थे, एक ऐसे ही आंदोलन के बारे में जेपी आंदोलन का प्रमुख चेहरा रहे हरेन्द्र प्रताप अपने फेसबुक पेज पर जेपी के साथ एक कार्यक्रम का फोटो साझा करते हुए लिखते हैं कि, “बिहार आंदोलन का एक प्रमुख मांग शिक्षा में परिवर्तन था. जनता पार्टी की सरकार को याद दिलाने हेतु लोकनायक जयप्रकाश जी ने 17 फरवरी 1979 को एक शैक्षिक जागरण ज्योति प्रज्वलित किया. जिसे लेकर हम लोग उत्तर प्रदेश होते हुए 5 मार्च 1979 को दिल्ली पहुंचे थे”. इस फोटो में हरेन्द्र प्रताप ज्योति प्रज्वलन के दौरान जेपी के सहयोगी की भूमिका में हैं और उस वक्त के छात्र नेता जेपी नड्डा मंच संचालन करते दिख रहे हैं.

आपातकाल में 21 महीने जेल में रहने वाले पत्रकार के आर मलकानी अपनी पुस्तक ‘द आरएसएस स्टोरी’ में इस हरकत को पत्रों के सहारे झूठा नरेटिव गढ़ने की साजिश करार देते हैं. उनके मूताबिक जब लोक संघर्ष समिति ने पहसे ही इंदिरा गांधी के चुनाव के सत्यापन को स्वीकार कर लिया था, तब बाद में बालासाहब का लिखना कोई अहम नहीं है. उनके मुताबिक जेलों में बंद आपातकाल के कैदियों में 80 प्रतिशत संघ के स्वयंसेवक थे.   
 
जेपी और संघ की नजदीकी देखकर संघ पर प्रतिबंध की योजना तो पहले ही बन गई थी

बिहार आंदोलन से इंदिरा गांधी भयभीत हो गई थीं, बड़ा कारण बना जेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आपसी मेल-जोल. इलाहाबाद का मुकदमा न भी हारतीं तो भी वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबंदी की बात सोचने लगी थीं. इसकी भनक बालासाहब देवरस को मिल गई थी. इसीलिए उन्होंने 16 जून, 1975 को रोहतक के संघ शिक्षावर्ग में कहा, "जुलाई 1949 में संघ से प्रतिबंध उठने के बाद से ही पुनः प्रतिबंध लगाए जाने की चर्चा शुरू हो गई थी. वह अभी भी चल रही है. प्रारंभ में हमने उसे गंभीरता से नहीं लिया था, लेकिन बीते जनवरी-फरवरी में मैंने अपना वक्तव्य दिया. मैंने कहा कि संघ के हजार-दो हजार स्वयंसेवकों को कारागृह में बंदी बना लेने से संघ को समाप्त नहीं किया जा सकता. हम अपना काम यह सोचकर नहीं करते कि संघ पर प्रतिबंध लगेगा या नहीं. हम संघ कार्य एक संकल्प और दृढ़ निश्चय से चला रहे हैं. प्रतिबंध अगर लगा तो उसे भी हम एक अवसर में बदल देंगे".

जिसकी आशंका थी, वह घटित हुई. देश में इमरजेंसी लगा दी गई. उस दिन बाला साहब यूपी के फिरोजाबाद के ओटीसी वर्ग में थे, रात को खबर मिलते ही, सुबह वर्ग के बाहर पुलिस लग चुकी थी. लेकिन स्वयंसेवकों ने पुलिस को अंदर नहीं घुसने दिया गया. पीडी जैन कॉलेज में लगे इस वर्ग के सभी द्वारों पर एक ही रंग की कारें लगा दी गई थीं. पहली कार के साथ काफिला आगरा निकला, दूसरा शहर की तरफ गया, इससे पुलिस उनके पीछे लगी और तीसरी कार व काफिले के साथ बालासाहब शिकोहाबाद की तरफ रवाना कर दिए गए.  जे.पी. सहित तमाम विपक्षी नेता गिरफ्तार कर लिये गए. बालासाहब देवरस 30 जून की सुबह नागपुर पहुँचे. उन्हें वहां गिरफ्तार किया गया. वहाँ से वे पुणे लाए गए और यरवदा जेल में उन्हें बंदी के रूप में रखा गया. उसके बाद 4 जुलाई, 1975 को इंदिरा गांधी की सरकार ने संघ सहित 27 संगठनों पर प्रतिबंध लगाने का ऐलान किया.

बालासाहब देवरस ने संघ पर प्रतिबंध को एक अवसर माना. जेल से उनका मौखिक संदेश था कि जो पहले हासिल नहीं किया जा सका, उसका अवसर आ गया है. वे अपने सहयोगियों, स्वयंसेवकों और सामान्य नागरिकों को एक या दूसरे माध्यमों से सूचनाएँ भिजवाते थे कि आपातकाल लंबा नहीं चलेगा. जीत हमारी होगी, सिर्फ धैर्य रखना है, साहसपूर्वक परिस्थितियों का सामना करना है. उसी में से रास्ता निकलेगा. उसी रणनीति में जब-जब उचित अवसर उन्होंने देखा, तब-तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखा. सलाह दी कि संघ से प्रतिबंध उठा लीजिए.
 
छात्र आंदोलनों से ही शुरू हुई सम्पूर्ण क्रांति, गुजरात में था ‘मोदी फैक्टर’ भी

बीस दिसम्बर 1973 की तारीख थी, मोरबी के एलडी इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों को जैसे ही पता चला कि हॉस्टल फूड फीस में 20 फीसदी की बढ़ोत्तरी कर दी गई है, वो भड़क उठे. उन्होंने गलत तरीके से की गई इस वृद्धि के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. महंगाई से बेहाल गुजरातियों ने उनको जमकर समर्थन दिया, उनको समर्थन मिलता देखकर पूरे गुजरात के छात्र एकजुट होने लगे, मंहगाई और भृष्टाचार के खिलाफ हर कॉलेज में विरोध प्रदर्शन होने लगे। इस आंदोलन को नाम दे दिया गया नवनिर्माण आंदोलन, कांग्रेस सरकार के विरोधी कई संगठनों ने स्टूडेंट्स का साथ देना शुरू किया. जिसमें शामिल थे कांग्रेस (ओ) के मोरारजी देसाई और जनसंघ व अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भी, मंहगाई के खिलाफ कई प्रदर्शनों में भागे ले चुके नरेन्द्र मोदी भी जुड़ गए.

नरेन्द्र मोदी की उम्र उस वक्त कुल 24 साल थी, वो घर छोड़कर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रचारक बन चुके थे. एबीवीपी जब उस नवनिर्माण आंदोलन से जुड़ा तो नरेन्द्र मोदी को भी जिम्मेदारियां दे दी गईं, कई जिलों में ये प्रदर्शन प्रभावपूर्ण हो, छात्रों की भीड़ जुटे, उनके आने, जाने और खाने का ठीक से प्रबंध हो. जैसे कामों से लेकर उनके मन में लक्ष्य प्राप्ति तक ये गुस्सा बरकरार रहे, इसके लिए जोश बनाए रखने का काम भी मोदी का था. कार्यकर्ताओं के साथ पोस्टर बनाने, चिपकाने, घेराव-प्रदर्शन का आयोजन करने, मीडिया में खबर छपवाने, जेपी जैसे बड़े नेताओं के आगमन पर उनसे स्टूडेंट्स की मुलाकात करवाने आदि कई जिम्मेदारियां मोदी के सर पर थीं.

1971 के चुनाव में इंदिरा ने गरीबी हटाओ का जो नारा दिया था, दो साल बाद भी उसका कुछ असर नहीं था, ऐसे में जब मुख्यमंत्री स्तर तक जब करप्शन की पहुंच हो गई तो लोगों का भरोसा उठ गया. करप्शन में आगोश डूबे नेता मंहगाई नहीं रोक पा रहे थे, ऐसे माहौल में छात्रों के आंदोलन को जनता का जमकर समर्थन मिला. 7 जनवरी 1974 से ही कई शहरों में स्टूडेंट्स अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठ गए थे, आलम ये हुआ कि 10 जनवरी को एक विशाल हड़ताल जब बुलाई गई तो अहमदाबाद और वडोदरा में ये हिंसक रूप में बदल गई, कई राशन की दुकानों पर तोड़फोड़ की गई, कई फैक्ट्रियों के मजदूर भी स्टूडेंट्स के साथ हड़ताल पर बैठ गए. हर कोई चिमनभाई पटेल से इस्तीफा मांग रहा था. उधर बिहार से जय प्रकाश नारायण ने भी आंदोलन का समर्थन कर दिया, मोराराजी देसाई और जनसंघ पहले से ही समर्थन में थे. 25 जनवरी को फिर से पूरे गुजरात में हड़ताल, कॉलेज-फैक्ट्रियां बंद, विरोध प्रदर्शन का आव्हान किया गया. कुल 33 शहरों-कस्बों में पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच जमकर झड़प हुई, दोनों तरफ से पत्थरबाजी-लाठीचार्ज हुआ, हजारों छात्र और सैकड़ों पुलिसवाले घायल हो गए. सरकार ने 44 शहरों-कस्बों में अनिश्चितकालीन कर्फ्यू लगा दिया, इतना ही नहीं 28 जनवरी को चिमनभाई पटेल ने मदद के लिए अहमदाबाद में सेना बुला ली.

जब काफी दवाब पड़ा और देश विदेश की मीडिया के मानचित्र पर उन दिनों गुजरात आ गया तो इंदिरा गांधी ने चिमन भाई पटेल से इस्तीफा ले लिया. तारीख थी 9 फरवरी और उसके दो दिन बाद ही जेपी गुजरात आए और आंदोलन के नेताओं से मुलाकात की. ये पहला मास आंदोलन था जिससे नरेन्द्र मोदी जुड़े और उन्हें इस आंदोलन के समन्वय के लिए बनाई गई लोक संघर्ष समिति का महासचिव बनाया गया था. इधर आंदोलन में करीब 100 लोग मारे जा चुके थे, तीन हजार घायल हो चुके थे और करीब आठ हजार लोगों को जेलों में डाला जा चुका था. 12 मार्च को मोरारजी देसाई अनिश्चित काल के लिए भूख हड़ताल पर बैठ गए तब इंदिरा ने दवाब में आकर गुजरात में विधानसभा भंग की, 16 मार्च को उसके बाद मोरारजी ने भूख हड़ताल खत्म की. आंदोलनकारियों ने नए चुनावों की मांग की और फिर से आंदोलन शुरू कर दिया, समर्थन में मोराराजी फिर 6 अप्रैल से भूख हड़ताल पर बैठ गए, वो तभी उठे जब इंदिरा ने फिर से चुनाव करवाने का ऐलान कर दिया. 10 जून 1974 को गुजरात में फिर से चुनाव करवाए गए. यही आग बाद में बिहार पहुंची.

बिहार में पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के सम्मेलन में 18 फरवरी 1974 को बिहार छात्र संघर्ष समिति (BCSS) का गठन हुआ. ABVP ने छात्रों को जुटाने और विरोधी नेटवर्क से जोड़ने में प्रमुख भूमिका निभाई. शुरुआती मांगें शिक्षा सुधार, हॉस्टल में भोजन और राज्य सरकार के इस्तीफे पर केंद्रित थीं. समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण (जेपी) को BCSS नेताओं ने 30 मार्च 1974 को गुजरात आंदोलन देखने के बाद नेतृत्व के लिए आमंत्रित किया. उन्होंने 1 अप्रैल को सहमति दी और 5 जून 1974 को पटना में विशाल रैली में संपूर्ण क्रांति की घोषणा की. जेपी ने RSS को आंदोलन की रीढ़ कहा और "अगर RSS फासीवादी है तो मैं भी हूं" जैसे बयान दिए. समाजवादी और कम्युनिस्टों की कम भागीदारी के कारण RSS का कैडर-आधारित समर्थन और ABVP का छात्र जुटाव महत्वपूर्ण था.
 
जब चुनाव का ऐलान करके इंदिरा गांधी ने संघ के पास भेजा अपना दूत

बालासाहब देवरस के निजी सचिव बाबूराव चौथाई वाले अपने एक लेख में लिखते हैं कि, “परिस्थिति की गंभीरता ध्यान में लेकर श्रीमती गांधी ने एक कुटिल दांव खेलने का प्रयत्न किया, प्रधानमंत्री कार्यालय में से एक विश्वस्त जिम्मेदार और चर्चा करने में कुशल शासकीय सचिव को संघ की भूमिगत नेताओं से मिलने को भेजा गया. यह भी भेंट दिल्ली में हुई संघ की ओर से लाला हंसराज गुप्ता, श्री बापूवराव मोघे और श्री ब्रह्मदेव जी उपस्थित थे. उस सचिव ने श्रीमती गांधी का सुझाव सामने रखा. "संघ के लगभग सभी स्वयंसेवकों को बंदी बनाया है. राजकीय पक्षों के कार्यकर्ता मुक्त हुए हो तो भी संघ के स्वयंसेवकों को छोड़ने का शासन का विचार नहीं है. बाहर रहे हुए उनके परिवार जनों के सामने अनेक जटिल प्रश्न खड़े हैं. उनकी आर्थिक अवस्था दयनीय है. जनता भी खिलाफ है. अतः बाहर के परिवार जनों तथा कारावास भुगत रहे स्वयंसेवकों का दम उखड़ गया है. कांग्रेस चुनाव जीतेगी ही, उसके पश्चात् संघ के नेता और स्वयंसेवक कारागारों में पड़े रहेंगे. सब भूमिगत नेताओं को भी पकड़ कर कारागृह में ठूंस दिया जाएगा. इस संभाव्य भीषण आपदा से बाहर निकलने का एक ही मार्ग है. संघ को जनता पक्ष से संबंध विच्छेद कर चुनाव प्रक्रिया से हट जाना चाहिए. ऐसा आश्वासन संघ के अधिकारियों ने दिया तो कारावास में रखे सब नेता और कार्यकर्ताओं को छोड़ दिया जायेगा और चुनाव के बाद संघ पर से प्रतिबंध हटाना संभव होगा" श्रीमती गांधी के अनुभवों के अनुसार संघ का नेतृत्व उनको अपरिपक्व, देश काल परिस्थिति का ज्ञान न रखनेवाला, कच्छे तथा जनमानस में स्थान न रखनेवाला लगता था. परंतु भूमिगत नेताओं ने श्रीमती गांधी को उस सचिव के हाथों जबाब भेजा कि "आपातकाल के बाद तुरन्त ही बालासाहब ने पत्र भेजकर सहकार्य का हाथ बढाया था. उस समय आपने ध्यान नहीं दिया. अब समय निकल गया है. अब सब बातों का निर्णय चुनाव की लड़ाई में ही लगेगा।"
 
आपातकाल के दौरान सत्याग्रह करने वाले कुल 1,30,000 सत्याग्रहियों में से 1,00,000 से अधिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के थे. मीसा के तहत कैद 30,000 लोगों में से 25,000 से अधिक संघ के स्वयंसेवक थे, आपातकाल के दौरान, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करीबन 100 कार्यकर्ताओं की जान चली गई, गणतंत्र को स्थापित करने के लिए, जिनमें से अधिकांश कैद में और कुछ बाहर थे. संघ की अखिल भारतीय व्यवस्थापन टीम के प्रमुख श्री पांडुरंग क्षीरसागर उनमें से एक थे. आपातकाल के खिलाफ संघ का विरोध समाचार पत्रों और पत्रिकाओं, मंचों, डाक सेवा और निर्वाचित विधायिकाओं सहित संचार के सभी रूपों को रोक दिया गया था. अपनी गिरफ्तारी से पहले, जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता श्री नानाजी देशमुख को लोक संघर्ष समिति आंदोलन सौंपा था. जब नानाजी देशमुख को गिरफ्तार किया गया, तो नेतृत्व सर्वसम्मति से श्री सुंदर सिंह भंडारी को दिया गया. ऐसे ही क्रम चलता रहा.

पिछली कहानी: बालासाहब ना होते तो दशकों पहले ही गुमनामी में चले जाते गोविंदाचार्य 

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