मनमोहन सिंह को कैम्ब्रिज में आर्थिक तंगी से गुजरना पड़ा, कई बार चॉकलेट खाकर करते थे गुजारा

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में 1950 के दशक के मध्य में स्कॉलरशिप पर पढ़ाई करते समय मनमोहन सिंह को भारी आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता था. कई बार ऐसा भी हुआ जब वह भोजन नहीं कर सके या कैडबरी की छह पेंस की चॉकलेट खाकर गुजारा करना पड़ा.

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मनमोहन सिंह- फाइल फोटो मनमोहन सिंह- फाइल फोटो

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 28 दिसंबर 2024,
  • अपडेटेड 9:00 AM IST

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में 1950 के दशक के मध्य में स्कॉलरशिप पर पढ़ाई करते समय मनमोहन सिंह को भारी आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता था. कई बार ऐसा भी हुआ जब वह भोजन नहीं कर सके या कैडबरी की छह पेंस की चॉकलेट खाकर गुजारा करना पड़ा. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह ने अपनी किताब में इसका जिक्र किया है. सिंह ने 1957 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में फर्स्ट क्लास की ऑनर्स डिग्री हासिल की थी.

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मुश्किल में बीता था कैम्ब्रिज में जीवन
दमन सिंह ने 2014 में हार्पर कॉलिन्स से छपी किताब 'स्ट्रिक्टली पर्सनल: मनमोहन एंड गुरशरण' में अपने माता-पिता की कहानी बताई है. दमन ने अपनी किताब में यह भी बताया कि उनके पिता गांव में गुजारे गए अपने शुरुआती दिनों के कठिन जीवन के बारे में भी अक्सर बात करते थे. सिंह का जन्म पंजाब प्रांत के पश्चिमी क्षेत्र गाह में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है.

दमन ने याद किया कि जब एक बार उनकी बहन किकी ने पिता से पूछा कि क्या वह गाह वापस जाना चाहते हैं, तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया, 'नहीं, वास्तव में नहीं. वहीं पर मेरे दादा की हत्या हुई थी.'

कैम्ब्रिज में अपने पिता के दिनों के बारे में लिखते हुए दमन ने कहा कि पैसा ही एकमात्र समस्या थी जो मनमोहन सिंह को परेशान करती थी, क्योंकि उनके ट्यूशन और रहने का खर्च लगभग 600 पाउंड प्रति वर्ष था, जबकि पंजाब विश्वविद्यालय की छात्रवृत्ति से उन्हें लगभग 160 पाउंड मिलते थे.

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पूरी जिंदगी में कभी पैसे उधार नहीं लिए
उन्होंने लिखा, 'बाकी के पैसे के लिए सिंह को अपने पिता पर निर्भर रहना पड़ता था. मनमोहन बहुत ही किफायत से जीवन जीते थे. कैंटीन में सब्सिडी वाला भोजन दो शिलिंग छह पेंस में तुलनात्मक तौर पर सस्ता था. वह कभी बाहर खाना नहीं खाते थे.' इसके बावजूद अगर घर से पैसे कम पड़ जाते या समय पर नहीं आते तो वह मुश्किल में पड़ जाते थे. किताब में कहा गया है, 'जब ऐसा होता था, तो सिंह कई बार खाना नहीं खाते थे या कैडबरी की छह पेंस की चॉकलेट खाकर गुजारा करते थे. उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी में कभी पैसे उधार नहीं लिए थे.'

दमन ने यह भी बताया है कि कैसे उनके पिता पारिवारिक समारोहों और पिकनिक पर गीत गाते थे. उन्होंने लिखा, 'जब भी हम पिकनिक पर जाते थे, लोग गाने गाते थे. सिंह को कुछ गाने आते थे. वह 'लगता नहीं है जी मेरा' और अमृता प्रीतम की कविता 'आंखां वारिस शाह नू, किते कब्रां विचों बोल' सुनाते थे.'

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