वक्फ संशोधन एक्ट को लेकर देश भर में सियासी घमासान तेज हो गया है. सोमवार को जम्मू-कश्मीर विधानसभा में विधायकों ने इस संशोधन के खिलाफ प्रस्ताव लाने की मांग को लेकर जमकर हंगामा किया. वहीं, तमिलनाडु विधानसभा ने इस विधेयक को पेश किए जाने से ठीक पहले एक प्रस्ताव पारित कर इसे वापस लेने की मांग की और दावा किया कि यह विधेयक "राजनीतिक हस्तक्षेप को बढ़ावा देने और धार्मिक स्वतंत्रता को सीमित करने की कोशिश" है. जम्मू-कश्मीर में विपक्षी नेताओं ने राज्य सरकार की कड़ी आलोचना की है और विधानसभा में इस मुद्दे पर चर्चा की मांग की है.
जम्मू-कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (JKPDP) की नेता महबूबा मुफ्ती ने सोशल मीडिया पर अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए कहा, "यह बेहद निराशाजनक है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा के स्पीकर ने वक्फ विधेयक पर प्रस्ताव को खारिज कर दिया. मजबूत जनादेश हासिल करने के बावजूद सरकार भाजपा के मुस्लिम-विरोधी एजेंडे के आगे पूरी तरह झुक गई है और दोनों पक्षों को खुश करने की कोशिश कर रही है. नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC) को तमिलनाडु सरकार से सीख लेनी चाहिए, जिसने वक्फ विधेयक का कड़ा विरोध किया है. जम्मू-कश्मीर, जो देश का एकमात्र मुस्लिम-बहुल क्षेत्र है, वहां एक कथित जन-केंद्रित सरकार का इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा तक न करना चिंताजनक है."
विधानसभा प्रस्ताव क्या होता है?
लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर विधानसभा प्रस्ताव क्या होता है और इसका उस कानून पर क्या असर पड़ता है, जो संसद के दोनों सदनों से पारित होकर राष्ट्रपति की मंजूरी भी हासिल कर चुका है? अंग्रेजी कानून के अनुसार, "प्रस्ताव" वह तरीका है जिसके जरिए सदन अपनी राय और उद्देश्यों को जाहिर करता है. किसी राज्य विधानसभा में किसी विषय को चर्चा के लिए पेश करने की व्यवस्था आमतौर पर उस विधानसभा के प्रक्रिया नियमों (Rules of Procedure) के तहत होती है, जिसमें स्पीकर को सूचना या प्रस्ताव के जरिए चर्चा के लिए मंजूरी लेने का प्रावधान होता है. उदाहरण के लिए, दिल्ली विधानसभा के नियम 107 के अनुसार, सार्वजनिक हित के किसी भी मामले पर चर्चा तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि स्पीकर की सहमति से कोई प्रस्ताव पेश न किया जाए. इसी तरह, पश्चिम बंगाल विधानसभा के नियम 185 में भी ऐसा ही प्रावधान है.
कानूनी सिद्धांत और प्रथा के अनुसार, विधानसभा में पारित होने वाले प्रस्ताव तीन प्रकार के हो सकते हैं. यह वर्गीकरण 1962 में कलकत्ता हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पीबी मुखर्जी के एक अध्ययन में विस्तार से बताया गया था. इनके मुताबिक,
कानूनी प्रभाव वाले प्रस्ताव: ये वे प्रस्ताव हैं जिन्हें संविधान या संसद व राज्य विधायिका द्वारा पारित कानूनों ने विशिष्ट परिणामों से जोड़ा है. मिसाल के तौर पर, राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए प्रस्ताव या संविधान संशोधन (अनुच्छेद 368) को राज्य विधायिका द्वारा अनुमोदन जैसे प्रस्ताव कानूनी प्रभाव रखते हैं.
अर्ध-कानूनी प्रभाव वाले प्रस्ताव: ये प्रस्ताव सदन की कार्यवाही को नियंत्रित करने से संबंधित होते हैं. जैसे, सदन द्वारा अपनी प्रक्रिया और व्यवसाय संचालन के नियमों पर प्रस्ताव. ये कानून नहीं होते, लेकिन सदन पर बाध्यकारी प्रभाव डालते हैं.
केवल राय व्यक्त करने वाले प्रस्ताव: ये वे प्रस्ताव हैं जो सार्वजनिक मुद्दों पर चर्चा से उत्पन्न होते हैं और इनका कोई कानूनी प्रभाव नहीं होता. इनका राजनीतिक असर हो सकता है या ये सदन के निर्वाचित प्रतिनिधियों की राजनीतिक राय को दर्शाते हैं.
क्या पहले भी उठा है ऐसा विवाद?
इससे पहले नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के विवाद के दौरान कई राज्य विधानसभाओं ने इसके खिलाफ प्रस्ताव पारित किए थे. इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका (PIL) दायर की गई थी. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) जस्टिस एसए बोबडे ने इस मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था और याचिकाकर्ता के वकील को "और शोध करने" की सलाह दी थी. जस्टिस बोबडे ने कहा था, "ऐसा प्रस्ताव क्यों नहीं पारित हो सकता? यह केरल विधानसभा के सदस्यों की राय है. उन्होंने लोगों से कानून की अवज्ञा करने को नहीं कहा.
उन्होंने केवल संसद से कानून को निरस्त करने का अनुरोध किया है." कोर्ट ने यह भी कहा था, "यह केवल केरल विधानसभा की राय है, जिसका कोई कानूनी बल नहीं है. क्या उनके पास अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार नहीं है? वे किसी कानून की अवज्ञा नहीं कर रहे." यह याचिका अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
कानूनी विशेषज्ञ क्या कहते हैं?
वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नफाडे ने 'इंडिया टुडे' से बातचीत में कहा, "लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विधानसभा को कोई भी प्रस्ताव पारित करने का अधिकार है. यह केवल उनकी राय को सामने रखता है. प्रतिनिधियों के तौर पर उनके पास किसी मुद्दे पर चर्चा करने का हक है, लेकिन इसका कोई कानूनी प्रभाव नहीं होता." वहीं, वरिष्ठ अधिवक्ता महालक्ष्मी पवानी ने कहा, "राज्य विधानसभाएं केंद्रीय कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पारित कर अपना विरोध जता सकती हैं, लेकिन वे इन कानूनों के लागू होने को कानूनी तौर पर रोक नहीं सकतीं. भारतीय संविधान राज्यों को राज्य सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार देता है, लेकिन संघ सूची के तहत बने केंद्रीय कानूनों को प्राथमिकता मिलती है."
पवानी ने आगे कहा, "हालांकि राज्य विधानसभाएं केंद्रीय कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पारित कर सकती हैं, लेकिन इन प्रस्तावों की कोई कानूनी मान्यता नहीं होती और ये केंद्रीय कानूनों को लागू होने से नहीं रोक सकते. ये प्रस्ताव राज्यों के लिए अपनी राय व्यक्त करने और जनमत या केंद्रीय नीतियों को प्रभावित करने का जरिया हैं."
वक्फ संशोधन का क्या होगा?
वक्फ संशोधन पर सियासी तकरार जारी है, लेकिन एक बार राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद यह विधेयक कानून बन चुका है और गजट में प्रकाशन के बाद इसे लागू करना होगा, बशर्ते सुप्रीम कोर्ट का कोई आदेश न आए. इस संशोधन के खिलाफ कई याचिकाएं दायर की गई हैं, जिनमें AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी, कांग्रेस नेता मोहम्मद जावेद, AAP नेता अमानतुल्लाह खान और अन्य शामिल हैं. IUML, SDPI, RJD और DMK ने भी इस मामले में याचिका दायर करने की घोषणा की है.
वक्फ संशोधन अधिनियम को लेकर देश भर में बहस छिड़ी हुई है. राज्य विधानसभाओं के प्रस्ताव इस मुद्दे पर जनप्रतिनिधियों की राय को तो सामने लाते हैं, लेकिन कानूनी तौर पर ये केंद्रीय कानून को प्रभावित नहीं कर सकते. अब सबकी नजरें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं, जहां इस कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई होनी बाकी है.
अनीषा माथुर