380 दिन गुजरे...और समय आ गया है कि सड़कों पर पसरे गृहस्थी के तिनके-तिनके को अब समेट लिया जाए. एक साल की खट्टी-मीठी यादों की तह लगाई जाए और एक बार फिर चला जाए उस खेत की ओर जहां हमारी ताजगी भरी सुबह होती है, जहां दोपहरी में हमारा पसीना छलछलाता है और शाम तक जिस खेत की मिट्टी में थककर हम निढ़ाल और निहाल हो जाते हैं.
किसान आंदोलन खत्म हो गया है, चलिए मुल्तवी ही कहते हैं. मगर भरोसा है कि अब फिर कभी सवाल हमारी रोटी का न होगा. दिल्ली की कंक्रीट की इन सड़कों पर फिर कभी हमें अपना पिंड नहीं बसाना पड़ेगा. आज खुला आसमान है. तिरंगे की मजबूत पकड़ है. ये तिरंगा ही तो हमारा कवच रहा. हम किसानों को ताने दिए गए, उलाहने दिए गए. हम कम बोले, मजबूती से इस ध्वज को थामे रहे. आज तपस्या रंग लाई.
(कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद गाजीपुर में धरनास्थल के पास एक जीप पर तिरंगा लिए एक युवा आंदोलनकारी.)
विजुअल रिसर्च: निश्वान रसूल
26 नवंबर 2020 से लेकर 11 दिसंबर 2021...एक साल से ज्यादा हो गया. जब हम किसानों को दिल्ली कूच करने के लिए कहा गया तो, एकबारगी तो समझ में न आया. कहां रहेंगे, क्या होगा, कैसा आंदोलन? लेकिन हम इतना समझ गए थे कि बात हमारी खेती की है, जिसकी बदौलत हमारा घर-संसार चलता है. जब चीजें समझ आई तो निकल लिए तंबू-तबेले के साथ पंजाब-हरियाणा और उत्तर प्रदेश से. अपनी-अपनी ओर से आए और अपनी-अपनी सीमाओं पर बैठ गए. गाजीपुर, सिंघु और कोंडली में. सच कहूं तो जब घर से निकले तो लगा तो ये दो-चार या सप्ताह दिन की बात है. मगर लड़ाई लंबी थी. आज इस सड़क पर हमारी दूसरी सर्दी है.
(गाजीपुर बॉर्डर पर सड़क के किनारे किसानों के तंबू, पिछले एक साल से गाजीपुर किसान आंदोलन का केंद्र रहा)
हम किसान...सख्तजान आखिर जम गए. इसी सड़क को हमने संवार दिया. ये हमारी हक की लड़ाई थी, हमनें यहीं पर छप्पर गाड़ दिया. व्यवस्था और इंतजाम हम लेकर चलते हैं. पंजाब के पसीने ने सड़क पर रसोई जमा दी. चूल्हा जल गया. गुरु की कृपा थी, लंगर का सहारा था. दिल्ली की सीमाओं पर एक आंदोलन का बीज पड़ चुका था. ये आंदोलन देश में खेती-किसानी की परिभाषा बदलने वाला था.
(किसान आंदोलन के एक साल पूरे होने पर सिंघु बॉर्डर पर लंगर के लिए सब्जी बनाता एक किसान)
खेतों की हरियाली के झोंके खाने वाला किसान अब दिल्ली की धूल भरी और कार्बन मोनो-ऑक्साइड उगलती हुई कारों के धुएं खाने लगा. हमारे हौसले और सब्र का इम्तिहान था. हमारी खेतें बुआई का इंतजार कर रही थीं, ट्रैक्टर खड़े रह गए. पहले दिन, फिर सप्ताह और अब महीने दर महीने गुजर रहे थे. राउंड दर राउंड बातें हो रही थी. नतीजा कुछ नहीं निकल रहा था. हताशा हमें घेर रही थी. समझ में नहीं आ रहा था अपने नेताओं पर भरोसा करें या सरकार के बयानों पर.
(गाजीपुर बॉर्डर पर तंबु बनाने के लिए लाए गए प्लास्टिक की शीट को समेटता एक युवक)
दिल्ली में हम किसानों ने राजनीति का हाव-भाव देखा और इसके नकाबों को हटाना सीखा. सियासत ने सब्र करना सिखा दिया. कभी हमें ठगे जाने का भाव होता तो कभी सरकार से गहरी खीज होती. पंजाब हरियाणा से पर पूरे जत्थे के साथ आए थे, युवा, बुजुर्ग, महिलाएं. बिना नतीजों के तो लौटने का सवाल ही नहीं होता था. सर्दी गुजरने ही कोरोना का हमला हो गया. हमारा मसला सरकार की प्राथमिकता सूची से बाहर हो गया. हमारा आंदोलन तो जारी रहा, लेकिन हमारे चेहरे उतर जाते. बांस और तिरपाल के तंबुओं में हम अनिश्चित भविष्य की कल्पना करते.
(9 दिसंबर को पीएम मोदी द्वारा कृषि कानून वापस लिए जाने की घोषणा के बाद तंबू उखाड़ता एक किसान )
लगभग 13 महीने...साढ़े तीन सौ से ज्यादा दिन और रातें. ये वो समय था जिसे किसानों ने सड़क पर गुजारा. कोरोना का साया, चिलचिलाती धूप और इस बार हम पर विशेष कृपा बरसाने वाली दिल्ली की बारिश. हम सब झेल गए. ठंड में सड़कों का बिछावन एकदम ठंडा हो जाता...कोहरा पानी की बूंद बन तंबू से टपकने लगता. और नीचे सोया किसान अपने कंबल में और भी सिकुड़ और सिमट जाता. सुबह कभी-कभी अगर हम दिल्ली की गलियों में टहलने निकलते तो कोने की कोठी से आ रही गर्म-गर्म रोटी की खुशबू हमें अपने गेंहू के खेत की याद दिला देती.
गर्मियों में तो हमारा हर कैंप सूरज की तेज रोशनी से भभक उठता. कुछ तगड़े किसान तो अपने डेरे में एसी का भी इंतजाम कर रखे थे. मगर अधिकतर ने पंखे और कूलर से ही गर्मी को मात दिया.
(गाजीपुर बॉर्डर पर अपने गद्दे, कूलर को समेटता एक किसान)
मगर अब जब कि दिल्ली में प्रचंड ठंड की दस्तक वो उससे पहले ही यहां से अपना डेरा समेटने की अच्छी खबर है. तंबू से तिरपाल हटाये जा रहे हैं, प्लास्टिक की शीट्स खोली जा रही है. लोहे से तैयार ये ठिकान एक बार फिर सड़क बनने को तैयार है. लेकिन आंदोलन, बदलाव और सामूहिक ताकत की जो कहानी यहां लिखी गई उसका जिक्र हर लोकतांत्रिक आंदोलन के दौरान किया जाएगा.
(सिंघु बॉर्डर पर अपना पंखा ले जाता एक प्रदर्शनकारी किसान)
यूं तो दिल्ली में सियासत के चुनिंदा केंद्र और चुने हुए चेहरे हैं. लेकिन हमारे आंदोलन ने जिज्ञासा के केंद्र को लूटियंस जोन से दिल्ली की परिधि पर शिफ्ट कर दिया. सिंघु और गाजी बॉर्डर एक साल तक लोगों के लिए कौतुहल का केंद्र रहा. किसान देश में जब-तब मुखर जरूर रहे हैं लेकिन चौधरी चरण सिंह और महेंद्र टिकैत के बाद से किसान कभी इतने संगठित रूप से सड़क पर नहीं आए थे, न ही उनकी आवाज इतनी गंभीरता से सुनी गई. लेकिन इस आंदोलन ने एक बार फिर किसानों की संगठित ताकत का एहसास सरकार को करा दिया.
(सिंघु बॉर्डर पर किसानों का मोर्चा एक साल तक जमा रहा)
सिंघु बॉर्डर पर जहां पंजाब की संस्कृति के रंग देखने को मिलते तो वहीं गाजीपुर में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान अपनी पारंपरिक वेशभूषा और संस्कृति में नजर आते. किसान नेता महेंद्र टिकैत की विरासत को किसानों ने अपनी शक्ति बना ली. राकेश टिकैत इस आंदोलन में किसान राजनीति का बड़ा चेहरा बनकर निकले.
(गाजीपुर बॉर्डर पर हुक्का पीता एक किसान)
किसान जहां अपनी रणनीति में व्यस्त थे, वहीं सरकार और एजेंसियों का अपना तरीका था. आंदोलन के दौरान जवान और किसान के बीच कई बार टकराव की नौबत आई. आखिर भारत में जवान का ही परिवार तो किसान है और किसान का बेटा ही जवान है. कई नाजुक मोड़ आए, लेकिन आंदोलन चलता रहा. गाजीपुर में जहां से किसानों का आंदोलन संचालित हो रहा था वहां की किलेबंदी कर दी गई. कंटीले तारों से सड़कों को ऐसे घेरा गया था जैसे दो पक्षों ने अपनी-अपनी सरहद का ऐलान कर दिया हो.
(गाजीपुर में सड़क पर पुलिस की बैरिकेडिंग, साथ में सुरक्षा के लिए मौजूद जवान)
अलमस्ती और बेफिक्री पंजाबियों की पहचान रही है. किसान आंदोलन के दौरान कई ऐसे मौके आए जब माहौल तनावपूर्ण हो गया. लेकिन हल्के-फुल्के क्षणों में ये किसान दिल्ली में भी पूरे पंजाबी नजर आए. युवा हो या बुजर्ग वही अंदाज दिखा. जिसके लिए पंजाबी जाना जाता है. पंजाब तनाव के पलों को भूल कर मुश्किलों में मुस्कुराना जानता है.
(सिंघु बॉर्डर पर युवा किसानों का एक ग्रुप फुर्सत के पलों में)
इन धरनास्थलों पर पिछले एक साल में एक समानांतर अर्थव्यवस्था विकसित हो गई. सड़कों पर रोजमर्रा की जरूरतों की कई दुकानें खुल गई. किसान आंदोलन में शामिल युवा-बुजर्ग यहां अपनी जरूरत पूरी करने लगे. आंदोलन की वजह से कई रास्ते बंद होने की वजह से कुछ लोगों को नुकसान हुआ, तो नए रोजगार पनपे भी.
(गाजीपुर बॉर्डर पर शेविंग करवाता एक प्रदर्शनकारी)
किसान आंदोलन में पंजाब से आए इन किसानों ने साबित कर दिया कि अगर वे खेतों में अनाज उगा सकता हैं, तो सड़क पर उतरकर अपने हक को भी हासिल कर सकते हैं, चाहें इसकी कीमत कुछ भी क्यों न हो? इसलिए इस आंदोलन में जितने युवा और जवान किसान थे. उतनी ही संख्या लगभग बुजुर्ग किसानों की थी. पंजाब के किसान जुगाड़ में नहीं परफेक्शन में विश्वास करते हैं. इसलिए आंदोलन को लंबी खींचता देंख सिंघ बॉर्डर पर पक्का इंतजाम कर डाला है. खाट हर किसान के आंगन का जरूरी हिस्सा है. सिंघु बॉर्डर में किसान पंजाब से खाट लेकर आ गए. बांस की कमाची और लोहे द्वारा बनाया गया घर किसी पक्का इंतजाम से कम नहीं है.
(सिंघु बॉर्डर में अपना सामान समेटते किसान)
एक युवा किसान को अब उम्मीद है कि उसकी किसानी सुरक्षित है. इसी के साथ चंद बीघे जमीन के मालिक इस युवक को अब उम्मीद है कि जमीन के उस टुकड़े में उसका भविष्य भी सुरक्षित है. अब अपना सामान बंध गया है. यहां से विदाई की बेला है. पीछे कृषि कानून हटाने की मांग वाला पोस्टर अभी भी चिपका हुआ है. इसमें किसानों की ओर से देश को भरोसा है कि हम आपको भोजन देते हैं, कॉरपोरेट की चक्की आपका क्या कर सकती है इसे समझिए. अब युवक के चेहरे पर संतोष की झलक है.
(किसान आंदोलन समाप्ति के बाद फोन पर बात करता हुआ एक सिख युवक)
विदाई से पहले अब जश्न का समय है. भांगड़ा के लिए ये वक्त बुरा नही हैं. शाम को आज आंदोलनकारी किसान जश्न मनाएंगे. एक साल के कठिन आंदोलन के बाद विजयी किसान आज घर लौट रहे हैं. इन्होंने संघर्ष के दम पर सिस्टम में अपने हक और हिस्से को सुरक्षित रखने की मुहिम में जीत पाई है. सेलिब्रेशन का ये दौर चलते रहना चाहिए.
(संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा आंदोलन समाप्ति की घोषणा के बाद सिंघु बार्डर पर जश्न मनाते किसान)
विजुअल रिसर्च: निश्वान रसूल