बिहार की सियासत में नीतीश कुमार से नाता तोड़कर अपनी अलग सियासी राह तलाशने निकले उपेंद्र कुशवाहा ने तमाम राजनीतिक फॉर्मूले आजमाए, लेकिन सफल नहीं हो सके. वहीं, 15 साल के बिहार की राजनीतिक धुरी पर टिके हुए नीतीश कुमार सत्ता में वापसी करने में सफल रहे, लेकिन जेडीयू आज तीसरे नंबर की पार्टी रह गई है. ऐसे में अब दोनों नेताओं की सियासी मजबूरियां एक बार फिर उन्हें करीब ले आई हैं. उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी पार्टी आरएलएसपी का जेडीयू में विलय कर दिया है, जिसके बदले नीतीश ने उन्हें पार्टी संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष की अहम जिम्मेदारी सौंपी है.
जेडीयू का दामन थामने के बाद उपेंद्र कुशवाहा ने कहा कि मुझसे पूछा गया कि जेडीयू में जा रहे हैं, तो क्या तय हुआ है? इस घर में मुझे कुछ भी तय करने की जरूरत नहीं है. मैं बिना किसी शर्त, बिना किसी डिमांड. नीतीश कुमार की अगुआई में सेवा करने के लिए वापस आया हूं. मैंने अपने राजनीतिक जीवन में ढेरों उतार-चढ़ाव देखे हैं, लेकिन अब हर तरह का उतार-चढ़ाव नीतीशजी के नेतृत्व में ही देखना है. यह तय रहा..'
वहीं, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आरएलएसी के जेडीयू में विलय के मौक़े पर कहा कि उपेंद्रजी ने तो कह दिया कि वे साथ आकर काम करेंगे और उनकी कोई ख्वाहिश नहीं, लेकिन हमलोग तो सोचेंगे न? आपकी भी प्रतिष्ठा है, आपका भी सम्मान है, आपकी भी राजनीतिक हैसियत है. उपेंद्र कुशवाहा तत्काल प्रभाव से जेडीयू के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष होंगे. आरसीपी सिंह ने बकायदा पत्र भी तैयार कर दिया है.
कुशवाहा और नीतीश का साथ
बिहार सियासत में पिछले डेढ़ दशक से सत्ता में बने हुए नीतीश कुमार अपने तमाम विरोधियों को लगातार पटखनी देते रहे हैं. इस बीच में उनके कई साथी आए और चले गए. कई साथी ही दुश्मन बन गए और विपक्ष में चले गए. इसी फेहरिस्त में उपेंद्र कुशवाहा का नाम भी है. उपेंद्र कुशवाहा को पहली दफा नीतीश कुमार ने ही विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया था, लेकिन बाद में उन्होंने न सिर्फ नीतीश से नाता तोड़ा बल्कि वो सियासी तौर पर एक दूसरे के दुश्मन भी बन बैठे थे.
पिछले तीन चुनाव से बिहार में अलग-अलग गठबंधन के जरिए अपनी सियासी ताकत को भांपने की कोशिश में लगे उपेंद्र कुशवाहा कोई करिश्मा नहीं दिखा सके हैं. जेडीयू से अलग होकर कुशवाहा ने आरएलएसपी गठन किया और 2014 में बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़े और तीन सीटें जीतने में सफल रहे और केंद्र में मंत्री भी बने, लेकिन 2018 में एनडीए से नाता तोड़ लिया और कांग्रेस-आरजेडी के महागठबंधन में शामिल हो गए. कुशवाहा दो संसदीय सीट से चुनाव में उतरे और दोनों ही सीटों पर उनको मात मिली. 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने बसपा, असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM सहित कई छोटे दलों से साथ हाथ मिलाया, लेकिन सफल नहीं रहे. इस तरह से अपनी अलग सियासी राह तलाशने के लिए निकले उपेंद्र कुशवाहा के हाथ खाली ही रहे, वो न तो विधायक हैं और न ही सांसद हैं.
बिहार में नीतीश और कुशवाहा एक साथ आने के राजनीतिक निहितार्थ हैं. कुशवाहा जेडीयू से अपनी अलग पार्टी बनाकर कोई करिश्मा नहीं दिखा सके हैं. वहीं, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच इस चुनाव में नीतीश कुमार की लोकप्रियता में गिरावट आई है, जिससे जेडीयू का राजनीतिक आधार खिसका है. मगध और सीमांचल क्षेत्र में जेडीयू को नुकसान उठाना पड़ा है और इस बार जेडीयू को महज 43 सीटें ही मिली हैं. यही वजह है कि दोनों नेता एक साथ आए हैं और फिर से अपने पुराने फॉर्मूले के जरिए अपने वजूद को कायम रखना चाहते हैं.
बिहार में लव-कुश फॉर्मूला
बता दें कि बिहार की राजनीति में लंबे समय तक अगड़ों ने ही राज किया है. आजादी से पहले ही बिहार में अगड़ों के खिलाफ त्रिवेणी संघ बना था, जिसे कुशवाहा, कुर्मी और यदुवंशियों ने मिलकर बनाया था. बिहार में कुर्मी और यदुवंशी सत्ता में रहे हैं, लेकिन उसे कुर्सी तक पहुंचाने में कुशवाहा समुदाय का अहम योगदान रहा है. लालू यादव से लेकर नीतीश कुमार तक माथे पर राजतिलक कुशवाहा समुदाय के चलते ही लगा है.
1990 में बिहार में त्रिवेणी संघ की सर्वाधिक जनसंख्या वाली बिरादरी यानी यादव को बिहार की सत्ता के नेतृत्व का अवसर मिला. इसके बाद नीतीश कुमार ने कुर्मी और कुशवाहा समीकरण के जरिए बिहार में अपनी जड़ें जमाईं. इसके लिए नीतीश ने पटना के गांधी मैदान में कुर्मी और कोइरी समुदाय की बड़ी रैली की थी, जिसे उन्होंने लव-कुश का नाम दिया था. यह पहली बार था जब नीतीश कुमार ने लालू यादव के सामने खुद को स्थापित किया था और चुनौती दी थी.
नीतीश ने कुशवाहा को बढ़ाया
नीतीश कुमार ने 2003 में रेल मंत्री रहते हुए बिहार के मुख्य विपक्षी पार्टी की कुर्सी पर उपेंद्र कुशवाहा को बैठाने का काम किया है. कुशवाहा को प्रतिपक्ष का नेता बनाकर नीतीश ने बिहार में लव-कुश यानी कुर्मी-कोइरी (कुशवाहा) समीकरण को मजबूत किया. इस समीकरण की बुनियाद के साथ बीजेपी से गठबंधन की राजनीतिक अहमियत को देखते हुए उनका प्रयोग सफल रहा. इसी फॉर्मूले के जरिए नीतीश ने 2005 में बिहार की सत्ता की कमान संभाली थी.
बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने लव-कुश समीकरण के सहारे खुद को सत्ता के करीब रखा है. लेकिन इस समीकरण में लव को जबरदस्त फायदा मिला तो कुश में नाराजगी दिखी. कुशवाहा समाज के लोगों के बीच में आक्रोश इस बात को लेकर है कि 2.5 प्रतिशत जनसंख्या वाले समुदाय ने 11 प्रतिशत वालों के ऊपर सीएम की कुर्सी पाई है. 1994 से लेकर 2005 तक के सफर में एकतरफ कुर्मी समाज अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया वहीं कुशवाहा समाज पिछलग्गू बनकर रह गया है.
जेडीयू से अलग कुशवाहा ने बनाई पार्टी
राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते उपेंद्र कुशवाहा ने 2011 में राज्यसभा और जेडीयू से इस्तीफा देकर राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का गठन कर लिया. 2014 में बीजेपी के साथ साथ गठबंधन किया और जीतकर केंद्र में मंत्री बने. हालांकि, नीतीश की एनडीए में दोबारा से एंट्री होने के बाद उपेंद्र कुशवाहा साइड लाइन हो गए. ऐसे में 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले कुशवाहा ने एनडीए से अलग होकर महागठबंधन का हिस्सा बन गए, लेकिन 2020 में वहां भी नहीं रह सके और अलग अपना गठबंधन बनाकर चुनाव लड़े.
बता दें कि उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को 2015 के विधानसभा चुनावों में कुशवाहा बिरादरी का भी साथ नहीं मिला. इसके अलावा 2019 के लोकसभा और 2020 के विधानसभा चुनाव में कुशवाहा की पार्टी का खाता तक नहीं खुल सका. हालांकि, उपेंद्र कुशवाहा ने इस बार के चुनाव में 48 टिकट कुशवाहा समुदाय के लोगों को दिए थे, जिनमें से एक भी प्रत्याशी नहीं जीत सका. उपेंद्र कुशवाहा भले ही न जीते हों, लेकिन जेडीयू से महज एक कुशवाहा समाज का विधायक जीतकर आया है.
नीतीश कुमार ने सत्ता में कुशवाहा समीकरण को साधने के लिए अपने विधायक मेवालाल चौधरी को मंत्री बनवाया, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ गया. ऐसे में नीतीश के पास कोई दूसरा कुशवाहा नेता फिलहाल नहीं था, जिसके जरिए कुशवाहा समाज को साधकर रख सके. उधर, उपेंद्र कुशवाहा को भी अपने सियासी वजूद को बचाए रखने की मजबूरी है. ऐसे में दोनों की मजबूरियों ने उन्हें पास आने का मौका दिया है. उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी पार्टी का विलय कर दिया है तो नीतीश ने उन्हें जेडीयू के संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया है. ऐसे में अब देखना होगा कि नीतीश कुमार और खासकर जदयू को इसका फायदा मिलेगा और कुशवाहा क्या अपनी खोई हुई राजनीति ताकत हासिल कर पाएंगे?
कुबूल अहमद