इजरायल और ईरान में आरपार की लड़ाई छिड़ी हुई है. तेल अवीव ने इसकी शुरुआत की. उसका कहना है कि तेहरान परमाणु हथियार बनाने के बेहद करीब पहुंच चुका था और उसे रोकना जरूरी था. दूसरी तरफ, उत्तर कोरिया लगातार परमाणु हथियार बना रहा है, लेकिन उसपर न कोई सैन्य हमला होता है, न ही हमले की धमकियां दी जाती हैं. वो आराम से अपना खजाना बढ़ा रहा है. इसके पीछे जियो-पॉलिटिक्स की कई परतें काम कर रही हैं. वो उतना भी अकेला नहीं है, जितना दिखता है, बल्कि कई देश पीछे से उसे सपोर्ट करते रहे.
नॉर्थ कोरिया में कब हुई शुरुआत
परमाणु हथियार बनाने की कोरियाई यात्रा शुरुआत में काफी खुफिया रही. साठ के दशक में उसने अपने मित्र देश सोवियत संघ (अब रूस) से मदद लेकर न्यूक्लियर तकनीक सीखनी शुरू की. इसे बिजली बनाने और प्रयोग की आड़ में किया जाता रहा. अस्सी तक योंगब्योन में गैस ग्रेफाइट रिएक्टर बनाया गया. इसी बीच देश ने परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर साइन किया ताकि देशों में भम्र बना रहे. हालांकि वो अपने यहां इस संधि से जुड़े दल को आने से रोकता रहा. इंटरनेशनल इंस्पेक्शन उसकी पोल खोल सकता था.
साल 2003 में नॉर्थ कोरिया ने एनपीटी से बाहर आने का एलान कर दिया. वो असल में हथियार बनाने के काफी करीब पहुंच चुका था. इसके तीन सालों बाद ही वहां पहला परमाणु परीक्षण हुआ. तब जाकर दुनिया को पता लगा कि इस सारे वक्त वो केवल भ्रम बनाए हुए था और भीतर ही भीतर हथियारों पर काम कर रहा था.
रोकने की क्या कोशिशें
नब्बे के दशक में भी अमेरिका को भनक लग चुकी थी कि कोरियाई शासक कुछ तो कर रहे हैं. बातचीत पर कोरिया ने योंगब्योन रिएक्टर बंद करने का वादा किया. बदले में यूएस ने उसे एनर्जी की मदद का वादा किया. हालांकि विश्वास कहीं था नहीं. दोनों ही एक-दूसरे पर वादाखिलाफी का आरोप लगाते रहे. न्यूक बनाने के एलान के साथ ही दुनिया हरकत में आई और 6 देशों ने मिलकर नॉर्थ कोरिया पर दबाव डाला. कई दौर की बात के बाद उत्तर कोरिया ने रिएक्टर बंद भी किए, लेकिन बाद में फिर चालू कर दिए
साल 2010 आते-आते कोरियाई सरकार ने बातचीत से एकदम दूरी बना ली और एक के बाद एक परमाणु टेस्ट करने लगा. यूनाइटेड नेशन्स ने भी उसपर पाबंदी लगाई लेकिन खास फर्क नहीं पड़ा. वो रूस, चीन जैसे देशों की मदद से टिका ही रहा.
अमेरिका या पश्चिमी देश हमला क्यों नहीं कर रहे
अब इसके लिए काफी देर हो चुकी. नॉर्थ कोरिया के पास 30 से 50 हथियार माने जा रहे हैं. उसके पास लंबी दूरी की मिसाइलें हैं, जिनकी मदद से वो न्यूक्स को दूर-दराज के देशों तक पहुंचा सकता है. अगर अमेरिका या सहयोगी देश उस पर हमला करें, तो जवाबी हमला भयावह हो सकता है. यही डिटरेंस है, यानी हमला करने से पहले हमलावर को भी अपने नुकसान का डर.
उत्तर कोरिया की सीमा दक्षिण कोरिया से जुड़ी है. सियोल महज कुछ किलोमीटर दूर है. ऐसे में युद्ध की स्थिति में लाखों लोगों की मौत कुछ ही घंटों में हो सकती है. इसलिए अमेरिका और उसके सहयोगी सैन्य कार्रवाई को आखिरी विकल्प ही मानते रहे.
तब ईरान को लेकर आक्रामकता क्यों
अब बात करते हैं ईरान की. तेहरान के पास परमाणु हथियारों की तैयारी तो है लेकिन हथियार अब तक नहीं बन सका. फुल-फ्लेज्ड न्यूक्लियर आर्सेनल न होने की वजह से इस देश की स्थिति उत्तर कोरिया से अलग है. उसपर दबाव, प्रतिबंध कई चीजें काम कर रही हैं. वहीं कोरिया के मामले में अब रणनीति कंटेनमेंट की हो गई है, यानी उसे रोका जाए, भड़काया न जाए.
शुरुआत में परमाणु हथियार बना चुके कुछ देशों के अलावा बाकी कोई भी इसपर काम करे तो तुरंत उसपर बैन लग जाता है, यहां तक कि सैन्य हमले की धमकियां दी जाती हैं. वहीं उत्तर कोरिया के मामले में हालात अलग रहे. उसे रूस की मदद तो मिली ही, चीन भी सहायता करता रहा. यूएनएससी में बीजिंग ने कई बार कोरिया पर कड़े प्रतिबंधों पर वीटो लगाया या कमजोर किया.
वॉशिंगटन क्यों नहीं सीधे टकराता प्योंगयांग से
सबसे कटे हुए देश की नीतियां समझ से परे हैं. वो रेशनल ढंग से बात नहीं करता, बल्कि सीधे धमकियों पर उतर आता है. अगर किम जोंग-उन को लगे कि उनकी सत्ता खतरे में है, तो वह कुछ भी कर सकते हैं. फिर चाहे वो मिसाइल हमला हो, बायोकेमिकल अटैक या फिर सीधे न्यूक्लियर हमला. अमेरिका ने ट्रंप के पहले कार्यकाल में कूटनीतिक कोशिशें भी कीं लेकिन नॉर्थ कोरिया शांत नहीं हुआ. आखिरकार वॉशिंगटन ने ही हारकर उसके मामले में नो प्रवोकेशन पॉलिसी अपना ली.
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