लगभग सारे ही इस्लामिक देश महिलाओं के लिए एक खास ड्रेस कोड और तौर-तरीके की बात करते रहे, वहीं ताजिकिस्तान एकदम अलग दिख रहा है. वहां की सरकार ने हिजाब और दाढ़ी बढ़ाने पर रोक लगा दी. इसके अलावा बच्चे सार्वजनिक रूप से धार्मिक आयोजनों में शामिल नहीं हो सकते. सरकार देश में मस्जिदों को भी बंद कर रही है, और उनकी जगह व्यावसायिक दुकानें ले रही हैं. जानें, कौन और किस तर्क के साथ कर रहा है ये बदलाव.
लगाया कानूनी बैन
ताजिकिस्तान के राष्ट्रपति इमोमाली रहमोन लगातार हिजाब को 'विदेशी परिधान' कहते रहे. वे पब्लिक प्लेस पर इसे पहनने के खिलाफ बोलते रहे. रहमोन के सत्ता में आने के बाद से हिजाब पर अनाधिकारिक तौर पर बैन दिखने लगा. हालांकि इसपर कोई नियम या कोई सजा नहीं थी. अब लगभग दो महीने पहले इस देश ने संसद में बाकायदा प्रस्ताव पास कराते हुए हिजाब पर पाबंदी ही लगा दी. इसके तहत हिजाब पहनने, बेचने-खरीदने और इसे बढ़ावा देने पर भी प्रतिबंध है.
देना पड़ेगा भारी जुर्माना
ये पाबंदी बोलने भर को नहीं, बल्कि अगर कोई महिला नियम तोड़ती दिखी तो उसपर लगभग 7 सौ डॉलर जुर्माना लगेगा. अगर किसी सरकारी पद पर काम करती महिला ने ऐसा किया तो उसे कई गुना ज्यादा पेनल्टी देनी होगी. हिजाब ही नहीं, ताजिक सरकार ने कई धार्मिक प्रैक्टिस पर रोक लगा दी है. लेकिन सबसे ज्यादा चौंकाने वाला फैसला मस्जिदों को लेकर था.
मस्जिदों को कैफे, हॉल में बदला गया
द डिप्लोमेट की एक रिपोर्ट की मानें तो ताजिकिस्तान की सरकार ने बीते कुछ सालों के भीतर दो हजार से भी ज्यादा मस्जिदें बंद करते हुए उन्हें कैफे, सिनेमाघर, फैक्ट्री या सोशल वर्क सेंटरों में बदल दिया. इसका मकसद धार्मिक प्रैक्टिस को कट्टरता से दायरे से बाहर लाना था. राष्ट्रपति इमोमाली रहमोन ने एकदम से ऐसा नहीं किया, बल्कि पहले उन मस्जिदों को नोटिस जारी किया गया, जिनके पास रजिस्ट्रेशन नहीं था. इसके बाद अनाधिकृत धार्मिक जगहों को सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया.
सरकार क्यों ले रही ऐसे फैसले
साल 2020 में इस देश की कुल आबादी में 96 फीसदी से भी ज्यादा मुस्लिम थे. ऐसे में इस तरह के फैसले चौंकाते हैं. राष्ट्रपति इमोमाली रहमोन के इन कदमों के पीछे कई वजहें गिनाई जाती हैं, जिसमें सबसे पहला है- धार्मिक कट्टरता को कम करते हुए बाकी दुनिया से जुड़ना. नब्बे के दशक में सोवियत संघ (अब रूस) से अलग होने के बाद ताजिकिस्तान में ढेर की ढेर कट्टरपंथी ताकतें उभर आईं. वे आपस में लड़कर सत्ता पाना चाहती थीं. नतीजा ये हुआ कि आजादी के लगभग 6 सालों तक वहां युद्ध ही चलता रहा.
तब रहमोन राजनीति में आ चुके थे. साल 1994 में आजाद ताजिकिस्तान में पहला आम चुनाव हुआ, जिसमें रहमोन ने जीत पाई. तब से कई संवैधानिक संशोधनों के साथ वे सत्ता में बने हुए हैं. चूंकि सिविल वॉर के दौरान इस्लामिक संगठनों ने देश को भारी नुकसान पहुंचाया था, लिहाजा नई आधिकारिक सरकार ने तय किया कि वो इसपर लगाम कसेगी.
चरमपंथी दलों पर लगाया प्रतिबंध
इसके बाद से ही वे संसद के जरिए ही कट्टरपंथ पर काबू पा रहे हैं. हालांकि इसके लिए उन्हें अंदर और बाहर भी विरोध झेलने पड़े. जैसे अपने ही देश के कट्टरपंथी संगठन इस्लामिक पुनर्जागरण पार्टी को सरकार ने कई गुटों को प्रतिबंधित कर दिया जिन्हें पहले राजनैतिक दलों का दर्जा मिला हुआ था. दूसरे देशों ने भी कहा कि राष्ट्रपति धार्मिक आजादी से छेड़खानी कर रहे हैं. इसके बाद भी रहमोन सत्ता में बने रहे और बदलाव करते रहे.
विरोध के बीच भी इतने बड़े फैसले ले सकने की एक खास वजह है.
दरअसल रहमोन ने सारे विरोधी राजनैतिक दलों, जो असल में कट्टरपंथी थे, पर बैन लगा दिया. वहां राजनैतिक असहमति पर भी कंट्रोल है, जिससे जनता सड़कों पर नहीं आ पाती. इसके अलावा रूस के ही राष्ट्रपति की तर्ज पर इस देश के लीडर ने भी संविधान में ऐसे बदलाव कर दिए, जिससे वे चुनाव लड़े बगैर भी लंबे समय तक सत्ता में रह सकते हैं.
किस हाल में महिलाएं
धार्मिक चरमपंथ पर कड़ाई के बाद से महिलाओं की राजनैतिक-सामाजिक स्थिति सुधरी. उन्हें पॉलिटिक्स और प्रशासन में जगह मिली. हालांकि इससे उनकी निजी स्थिति में खास फर्क नहीं आया. यूनिसेफ की साल 2022 की स्टडी कहती है कि देश की 40 फीसदी से ज्यादा महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार होती रही हैं.
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