जापान की पीएम साने तकाइची के जरूरत से ज्यादा काम करने और लोगों को भी इसके लिए बाध्य करने की आलोचना हो रही है. रिपोर्ट्स के अनुसार, वे रात तीन बजे भी मीटिंग बुला लेती हैं और लगभग चौबीसों घंटे काम करती हैं. काम के बोझ के कारण इस देश में काफी मौतें होती रहीं, जिसे करोशी कहा जाता था. माना गया कि वर्कहोलिक होने की वजह से लोग शादियां नहीं कर रहे और देश की आबादी बूढ़ी हो रही है. यहां तक कि इसे रोकने के लिए कानून भी बना. लेकिन क्या खुद पीएम ही उस कल्चर को दोबारा जिंदा कर देंगी?
क्यों पीएम की हो रही आलोचना
तकाइची ने अपने पहले भाषण में ही कहा था कि वे वर्क-लाइफ बैलेंस को खत्म कर देंगी. और ये मजाक नहीं था. रोज लगभग 18 घंटे काम के लिए जानी जाती ताकाइची ने हाल में रात तीन बजे एक मीटिंग बुलाई, जिसके बाद विवाद छिड़ गया. पीएम के समर्थक इसे अच्छी पहल मान रहे हैं, जबकि आलोचक डरे हुए हैं. दरअसल, इस देश में पहले से ही करोशी कल्चर रहा. यानी इतना काम कि लोगों की मौत होने लगी. इसमें बुजुर्गों से लेकर युवा आबादी भी शामिल रही.
इस तरह करोशी टर्म चर्चा में आया
साठ के दशक के आखिर में एक 29 साल के युवक की स्ट्रोक से मौत हो गई. वो जापान के सबसे बड़े न्यूजपेपर के लिए काम करता था. जांच में पता लगा कि मृतक के दिन का बड़ा हिस्सा काम में जाता था और वो धीरे-धीरे बीमार हो चुका था लेकिन रुकने की छूट नहीं थी. यही वो वक्त था जब मीडिया में करोशी टर्म आया यानी ओवरवर्क से मौत.
आधी सदी के भीतर ऐसे ढेर के ढेर मामले आने लगे. एक सरकारी सर्वे में माना गया कि हर 10 में से एक शख्स महीने में लगभग 80 घंटे ओवरटाइम करता है. वहीं हर पांच में से एक व्यक्ति करोशी के खतरे में है. इसमें तनाव और नींद पूरी न होने की वजह से स्ट्रोक का खतरा रहता है.
क्यों ओवरवर्क करने लगा जापान
इस देश में काम को बहुत गंभीरता से लेने की संस्कृति है. कंपनियां अपने कर्मचारियों से उम्मीद करती थीं कि वे देर रात तक काम करें. वीकेंड पर भी ऑफिस आएं और छुट्टियां न लें. दूसरे वर्ल्ड वॉर के दौरान जब हिरोशिमा-नागासाकी पर परमाणु हमला हुआ, तब भी इसी तरीके से शहर दोबारा बस सके. तो मान लिया गया कि मेहनत का कोई विकल्प नहीं. साठ के दशक में जापान में इकनॉमिक ग्रोथ बढ़ी. कंपनियों और कारखानों में देर तक काम करने वाले कर्मचारी चाहिए थे. लोगों से ओवरटाइम करवाया जाने लगा और बढ़ते-बढ़ते ये कल्चर लोगों की आदत बन गई.
अस्सी के दशक तक जापान के वर्ल्ड वॉर के जख्म तो भर गए लेकिन सेहत पर संकट शुरू हो गया. युवाओं की काम करते हुए मौतें बढ़ीं. बात यहीं खत्म नहीं हुई. युवा आबादी शादी करने और परिवार बढ़ाने से बचने लगी. जापान में बूढ़ी आबादी बढ़ने लगी, जबकि युवा आबादी कम होने लगी.
करोशी पर रोक की सरकारी तैयारियां
अब सरकार जागी. कई हॉटलाइन्स शुरू हुईं, जो करोशी से जूझते लोगों की मदद करने लगीं. राज्यों ने अपने स्तर पर भी कोशिश की. जैसे टोयोटा में काम के घंटे सीमित कर दिए गए. हर साल लोगों को छुट्टियों पर जाना अनिवार्य कर दिया गया. ऐसे ही लोगों को प्रमोशन में तवज्जो मिलती, जो वर्क-लाइफ बैलेंस को तरजीह देते. शाम सात बजे तक सबका दफ्तर छोड़ना जरूरी था, अगर कोई बड़ी जरूरत न हो.
24 साल की युवती ने ट्वीट करके की आत्महत्या
लेकिन इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा. सारी कोशिशों के बाद भी कंपनियां ज्यादा काम करवा रही थीं, और लोग कर रहे थे. साल 2015 में 24 साल की एक युवती ने खुदकुशी कर ली. मत्सुरी तकाहाशी ने मरने से पहले ट्वीट किया था- मैं रोज 20 घंटे या इससे भी ज्यादा काम करती हूं. मुझे याद नहीं कि मैं किसलिए जी रही हूं.
ट्वीट के बाद युवती ने आत्महत्या कर ली. इसके बाद पूरे देश में बहस होने लगी. तब जाकर सरकार ने स्ट्रेस चेक प्रोग्राम शुरू किया. कंपनियों के लिए कर्मचारियों के तनाव पर नजर रखना जरूरी हो गया. हालांकि इससे भी काम नहीं बना. लोग अपना तनाव छिपाकर काम करने लगे.
वर्क रिफॉर्म लॉ लागू हुआ
अब की बार करोशी को रोकने के लिए सरकार ने कुछ कड़े नियम बनाए. साल 2018 में वर्क स्टाइल रिफॉर्म लॉ पास किया गया, जिसमें ओवरटाइम की सख्त लिमिट तय की गई. अब कंपनियां किसी कर्मचारी से एक महीने में 45 घंटे और साल में 360 घंटे से ज्यादा ओवरटाइम नहीं ले सकतीं. कंपनियों पर निगरानी बढ़ाई गई और गलत पाए जाने पर कानूनी कार्रवाई होने लगी. कर्मचारियों को जबरन छुट्टी पर भेजा जाने लगा. इससे करोशी में काफी कमी आने लगी. लेकिन अब नई पीएम खुद करोशी की समर्थक लगती हैं. संबोधन में ही उन्होंने खुद को वर्कहॉर्स बताते हुए वर्क-लाइफ की दूरी मिटाने की बात कर दी.
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