लंबे समय से मुस्लिम-बहुल क्षेत्र के तौर पर जाना जाता कश्मीर कभी पूरी तरह से हिंदू आबादी वाला था. इनमें भी कश्मीरी ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति सबसे बेहतर रही. लेकिन फिर एक वक्त ऐसा आया कि पूरे के पूरे सूबे की डेमोग्राफी बदलने लगी. ब्राह्मणों ने भी धर्म बदलकर इस्लाम को अपना लिया. हालांकि एक अलग बात ये थी कि मजहब बदलते हुए भी उन्होंने अपना सरनेम नहीं बदला. कश्मीर के गांवों से लेकर शहरी इलाकों में बहुत से ऐसे मुस्लिम मिलेंगे, जिनमें उपनाम अब भी वही हैं.
तीसरी सदी तक कश्मीर में पूरी से हिंदू, उसमें भी शैव संप्रदाय के लोग ज्यादा थे. वे शिव को मानते. इसमें भी कई वर्ग थे, जिसमें कश्मीर ब्राह्मण सबसे ऊपर रहे, फिर चाहे वो पढ़ाई-लिखाई हो, या गीत-संगीत. बाद में सम्राट अशोक के बाद यहां बौद्ध धर्म को मानने वाले भी बढ़े. कश्मीर में कई स्तूप बनवाए गए, लेकिन तब भी वहां मौजूद अधिकतर आबादी हिंदू ही रही. कश्मीरी ब्राह्मण कल्हण ने राजतरंगिणी नाम से एक ग्रंथ लिखा था. संस्कृत में लिखी पुस्तक में के प्राचीन राजाओं के समय का पूरा ब्यौरा मिलता है. कल्हण के ग्रंथ में बौद्ध धर्म का भी जिक्र मिलता है. फिर इस्लाम यहां कब आया? और कैसे फैला?
इस बदलाव की शुरुआत 11वीं सदी के आसपास होने लगी थी, जब इस्लामी हुकूमत भारत तक पहुंची थी.
महमूद गजनवी ने उस दौर में भारत पर कई हमले किए लेकिन कश्मीर तक नहीं पहुंच सका क्योंकि रास्ते बेहद मुश्किल थे और वहां राजा समेत प्रजा भी ताकतवर थी. इसके बाद छुटपुट असर दिखने लगा, लेकिन बड़े लेवल पर बदलाव दिखा 14वीं सदी में.
तब शाह मीर नाम के शख्स ने कश्मीर पर राज शुरू किया. शाह मीर को लेकर इतिहास में अलग-अलग मत हैं. कोई उसे तुर्क मूल का मानता है, तो कोई अफगान से. बड़ा तबका दावा करता है कि शाह मीर का जन्म कश्मीर में ही एक ब्राह्मण परिवार में हुआ. वक्त के साथ उसने इस्लाम अपना लिया और सेनापति की तरह काम करने लगा. धीरे-धीरे उसने शक्तियां बटोरीं और राजा बन बैठा.
शाह मीर ने घाटी में शाह मीर वंश की नींव रखी, जो कश्मीर का शाही परिवार बन गया. यह पहला मुस्लिम राजवंश था जो वहां राज कर रहा था. लेकिन कहीं न कहीं इसमें नरमी थी. सदी खत्म होते-होते शाह मीर के वंशज सिकंदर ने सत्ता संभाल ली. वो धर्म के मामले में बेहद आक्रामक था और ऐसा न करने वालों को घाटी छोड़ने की धमकियां देने लगा.
उसके दौर में चरमपंथ इतना ज्यादा था कि उसे सिकंदर बुतशिकन कहा जाने लगा. बुतशिकन का मतलब है, बुत यानी मूर्तियां तोड़ने वाला. उसने सैनिकों को हिंदुओं के साथ बौद्ध मंदिरों को भी तोड़ने को कहा. घाटी में पहली बार गैर मुस्लिमों पर टैक्स लगा, जिसे जजिया कर कहते. इसी समय बहुत से हिंदुओं ने पलायन कर लिया. वे हिमालय की ओर, जम्मू या कांगड़ा जैसे इलाकों में चले गए. वहीं हजारों ब्राह्मणों ने इस्लाम अपना लिया.
वैसे कश्मीर में डेमोग्राफिक बदलाव की कहानी में कहीं-कहीं नरमी भी है. जबर्दस्ती के इसी दौर में सूफी संत भी आए. उनका तरीका अलग था. बुलबुल शाह पहले सूफी थे जो कश्मीर आए. उनकी सीख को मानते हुए रिनचन नामक एक बौद्ध राजा ने मुस्लिम धर्म अपना लिया. फिर ईरान से आए, सैयद अली हमदानी. वे अपने साथ धर्म के अलावा फारसी कलाशिल्प लेकर आए. यही वक्त था, जब वहां बुनाई-सिलाई जैसे हस्तशिल्प बने-बढ़े. उनके मानने वालों ने कश्मीर के कोने-कोने में जाकर इस्लाम का प्रचार किया. तब निचले वर्ग के लोग तेजी से धर्म बदलने लगे क्योंकि उन्हें ये बराबरी पर आने का एक मौका लगता था.
एक और सूफी संत थे- नूरुद्दीन नूरानी या शेख नूरुद्दीन वली. वे हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच ब्रिज बन गए. उनके मानने वालों में हिंदू भी थे, और मुस्लिम तो थे ही. पहाड़ी इलाकों में रहने और सादा खाना खाने वाले संत को हिंदू तबका नंद ऋषि पुकारता. जल्द ही उनके असर में हिंदू भी इस्लाम अपनाने लगे.
19वीं सदी में अंग्रेज लेखक सर वॉल्टर लॉरेंस की किताब , द वैली ऑफ कश्मीर में घाटी में सूफी आंदोलन के बारे में बताया गया है. लॉरेंस ने डिटेल में लिखा है कि शाह मीर वंश की कट्टरता से ज्यादा धर्मांतरण में सूफी संतों जैसे सैयद अली हमदानी और नूरुद्दीन नूरानी का हाथ रहा. इसमें कट्टरता कम, लेकिन गीत-संगीत ज्यादा था. इस्लाम का कश्मीरी रूप इसीलिए थोड़ा अलग किस्म का सूफी-इस्लाम बन गया, जिसे कश्मीरी इस्लाम कहा गया.
ब्राह्मण धर्म बदल तो रहे थे, लेकिन अपना उपनाम बदलने को राजी नहीं थे. मुस्लिम शासकों को इसपर कोई एतराज नहीं था. लिहाजा धर्मांतरण के बाद भी ब्राह्मणों ने खासकर अपनी कल्चरल खूबियां बनाए रखीं.
आज भी कुछ कश्मीरी मुस्लिम परिवारों में हिंदू असर दिखता है. मसलन शादी के वक्त हल्दी लगाने की रस्म वैसी ही होती है जैसी हिंदू शादियों में. बच्चों का नामकरण शुभ मुहूर्त देखकर करने की परंपरा भी कहीं-कहीं बाकी है. इसके अलावा बहुत से मुस्लिम कश्मीरियों के सरनेम अब भी हिंदू मूल से निकले हैं, जैसे बट्ट (भट या भट्ट से बना), दर (धर से बना), लोन, सोफी, रैना वगैरह.
मुसलमान बने पुराने पंडितों की वंशावलियां आज भी जिंदा हैं. वे इस बात को अपनी पहचान का हिस्सा मानते हैं कि उनके पूर्वज कभी कश्मीरी पंडित थे.बहुत से परिवार आज भी अपने खानदान के इतिहास का ब्यौरा संभाल कर रखते हैं, जिसमें धर्मांतरण की घटनाओं का भी लेखाजोखा है. हालांकि इसपर वे अफसोस नहीं करते, बल्कि अपनाए हुए धर्म के लिए ही आस्था रखते हैं.
अब बात करें घाटी में बौद्ध धर्म की, तो ये मजबूत तो था, लेकिन शैव संप्रदाय के सामने कुछ कमजोर ही था. बाद में इस्लाम के फैलने के बाद नई स्थिति से बचने के लिए बहुत से बौद्ध खुद को हिंदू धर्म में शामिल करने लगे ताकि उनके पास दूसरी मेजोरिटी तो रहे. बहुत से बौद्ध कश्मीर से अलग तिब्बत और हिमालय के दूसरे इलाकों की तरफ चले गए. यही वजह है कि अगर हम कश्मीर के श्रीनगर या आसपास को देखें तो वहां बौद्ध धर्म को मानने वाले नहीं के बराबर हैं, वहीं इससे सटे हुए इलाके लद्दाख में बौद्ध मेजोरिटी है.
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