बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के हालात लगातार बिगड़ते जा रहे हैं. कथित ईशनिंदा के आरोप में हिंदुओं की हत्याएं थमी नहीं थीं कि अब बौद्ध समुदाय के खिलाफ साजिश की बात होने लगी. चटगांव जिले से इसी आशय का एक पर्चा बरामद हुआ, जिसमें बौद्धों के नरसंहार की बात थी. ढाका में हिंदू अल्पसंख्यकों का तो जिक्र आता रहा, लेकिन यहां बौद्ध आबादी कब और कैसे पहुंची, और किस हाल में रह रहा है ये समुदाय?
क्या है ताजा मामला
चटगांव जिले के राउजान में एक भड़काऊ बैनर मिलने से तनाव फैल गया. बैनर में हिंदू और बौद्ध समुदाय के करीब दो लाख लोगों को निशाना बनाने की साजिश का दावा किया गया. यह वही इलाका है, जहां हाल में ही हिंदू समुदाय के कई घरों को आग के हवाले कर दिया गया था. पुलिस ने बैनर को कब्जे में ले लिया है और जांच शुरू कर दी है.
बांग्लादेश में बौद्ध आबादी कितनी और किस पेशे में
देश की कुल आबादी के हिसाब से बौद्ध समुदाय करीब 0.5 से 0.6 प्रतिशत है, यानी लगभग 10 से 12 लाख लोग. इनमें भी ज्यादातर लोग चटगांव हिल ट्रैक्ट्स इलाके में रहते हैं. इसमें रांगामाटी, खग्राछड़ी और बंदरबन जिले आते हैं. यहां बसे हुए अधिकतर बौद्ध आदिवासी बैकग्राउंड से हैं. चटगांव शहर और उसके आसपास भी कुछ बौद्ध परिवार बसे हुए हैं.
कम जनसंख्या के बावजूद बौद्धों का बांग्लादेश से ऐतिहासिक नाता रहा. बौद्ध धर्म इस क्षेत्र में बहुत पहले, मौर्य और पाल काल के दौरान फैला था. बाद में यहां इस्लाम फैलने लगा और बौद्ध आबादी सिमटने लगी.
सबसे ज्यादा बौद्ध खेती-किसानी से जुड़े हैं. चटगांव हिल ट्रैक्ट्स के पहाड़ी इलाकों में वे धान, सब्ज़ियां और फल उगाते हैं. कई समुदाय झूम खेती भी करते हैं, जो पहाड़ों में आम है. इसके अलावा बड़ी संख्या में लोग जंगल और पहाड़ी संसाधनों से काम चलाते हैं. लकड़ी, बांस, जड़ी-बूटियां और जंगल से मिलने वाले दूसरे उत्पाद उनकी आमदनी का जरिया हैं. कुछ लोग फिशिंग के काम से भी जुड़े हैं. पढ़ाई-लिखाई के साथ नौकरियां भी बढ़ीं. वहीं कुछ लोग मठों से जुड़े धार्मिक और सामाजिक कामकाज में लगे रहते हैं.
बांग्लादेश में हिंदू आबादी तेजी से कम हुई, वहीं बौद्ध जनसंख्या ठिठकी रही. ये रुक जाना भी एक तरह से कम होने का ही संकेत है.
इसकी कई वजहें रहीं
- साल 1971 में बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के दौरान और उसके बाद भी दशकों तक चटगांव हिल ट्रैक्ट्स में हिंसा, सैन्य कार्रवाई और असुरक्षा की स्थिति बनी रही. तब बड़ी संख्या में बौद्ध, खासतौर पर चकमा और मरमा समुदाय के लोग भारतीय राज्यों की तरफ चले आए, जहां उनके समुदाय के बाकी लोग रहते थे, जैसे अरुणाचल, मिजोरम और त्रिपुरा.
- पहाड़ी इलाकों में सरकारी बसाहट योजनाओं के चलते बौद्ध आदिवासी समुदायों की जमीनें छीनी जाने लगीं. चूंकि वे अल्पसंख्यकों में भी अल्पसंख्यक थे, लिहाजा वे खास विरोध नहीं कर पाए. वे देश छोड़ने लगे.
- बौद्धों में पढ़ाई-लिखाई का स्तर अपेक्षाकृत ठीक है. इसका असर भी जन्मदर पर पड़ा. वे छोटे परिवार रखने लगे. इससे प्रतिशत के हिसाब से बौद्ध समुदाय और कम दिखने लगा.
कब-कब हुई हिंसा
- बाकी अल्पसंख्यकों की तरह ये समुदाय भी हिंसा से बचा नहीं रहा. खासकर चकमा और मरमा जैसे बौद्ध आदिवासी इलाकों में हत्या, गांव जलाने और रेप जैसी बेहद बर्बर घटनाएं हुईं.
- सत्तर से नब्बे के दशक तक ढाका सरकार और पहाड़ी आदिवासी समूहों के बीच संघर्ष चला. जमीनों के लिए गांवों पर हमले हुए और सैन्य कार्रवाई तक हुई. यही वह समय था जब बड़े पैमाने पर पलायन हुआ.
- साल 2013 की राउम हिंसा का जिक्र अक्सर होता है. कॉक्स बाजार में कथित ईशनिंदा से जुड़ी फेसबुक पोस्ट के बाद बौद्ध मठों और घरों पर हमले किए गए. इस दौरान दर्जनों धर्मस्थल और सैकड़ों घर जला दिए गए थे.
क्या बौद्ध समुदाय अपेक्षाकृत सुरक्षित
हाल के सालों में बौद्धों पर टारगेटेड अटैक की चर्चा कम हो रही है लेकिन धमकी, जमीन हड़पना जैसी बातें आम रहीं. कई बार ये बात भी उठती रही कि बांग्लादेश में हिंदू समुदाय क्यों सबसे ज्यादा हिंसा का शिकार रहा, जबकि कई और अल्पसंख्यक कम्युनिटीज भी हैं.
इसकी सीधी सी वजह है. अगर बौद्धों से ही तुलना करें तो ये आबादी मुश्किल पहाड़ी इलाकों में रहती है, जहां आमतौर पर लोग नहीं जाते, वहीं हिंदू शहरों में फैले हुए हैं. उन तक सीधी पहुंच आसान है. इसके अलावा हिंदू समुदाय को अक्सर चुनावी गणित और सीमा-पार यानी भारत की राजनीति से जोड़कर भी देखा जाता रहा. वहीं बौद्ध इतने कम हैं कि वे न तो वोट बैंक माने जाते हैं, न राजनीतिक दबाव का जरिया दिखते हैं. हालांकि साल 2012 की राउम हिंसा साफ दिखाती है कि बांग्लादेश पर चरमपंथ हावी हो तो कोई भी अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं.
aajtak.in