बॉलीवुड फिल्मों में जब भी सिख किरदार याद किए जाते हैं, तो अक्सर लोगों को सबसे पहले सनी देओल याद आते हैं. 'बॉर्डर' और 'गदर' दोनों फिल्मों में सनी ने न सिर्फ पगड़ी पहनी बल्कि इन सरदार किरदारों को बहुत जानदार तरीके से निभाया. 90s के अंत से लेकर अबतक बॉलीवुड के तमाम ए-लिस्ट एक्टर्स ने फिल्मों में पगड़ी पहनी और सिख किरदार निभाए हैं.
मगर रिप्रेजेंटेशन के लिहाज से ये कुछ ऐसा ही था जैसे मिथुन ने साउथ इंडियन किरदार निभाया. ऐसी ही कलाकारियों का नतीजा ये हुआ कि हिंदी फिल्मों की दर्शक जनता के एक बड़े हिस्से में, साउथ इंडियन आदमी का मतलब ही धोती पहनना, माथे पर तिलक लगाना और 'अइयो' बोलना हो गया. कुछेक अपवादों को छोड़कर मेनस्ट्रीम बॉलीवुड फिल्मों में सरदारों के अधिकतर किरदार भी ताकत, भोलेपन और 'शराब पी के भी सीधे खड़े रहने' वाले सरदार की इमेज से आगे नहीं बढ़े. मतलब, किरदार के सरदार होने पर ही ज्यादा फोकस था न कि उसकी कहानी पर.
स्टार पावर के अलावा बॉलीवुड के पास इस बात का कोई सही एक्सप्लेनेशन नहीं हो सकता कि सरदार के किरदार में सरदार क्यों नहीं? मगर इस सवाल का जवाब मिला दिलजीत दोसांझ से. पंजाब की म्यूजिक इंडस्ट्री से निकला वो कलाकार जो खुद को 'अर्बन पेंडू' कहता है (Urban Pendu) यानी 'शहरी देहाती' !
बॉलीवुड फिल्मों के सरदार
'अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों' में अमिताभ बच्चन से लेकर 'हीरोज' में सलमान खान, 'रॉकेट सिंह' में रणबीर कपूर, 'सन ऑफ सरदार' में अजय देवगन, 'सिंह इज किंग' के अक्षय कुमार, 'लव आज कल' के सैफ अली खान और कुछ महीनों पहले रिलीज हुई 'लाल सिंह चड्ढा' में आमिर खान तक; सरदार के रोल में बॉलीवुड एक्टर्स खूब नजर आए. लेकिन मौसेरे भाई की तरह हिंदी फिल्मों के साथ करीबी कनेक्शन रखने वाले पंजाबी कल्चर की कहानी जब भी बॉलीवुड में आई तो इनमें लीड रोल में कोई सरदार नहीं था. बल्कि हिंदी फिल्मों में सरदार का किरदार निभाने वाले जो रियल लाइफ सरदार दिखे भी, वो ज्यादातर छोटे-छोटे रोल में कॉमेडी ही करते दिखे.
दिल जीतने वाला दिलजीत...
2008 में मनजोत सिंह ने 'ओए लकी लकी ओए' में लीड किरदार तो निभाया, मगर फिल्म के बड़े हिस्से में उनका किरदार जवान होकर अभय देओल बन गया. बाद में मनजोत को भी लोग सिर्फ कॉमेडी के लिए पहचानने लगे और वजह थी 'फुकरे'. सवाल वही रहा- वजनदार किरदार में सरदार क्यों नहीं? इस सवाल का जवाब मिला 2016 में जब दिलजीत दोसांझ 'उड़ता पंजाब' में नजर आए. फिल्म में उनका और शाहिद कपूर का किरदार पैरेलल लीड कहे जा सकते हैं. 'उड़ता पंजाब' के लिए दिलजीत को 'बेस्ट डेब्यू' का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला.
संजीदा किरदार, काम असरदार
'उड़ता पंजाब' में दिलजीत के सरदार होने को 'टेस्टमेकर' की तरह कहानी का जायका बढ़ाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया था. एक सरदार की जगह कोई नॉर्मल एक्टर रखकर देख लीजिए, कहानी में ज्यादा कुछ नहीं बदलेगा. बस किरदार पंजाबी होना चाहिए, क्योंकि कहानी पंजाब पर आधारित है. बिल्कुल यही हिसाब 'फिलौरी' में भी था, जो बहुत बड़ी हिट फिल्म तो नहीं थी. मगर अनुष्का शर्मा के साथ लव स्टोरी में दिलजीत का काम जनता ने एक बार फिर खूब पसंद किया.
दिलजीत की अगली हिंदी फिल्म 'सूरमा' में उन्होंने भारत के नामी हॉकी प्लेयर संदीप सिंह की बायोपिक में लीड रोल किया. फिल्म में दिलजीत की जगह कोई भी दूसरा हिंदी एक्टर रखा जा सकता था, गेटअप तो हिंदी फिल्म के रास्ते आया ही कब है. 'सूरमा' की दिक्कत ढीला स्क्रीनप्ले था, इसलिए बहुत ज्यादा तो नहीं चली. मगर जिसने भी फिल्म देखी है, वो बता सकता है कि कहानी में दिलजीत का होना सिर्फ उनके सरदार होने की वजह से नहीं था. बल्कि उनका काम रोंगटे खड़े कर देने वाला था. एक्सीडेंट के बाद व्हीलचेयर पर आ जाने वाले संदीप सिंह के रोल में दिलजीत को देखकर किसी को भी आंसू आ सकते हैं.
'गुड न्यूज' में दिलजीत ने अक्षय कुमार के साथ कॉमेडी की जोरदार जुगलबंदी की और जनता को कई मजेदार मोमेंट दिए. हाल ही में नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई 'जोगी' में उनका काम एक बार फिर से आदमी की रीढ़ में सिहरन पैदा करने वाला था. 1984 के सिख विरोधी दंगों में, अपने परिवार और साथियों की जान बचाने में जुटे एक लड़के का जो किरदार उन्होंने किया, वो उनके एक्टिंग टैलेंट का सबूत है.
दिलजीत ने क्या बदला?
'जोगी' में दिलजीत का एक सीन है, जब वो जान बचाने के लिए अपने केश काटते हैं. डायरेक्टर अली अब्बास जफर ने एक बातचीत में बताया है कि इस सीन के लिए दिलजीत से बात करने में उन्हें बहुत हिचक हो रही थी. सोच के देखिए, अली के लिए कितना आसान होता कि किसी दूसरे जाने-माने एक्टर को कास्ट करते, जो कुछ महीने में बाल-दाढ़ी बढ़ाकर सिख गेटअप में आ जाता. या फिर प्रोस्थेटिक्स का ऑप्शन तो हमेशा ही खुला है. केश काटने के सीन में भी कोई दिक्कत नहीं होती.
ये सोचने के बाद आप समझ पाएंगे कि दिलजीत के काम का दम बोलता है. उनके किरदार एक फैक्ट की तरह सरदार हैं, जैसे आप अगर किसी दुकान पर कुछ लेने जा रहे हैं तो आपको नहीं पता होता कि दुकानदार सरदार है या नहीं. आपको तो दुकान से अपना सामान खरीदने से मतलब है. तो फिर फिल्म में सरदार कैरेक्टर को कॉमेडी की ही उम्मीद से अप्रोच करना कहां सही है? दिलजीत ने जो बदला वो बिल्कुल यही है! उनके किरदार कहानी में कोई 'इफेक्ट' पैदा करने के लिए सरदार नहीं हैं. दिलजीत जो बदल रहे हैं वो यही है और ये उनकी चॉइस में भी दिखता है.
कमल हासन की पहली हिंदी फिल्म 'एक दूजे के लिए' याद कीजिए. कहानी का सेन्ट्रल एलिमेंट लव स्टोरी है. लेकिन इस लव स्टोरी में कमल का किरदार वासु, तमिल परिवार से आता है. फिल्म के फर्स्ट हाफ में बाकायदा सीन्स हैं जिनमें स्क्रीन पर कमल का किरदार तमिल में बात कर रहा है क्योंकि उसकी हिंदी कमजोर है और स्क्रीन पर हिंदी चल रही है. कल्चर अलग होने से वासु और सपना के परिवारों का एक दूसरे को स्वीकार न करना, किसी भी दूसरे तरीके से लिखा जा सकता था.
पंजाबी और बंगाली कल्चर का डिफ़रेंस भी हो सकता था, जाति का अंतर या क्लास का अंतर भी. लेकिन हीरो कमल हासन तमिल थे तो उनकी सेंसिबिलिटी को कहानी में बुना गया. ऐसा ही सिख किरदार के साथ भी तो किया जा सकता है. और अब तो दिलजीत जैसा पॉपुलर स्टार भी है. बॉलीवुड राइटर्स को इस तरह सोचने की बहुत जरूरत है. दिलजीत जैसे और सरदार एक्टर्स के लिए भी ये एक बेहतरीन मौका तैयार करेगा.
पर्दे पर अलग-अलग कल्चर के कलाकारों को नई कहानियों के साथ देखना जनता को हमेशा एक्साइट करता है. तो मिसाल के तौर पर क्यों न प्रॉपर सरदार दिलजीत को लेकर कोई फिल्ममेकर एक टिपिकल मसाला एंटरटेनर बनाए, बतौर दर्शक दिलजीत के लाखों फैन्स तो इसके लिए तैयार ही हैं!
सुबोध मिश्रा