UP ELECTION: जनता को क्यों पसंद नहीं आया राहुल-अखिलेश का साथ?

चुनावों से ऐन पहले मुलायम के कुनबे में जो फैमिली ड्रामा देखने को मिला, उसे जनता के जेहन से कोई चमत्कार ही मिटा सकता था. इस पारिवारिक फूट ने ना सिर्फ समाजवादी पार्टी में कलह को जगजाहिर किया बल्कि यूपी की फर्स्ट फैमिली की इमेज को भी ऐसा नुकसान पहुंचाया जिसकी भरपाई मुमकिन नहीं थी.

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जनता ने 'यूपी के लड़कों' को नकारा जनता ने 'यूपी के लड़कों' को नकारा

संदीप कुमार सिंह

  • नई दिल्ली,
  • 11 मार्च 2017,
  • अपडेटेड 1:00 PM IST

नतीजे बता रहे हैं कि यूपी की जनता ने 'अपने लड़कों' पर 'गोद लिए बेटे' को चुना. लेकिन आखिर वो क्या वजहें थीं जिनके चलते लोगों को राहुल और अखिलेश का साथ पसंद नहीं आया?

कुनबे की कलह
चुनावों से ऐन पहले मुलायम के कुनबे में जो फैमिली ड्रामा देखने को मिला, उसे जनता के जेहन से कोई चमत्कार ही मिटा सकता था. इस पारिवारिक फूट ने ना सिर्फ समाजवादी पार्टी में कलह को जगजाहिर किया बल्कि यूपी की फर्स्ट फैमिली की इमेज को भी ऐसा नुकसान पहुंचाया जिसकी भरपाई मुमकिन नहीं थी. इसके चलते पार्टी के उम्मीदवारों को लेकर मतभेद रहे और मुलायम के अलावा शिवपाल यादव ने भी प्रचार से दूरी बनाए रखी. जाहिर है जनता ने ऐसे परिवार को सत्ता सौंपने से गुरेज किया जिसके सदस्य एक दूसरे की आंख में आंख मिलाकर देखने को ही राजी ना हों.

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कानून-व्यवस्था
अखिलेश यादव की सरकार को खराब कानून व्यवस्था का आरोप चुनावों से बहुत पहले से झेलना पड़ रहा था. पिछले 5 सालों के दौरान मुजफ्फरनगर जैसे अनेकों दंगों ने मुस्लिमों के बीच समाजवादी पार्टी की विश्वसनीयता को कम किया. प्रचार के दौरान अमित शाह और नरेंद्र मोदी के अलावा मायावती ने भी इस मुद्दे को जमकर उछाला. राज्य में महिलाओं की असुरक्षा के मुद्दे पर भी अखिलेश सरकार माकूल जवाब देने में नाकाम रही.

यादवपरस्त नीतियां
जब मोदी ने प्रचार के दौरान ये आरोप लगाया कि यूपी के थानों से समाजवादी पार्टी का दफ्तर चलता है तो वो दरअसल अखिलेश राज में नौकरियों की भर्तियों में यादवों को मिली तरजीह की ओर इशारा कर रहे थे. पांच साल की भर्तियों के आंकड़े भी इस बात की तस्दीक करते हैं. बीजेपी ने समाजवादी पार्टी पर सरकारी योजनाओं में भी कुछ जातियों को फायदा देने का आरोप लगाया. इससे ना सिर्फ अगड़ी जातियों बल्कि गैर-यादव पिछड़ी जातियों में भी समाजवादी पार्टी के खिलाफ हवा बनी.

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गठबंधन की रणनीति में खामियां
अव्वल तो समजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन तब जाकर शक्ल में आया जब चुनावी प्रचार पहले ही उफान पर था. उसपर दोनों पार्टियों के बीच सीटों पर मतभेद सुलझने में भी लंबा वक्त लगा. इतना ही नहीं, मुलायम सिंह यादव और उनके समर्थकों ने गठबंधन को समर्थन देने से इनकार किया. कुछ जानकारों की राय में अखिलेश यादव ने कांग्रेस को सीटें देने में जरुरत से ज्यादा दरियादिली दिखाई और नतीजों में इसका खामियाजा भुगता.

मोदी मैजिक
नतीजों से साफ है कि 2014 में देखी गई मोदी लहर अब भी सूबे की सियासत में कमजोर नहीं पड़ी है. पश्चिम यूपी में सियासी जानकार अंदाजा लगा रहे थे कि जाट वोटर आरएलडी की ओर लौटेंगे. बीजेपी से कई नाराजगियों के बावजूद पार्टी ने यहां शानदार प्रदर्शन किया है. कमोबेश ऐसा ही दूसरे हिस्सों में देखने को मिला है. साफ है कि बीजेपी नोटबंदी के बावजूद सभी पार्टियों और वर्गों के वोट हासिल करने में कामयाब रही है और मोदी की करिश्माई शख्सियत इसकी बड़ी वजह है.

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कांग्रेस की कमजोर हालत
यूपी में कट्टर से कट्टर कांग्रेसी को भी किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं थी. सब जानते हैं कि राज्य में पार्टी के पास वर्कर कम और नेता ज्यादा हैं. ऐसे में गठबंधन की नैया पार करवाने की जिम्मा सिर्फ और सिर्फ अखिलेश के सिर पर था और इस काम में कांग्रेस मददगार कम और बोझ ही ज्यादा साबित हुई.

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