यूपी चुनाव: 2017 की हार से अखिलेश यादव ने लिया सबक, नहीं दोहरा रहे पिछली बार वाली गलतियां

उत्तर प्रदेश में पांच साल पहले सपा प्रमुख अखिलेश यादव को जिन गलतियों के चलते अपनी सत्ता गवांनी पड़ी थी, उससे उन्होंने सबक लिया है. इस बार के चुनाव में अखिलेश यादव परिवारवाद के टैग को हटाने में जुटे हैं तो सपा की मुस्लिम परस्त छवि को भी तोड़ते नजर आ रहे हैं.

Advertisement
सपा प्रमुख अखिलेश यादव सपा प्रमुख अखिलेश यादव

कुबूल अहमद

  • नई दिल्ली ,
  • 20 जनवरी 2022,
  • अपडेटेड 11:17 AM IST
  • अखिलेश यादव ने 'नई सपा-नई हवा' का नारा दिया
  • यादववाद-मुस्लिम परस्त छवि से सपा को नुकसान
  • सामाजिक न्याय के मुद्दों पर अखिलेश यादव का जोर

उत्तर प्रदेश की सत्ता में वापसी के लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव हरसंभव कोशिशों की तलाश में जुटे हैं. 2017 के चुनाव की हार से अखिलेश यादव ने कई सबक लिए हैं. यही वजह है कि जिन सियासी गलतियों की वजह से पांच साल पहले उन्होंने सूबे में अपनी सत्ता गवांई थी, उन्हें 2022 के चुनाव में वह नहीं दोहरा रहे हैं. अखिलेश बहुत ही सधे हुए राजनेता की तरह इस बार सियासी बिसात बिछा रहे हैं और चुनावी एजेंडा सेट कर रहे हैं ताकि दोबारा से सत्ता में वापसी कर सकें.  

Advertisement

मुस्लिम परस्त छवि से बाहर निकल रहे

पिछले चुनाव में अखिलेश यादव की हार की एक बड़ी वजह सपा की मुस्लिम परस्त छवि रही थी. बीजेपी ने सपा को मुस्लिम परस्त पार्टी के तौर पर प्रचारित किया. अखिलेश यादव ने सपा को मुस्लिम छवि के तमगे से बाहर निकालने की कोशिश की है. वह मुस्लिम मुद्दों पर खुलकर बोलने से बचे रहे हैं और मुस्लिम नेता को भी अपने मंचों पर अहमियत नहीं दी. बीजेपी की तमाम कोशिशों के बाद भी मुस्लिम नेरेटिव में अखिलेश नहीं फंस रहे हैं. इतना ही नहीं असदुद्दीन ओवैसी के सवाल खड़े करने के बाद भी मुस्लिमों से जुड़े मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी. 

वहीं, टिकट वितरण में भी सपा इस बार मुस्लिमों को पिछली बार की तरह बड़ी संख्या में नहीं उतार रही है. मुस्लिम आबादी वाले पश्चिमी यूपी की तमाम सीटों को आरएलडी के खाते में दे दी है. पहले चरण की टिकटों को देखें तो मुजफ्फरनगर और गाजियाबाद जैसे जिले में सपा-आरएलडी ने एक भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं दिए हैं जबकि यहां पर मुस्लिम वोटर काफी अहम हैं.

Advertisement

आगरा में सपा ने एक प्रत्याशी दिया है. पश्चिमी यूपी के कद्दावर मुस्लिम नेता इमरान मसूद को अखिलेश ने सपा में तो लिया, लेकिन उन्हें किसी सीट से टिकट नहीं दिया. मुसलमानों को लेकर बीजेपी उन्हें घेरे, ऐसा अखिलेश एक भी मौका नहीं देना चाहते.

यादववाद टैग हटाने की कवायद

सपा पर लगे यादववाद के टैग ने भी अखिलेश यादव को राजनीतिक तौर पर काफी नुकसान पहुंचाया है. 2017 के चुनाव में इसी आधार पर बीजेपी ने गैर-यादव ओबीसी नेताओं को सपा के खिलाफ अपने पक्ष में लामबंद किया था. ऐसे में अखिलेश यादव सपा के यादववाद के टैग को खत्म करने में जुटे हैं, जिसके लिए सपा के यादव नेताओं से दूरी बनाने का काम किया तो तमाम गैर-यादव ओबीसी नेताओं को पार्टी से जोड़ने का काम किया.

जातीय आधार वाले चाहे छोटे दल रहे हों या फिर बसपा और बीजेपी से आए नेता. अखिलेश यादव ने इस बार यूपी में जो भी यात्रा निकाली थी, उन पर किसी यादव नेता को जगह नहीं मिली. 

ओमप्रकाश राजभर, डॉ. संजय चौहान, कृष्णा पटेल, केशव देव मौर्य की पार्टी के साथ गठबंधन किया तो स्वामी प्रसाद, दारा सिंह चौहान, धर्म सिंह सैनी, लालजी वर्मा, रामअचल राजभर जैसे कद्दावर ओबीसी नेता को सपा में लाए. ये ऐसे नेता हैं, जो अपने-अपने समाज के बीच मजबूत पैठ रखते हैं. पिछले चुनाव में सपा की हार का असल कारण गैर-यादव ओबीसी चेहरे का न होना था. इस कमी को अखिलेश यादव ने दूर करने की कवायद की है और गैर-यादव ओबीसी नेताओं को जोड़कर उन्हें सियासी अहमियत भी दे रहे हैं.  

Advertisement

परिवारवाद से बनाया दूरी

समाजवादी पार्टी पर परिवारवाद का तमगा भी लगा है, जिसे अखिलेश यादव पूरी तरह से तोड़ने में जुटे हैं. अखिलेश यादव के साथ न तो चुनावी रैली में मुलायम परिवार का कोई नेता नजर आता है और न ही प्रेस कॉफ्रेंस में. पहले अखिलेश के साथ चाचा प्रो. रामगोपाल यादव, शिवपाल यादव और भाई धर्मेंद्र यादव हर मंच पर नजर आते थे, लेकिन इस बार कोई भी सदस्य दिख नहीं रहा. इतना ही नहीं अखिलेश ने साफ कर दिया है कि इस बार परिवार के किसी भी सदस्य को चुनाव में टिकट नहीं दिया जाएगा. 

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो अखिलेश यादव ने अपने चाचा शिवपाल यादव की पार्टी का सपा में विलय कराने के बजाय गठबंधन किया ताकि विधायक चुनाव में उन्हें और उनके बेटे आदित्य यादव को टिकट दिया जाए तो उसे उनकी पार्टी से जोड़कर न देखा जाए. इतना ही नहीं अखिलेश के भाई प्रतीक यादव की पत्नी अपर्णा यादव का सपा से बीजेपी में जाने के पीछे भी कारण भी लखनऊ की कैंट सीट से टिकट न मिलना था. अखिलेश की यह कवायद पूरी तरह से सपा को परिवारवाद के टैग से बाहर निकालने की है.   

सामाजिक न्याय पर जोर

राममनोहर लोहिया के साथ-साथ दलित मसीहा डॉ. आंबेडकर को अखिलेश यादव ने अपने राजनीतिक आदर्शों में शामिल किया है. सपा के पोस्टरों और बैनरों में इन दिनों साफ देखा जा सकता है. अखिलेश यादव सत्ता में आने पर जातीय आधारित जनगणना कराने का वादा कर रहे हैं. सामाजिक न्याय की बात करने वाले तमाम नेताओं को अखिलेश ने अपने साथ लिया है और खुद भी इन दिनों दलित, वंचित और पिछड़ों के मुद्दों को भी उठा रहे हैं जबकि इससे पहले तक वो इन मुद्दों पर इस तरह से मुखर होकर नहीं बोला करते थे. 

Advertisement

सपा के सहयोगी नेता ओम प्रकाश राजभर सामाजिक न्याय को भी सबसे बड़ा मुद्दा बन रहे हैं तो हाल ही में बीजेपी छोड़कर सपा में आए स्वामी प्रसाद मौर्य ने खुलकर 85 बनाम 15 और 15 में भी हमारा का नारा दे दिया है. ऐसे ही इंद्रजीत सरोज भी दलित और अतिपिछड़ी जातियों को सपा के साथ जोड़ने की मुहिम पर लगे हैं. अखिलेश यादव भी सामाजिक न्याय की बात को उठा रहे हैं और योगी सरकार पर एक जाति विशेष के लोगों का दबदबा होने की बात को हर जगह सार्वजिनिक रूप से कह रहे हैं.

आम लोगों से जुड़े मुद्दे को तवज्जो

अखिलेश यादव ने इस बार के चुनाव में आम लोगों से जुड़े मुद्दों पर सियासी एजेंडा सेट कर रहे हैं. 300 युनिट बिजली फ्री देने का वादा किया है, जिसके लिए सपा नेता घर-घर जाकर लोगों से फॉर्म भी भरवा रहे हैं. समाजवादी पेंशन को 6000 से बढ़ाकर 18000 रुपये सालाना करने का ऐलान किया है. इसके अलावा आवारा पशु यूपी में एक बड़ा चुनावी मुद्दा बना हुआ है, जिसे लेकर योगी सरकार को अखिलेश घेर रहे हैं. 10 लाख लोगों को रोजगार देने का वादा कर रहे हैं. वहीं, इससे पहले तक अखिलेश यादव सिर्फ लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे और मेट्रो की बात करते रहे हैं, लेकिन अब उन्होंने अपना सियासी स्टैंड बदला है और आम लोगों की नब्ज पर हाथ रख रहे हैं. इसीलिए लोकलुभाने वादे भी कर रहे हैं. 

Advertisement

 

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement