पश्चिम बंगाल सहित देश के पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों को कांग्रेस के साथ-साथ राहुल गांधी के सियासी भविष्य के लिए भी काफी अहम माना जा रहा है. कांग्रेस केरल में जहां लेफ्ट की अगुवाई वाले एलडीएफ गठबंधन को सत्ता से बेदखल करने की कोशिशों में जुटी है तो पश्चिम बंगाल की सियासी जंग में दोनों एक साथ कदम ताल कर रही हैं. ममता बनर्जी को चुनावी मात देने के लिए कांग्रेस-लेफ्ट एक साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरे हैं. बंगाल में याराना और केरल में दो-दो हाथ करती नजर आ रही कांग्रेस-लेफ्ट का यह रिश्ता क्या कहलाता है?
बंगाल में कांग्रेस-लेफ्ट का कदम ताल
बंगाल की सत्ता पर तीन दशक तक कांग्रेस और करीब साढ़े तीन दशक तक वामपंथी दलों का सियासी वर्चस्व कायम रहा, लेकिन प्रदेश के बदले सियासी हालात में दोनों ही पार्टियों का आधार खिसक चुका है. ममता बनर्जी पिछले 10 साल से सत्ता में काबिज हैं और तीसरी बार आने के लिए हाथ-पांव मार रही हैं. वहीं, बंगाल में बीजेपी के जबरदस्त राजनीतिक उभार के चलते कांग्रेस और लेफ्ट दोनों के सामने अपने-अपने सियासी आधार को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है. इसी सियासी मजबूरी या सियासी हालात को देखते हुए एक बार फिर दोनों मिलकर चुनावी मैदान में किस्मत आजमा रही हैं.
बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट के साथ आने का सीधा मतलब खुद के वजूद को बचाने की चुनौती है, क्योंकि राज्य में सियासी लड़ाई बीजेपी और टीएमसी के बीच नजर आ रही है. यही वजह है कि पश्चिम बंगाल के चुनाव में राहुल गांधी अभी तक नहीं उतरे हैं और उन्होंने ज्यादा फोकस दक्षिण भारत के तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी पर रखा है. राहुल गांधी, प्रियंका गांधी जहां असम में रैलियां करके पार्टी की हवा बनाने की कोशिश करते दिखे, लेकिन बंगाल से अभी तक उन्होंने परहेज कर रखा है.
दरअसल, ममता बनर्जी की 10 साल की सत्ता के बावजूद कांग्रेस का टीएमसी सरकार के खिलाफ बोलना उनकी राजनीति को सूट नहीं कर रहा. बंगाल में कांग्रेस का ममता बनर्जी के खिलाफ आक्रामक तेवर अपनाना इसलिए भी आसान नहीं है, क्योंकि इससे बीजेपी को फायदा मिलने की संभावना है. हालांकि, बंगाल में टीएमसी को नाराज करने का कांग्रेस ने कुछ फैसला भी लिया है, मसलन कांग्रेस ने ममता विरोधी अधीर रंजन चौधरी को बंगाल की कमान सौंप रखी है और वह लेफ्ट के साथ हाथ मिलाकर चुनावी मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने में जुटे हैं, लेकिन अभी तक जितने भी सर्वे आए हैं उन सभी में कांग्रेस-लेफ्ट अपने पुराने नतीजे भी दोहराती नजर नहीं आ रही हैं.
केरल में कांग्रेस बनाम लेफ्ट की जंग
राहुल गांधी ने पांच राज्यों के चुनाव में सबसे ज्यादा फोकस दक्षिण भारत में लगा रखा है. अमेठी से हार के बाद राहुल गांधी केरल के वायनाड से सांसद हैं और वहां इस बार एलडीएफ सरकार के खिलाफ सत्ता परिवर्तन ना सिर्फ कांग्रेस के जीवन के लिए भी जरूरी है, बल्कि खुद राहल के सियासी वजूद को बचाए रखने के लिए भी अहम है. ऐसे में उन्हीं सीपीएम नेताओं के साथ बंगाल में मंच साझा करना बहुत ही चुनौतीपूर्ण लग रहा है और केरल के चुनाव में लेफ्ट फ्रंट के साथ दो-दो हाथ करते नजर आ रहे हैं.
केरल में असल लड़ाई सीपीआई की अगुवाई वाले एलडीएफ और कांग्रेस नेतृत्व वाले यूडीएफ के बीच है. दोनों ही गठबंधनों के बीच पांच-पांच साल के बाद सत्ता परिवर्तन होता रहता है. इसीलिए कांग्रेस यह मानकर चल रही है कि इस बार उनकी सत्ता में वापसी हो सकती है. यही वजह है कि राहुल गांधी ने अपनी पूरी ताकत केरल में लगा रखी है. वहीं, लेफ्ट फ्रंट को फिर से सत्ता में वापसी की उम्मीद है. सीताराम येचुरी कहते हैं कि लेफ्ट फ्रंट ने केरल में काम किया है जिसके आधार पर वोट मिलेगा. वो कहते हैं कि बंगाल और केरल को एक साथ नहीं देखना चाहिए. हमारा और कांग्रेस के बीच कुछ मुद्दों पर विरोध है, लेकिन हम बीजेपी की तरह ही कांग्रेस को नहीं देखते हैं.
इसलिए बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट की दोस्ती और केरल में घनघोर दुश्मनी के पीछे दोनों की पार्टियों की रणनीति है. कांग्रेस के लिए केरल की जीत सिर्फ लेफ्ट को सत्ता से हटाना नहीं, बल्कि राहुल गांधी के आगे के सियायी भविष्य को तय करने करने वाला है. वहीं, बीजेपी के बढ़े सियासी आधार ने पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के लिए राजनीतिक हालात ऐसे बना दिए हैं, जहां वो कई बड़ा करिश्मा नहीं दिखाने की स्थिति में है. ऐसे में अब देखना कांग्रेस दो नावों के सहारे राजनीतिक दरिया किस तरह से पार करती है.
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