अंतिमबाला को बचपन से ही बताया गया कि वह अवांछित हैं और परिवार पर एक बोझ हैं. वह अपनी किस्मत से निराश थीं और उन्होंने यह मान लिया था कि वह कभी सफल नहीं हो सकती.
अंतिमबाला को वाक्य की रचना करने और शब्दों को लिखने में संघर्ष का सामना करना पड़ा, ऐसा नहीं था कि उनमें क्षमता नहीं थी, लेकिन उन्हें यह भरोसा दिला दिया गया था कि वह अपने अन्य साथियों की तरह नहीं बन सकती. ऐसी ही कहानी नाराजना की है, जिन्हें यह नाम इसलिए दिया गया, क्योंकि जब वह पैदा हुई तो उनके घरवाले उनसे बेहद नाराज थे. उसका परिवार उसे परिवार पर बोझ होने जैसा महसूस कराता था.
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इन दो लड़कियों और कई अन्य के जीवन में 'लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स' से ग्रेजुएट सफीना हुसैन ने उनके जीवन में बदलाव लाते हुए जोश के साथ रंग भरा और उनकी मुक्तिदाता बन गई. वह इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि वंचित और पिछड़े वर्ग की पृष्ठभूमि से आने वाली लड़कियों को अपनी किस्मत को नहीं कोसना पड़ें और उन्हें स्कूल प्रणाली से जुड़ने का मौका मिले.
सफीना यह सुनिश्चित करना चाहती हैं कि अंतिमबाला (इसका शाब्दिक अर्थ आखिरी लड़की होता है) जैसी लड़कियां अपने बलबूते अपने पैरों पर खड़ी हो सकें और रूढ़िवादी समाज के पूर्वाग्रहों का शिकार ना बनें. अपने NGO (गैर सरकारी संगठन) के माध्यम से वह लड़कियों को शिक्षित करती हैं. वह और उनकी टीम सामुदायिका स्तर के स्वयंसेवकों 'टीम बालिका' के साथ काम करती है, जो दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में घर-घर जाकर स्कूल नहीं जाने वाली लड़कियों की पहचान करती है और उनके माता-पिता को स्कूल भेजने के लिए अपने भरोसे में लेने की कोशिश करती है.
अपने नेक काम के लिए एक पुरस्कार ग्रहण करने के लिए राष्ट्रीय राजधानी आईं सफीना ने एक इंटरव्यू में बताया कि अंतिमबाला ने जब कक्षा में जाना शुरू किया तो वह कुछ अलग-थलग रहती थी और शैक्षिक गतिविधयों के दौरान अपने सहपाठियों के साथ शामिल नहीं होती थी. हमारे स्वयंसेवकों ने उन्हें कक्षा में होने वाले खेलों से जोड़ना शुरू किया और यह पता लगाने की कोशिश की कि वह सबस अलग क्यों रहती हैं?
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सफीना ने कहा, सहयोग मिलने के एक साल बाद अंतिमबाला अब सहजता से अपने पाठ्यपुस्तक की कहानियां पढ़ सकती है और उसका आत्मविश्वास भी काफी बढ़ा है. NGO शुरू करने से पहले वह दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में करीब 10 साल तक विभिन्न परियोजनाओं से जुड़ी रहीं. उन्होंने कहा, मैं अपने दिली एजेंडे..यानी लड़कियों की शिक्षा के लिए भारत लौटी. शुरू से ही भारतीय शिक्षा प्रणाली में बदलाव लाने को लेकर मेरे अंदर निजी तौर पर मजबूत प्रेरणा थी, क्योंकि मैंने भी अपनी मंजिल शिक्षा के जरिए ही पाई थी.
सफीना ने अपने उल्लेखनीय सफर की शुरुआत सालों पहले की थी और अब तक 11,000 टीम बालिका के स्वंयसेवकों की मदद से राजस्थान व मध्यप्रदेश की करीब 200,000 लड़कियां स्कूलों में दाखिला ले चुकी हैं. सफीना का कहना है कि रोजमर्रा के जीवन में ये लड़कियां काफी बड़ी चुनौतियों का सामना कर रही हैं.
उनका कहना है कि लड़कियों को आमतौर पर एक बोझ की तरह देखा जाता है और उन्हें यह यकीन दिला दिया जाता है कि लड़कियों को केवल देखा जाना चाहिए और सुना नहीं जाना चाहिए. उन्होंने नाराजना का उदाहरण देते हुए कहा कि जिसे अवांछित समझा जाता हो, उसकी पीड़ा की कल्पना कीजिए. यह हिंसा है. लड़कियां खुद को कम समझने लगती हैं और यह समझने लगती हैं कि लड़कों की तरह उनका परिवार उन्हें नहीं चाहता है. जो एक परीक्षण परियोजना के रूप में शुरू हुआ. वह अब राजस्थान के 10 और मध्यप्रदेश के 3 जिलों तक फैल चुका है. हालांकि यह यात्रा चुनौती के बिना पूरी नहीं हुई.
सफीना ने बताया कि जब वह लोगों से अपनी बेटियों का दाखिला स्कूलों में कराने के लिए कहतीं तो वह उनके सामने ही दरवाजे बंद कर लेते. लोगों ने उन्हें अपशब्द भी बोले. राजस्थान की भीषण गर्मी में वह और उनकी टीम लगातार घर-घर जाकर लोगों को भरोसे में लेते रहने का काम करती रही. उन्होंने सामुदायिक बैठकें की और स्कूल के अधिकारियों का विश्वास जीता.
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उन्होंने बताया कि उस समय लड़कियों की शिक्षा को लेकर आज के दौर की तरह जागरूकता नहीं थी. उदयपुर की कक्षा तीन की एक 11 वर्षीय छात्रा ने बताया कि लैंगिक भेदभाव के चलते उसे शिक्षा से दूर रखा गया था. उसकी मां उसे और उसकी बहन को स्कूल नहीं भेजती थी और कहती थी कि लड़कियों के लिए पढ़ाई-लिखाई बेकार है.
उसने बताया कि छह महीनों तक संस्था ने उसकी मां से लगातार बात करने की कोशिश की, जिसके बाद वह स्कूल भेजने के लिए तैयार हो गईं. सफीना ने बताया कि उन्होंने पाली जिले में एक छोटा-सा स्कूल परीक्षण परियोजना शुरू करने का फैसला किया.
राजस्थान सरकार के सहयोग और स्थानीय टीम की मदद से वह सफलतापूर्वक एक पायलट परियोजना का संचालन करती रहीं, जिससे उनके NGO को औपचारिक रूप से 2007 में पंजीकृत होने में मदद मिली.
IANS