बच्चों के रिजल्ट पर झूठ बोलते हैं कई पेरेंट्स? सोशल स्टिग्मा बना रहा दबाव, एक्सपर्ट बोले- इसे नॉर्मलाइज करना जरूरी 

इसी हफ्ते सीबीएसई बोर्ड का रिजल्ट जारी हुआ है. आपने भी कई लोगों को अपने बच्चों का रिजल्ट बढ़ा-चढ़ाकर बताते देखा होगा. ऐसे लोग हमारे आसपास ही होते हैं जो बच्चों ही नहीं आपके सामने ही दूसरों से झूठ बोल देते हैं. इस झूठ का बच्चों पर क्या असर पड़ता है, व‍िशेषज्ञ से जान‍िए.

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What Impact of parents lies on teenagers (Representational Image by AI) What Impact of parents lies on teenagers (Representational Image by AI)

aajtak.in

  • नई दिल्ली ,
  • 15 मई 2025,
  • अपडेटेड 10:10 PM IST

मेरी बिटिया 95% लाई है, बस मैथ्स में थोड़ा कम रह गए...बेटा भी टॉप 3 में था...अक्सर लोग दूसरों से अपने बच्चों के र‍िजल्ट बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं. रिजल्ट आते ही व्हाट्सएप ग्रुप्स से लेकर मोहल्ले और रिश्तेदारों तक एक अलग ही माहौल बन जाता है. एक-दूसरे के बच्चों के नंबर पूछना, तुलना करना और कई बार सच को छुपाकर रिजल्ट को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना एक चलन-सा बन गया है. 

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शायद ही उन पेरेंट्स के मन में ये ख्याल आता हो कि ये झूठ सिर्फ एक सामाजिक दिखावा नहीं, बल्कि बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर एक अनजाना बोझ भी डाल रहा है? आइए जानते हैं कि मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट हमेशा रिजल्ट को नॉर्मलाइज करने की बात क्यों करते हैं. 

सोशल स्टिग्मा का नाम है '100 में 100'

हमारे समाज में रिजल्ट का मतलब सिर्फ नंबर रह गया है. आपके बच्चे के कितने नंबर आए, इस एक सवाल में ही एक अनकहा दबाव छुपा होता है. यही कारण है कि कई पैरेंट्स अपने बच्चों के असली मार्क्स छुपा लेते हैं या उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं. बच्चा अगर 75% लाता है तो कई बार पैरेंट्स 85% बता देते हैं सिर्फ इसलिए ताकि कोई कुछ कह न दे. 

क्या कहती हैं चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट?

चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट डॉ. व‍िध‍ि एम पिलन‍िया कहती हैं कि जब पैरेंट्स अपने बच्चे की परफॉर्मेंस को छुपाते हैं या झूठ बोलते हैं, तो वे अनजाने में बच्चे को ये संदेश देते हैं कि उसका रिजल्ट शर्मनाक है. इससे बच्चे की सेल्फ-वैल्यू पर सीधा असर पड़ता है. ऐसे में कई बच्चे खुद को अपने पैरेंट्स के ‘शो ऑफ’ से मैच करने की कोशिश में एंग्जायटी और लो सेल्फ एस्टीम का शिकार हो जाते हैं. 

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क्या मैं पढ़ाई में अच्छा नहीं हूं?
आज के बच्चे भी समझदार हैं. उन्हें पता होता है कि उन्होंने कितना स्कोर किया है. जब पैरेंट्स दूसरों से कुछ और बताते हैं, तो बच्चे के मन में एक उलझन शुरू हो जाती है.ये एक अनजाना शर्म का एहसास बन जाता है जो धीरे-धीरे उनके आत्मविश्वास को खत्म कर देता है. 

टॉपर्स की रेस या टॉर्चर की?

साइकेट्र‍िस्ट डॉ अन‍िल स‍िंह शेखावत कहते हैं कि सोशल मीडिया पर टॉपर्स के इंटरव्यू, उनके रूटीन, कितनी देर पढ़े – जैसी बातें वायरल होती हैं. यहां तक कि स्कूल भी टॉपर्स की तस्वीरें लगाते हैं, बाकी बच्चों को कहीं दिखाया ही नहीं जाता. ऐसे में 70%, 60% लाने वाले बच्चों को लगता है कि वे कमतर हैं. मनो विज्ञान के अनुसार हर बच्चा यूनिक होता है. उसमें अपनी खूब‍ियां होती हैं लेकिन जब हम रिजल्ट को ही वैल्यू का पैमाना बना देते हैं तो उसकी बाकी सारी क्षमताएं दब जाती हैं. 

तो पैरेंट्स क्या करें?

रिजल्ट को 'सिर्फ एक फेज' की तरह लें, फाइनल पहचान नहीं. 
बच्चे से पहले खुद स्वीकार करें कि नंबर सब कुछ नहीं हैं. 
रिश्तेदारों या सोसाइटी को जवाब देने की जरूरत नहीं, बच्चे को सपोर्ट देने की जरूरत है. 
अपने बच्चे की खूबियों को पहचानें चाहे वो म्यूजिक में हो, स्पोर्ट्स में या क्रिएटिव फील्ड में. 
झूठ बोलने की बजाय खुले में बात करें. इससे बच्चा खुद को एक्सेप्ट करेगा और आगे बढ़ेगा. 

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रिजल्ट को नॉर्मलाइज करना क्यों जरूरी है?

जब एक बच्चा 60% लाता है और अपने पैरेंट्स के साथ गर्व से कह पाता है  कि 'हां, यही मेरा रिजल्ट है और मैं खुश हूं' तब समाज में असली बदलाव आता है. रिजल्ट को नॉर्मलाइज करने का मतलब है कि हम ये मान लें कि सभी बच्चे अलग-अलग होते हैं. कोई नंबर में अच्छा होगा, कोई आइडियाज में. किसी की सोच तेज होगी, किसी की संवेदनशीलता. ये समझ हमें बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक हेल्दी माहौल बनाने में मदद करेगी. 

इसलिए पेरेंट्स के तौर पर हमें सोचना होगा कि बच्चों के रिजल्ट पर झूठ बोलकर भले ही दूसरों को इम्प्रेस कर लें, लेकिन अपने बच्चे को एक खामोश ताना दे बैठते हैं  कि तू वैसा नहीं है जैसा मैं चाहता था. और यही बात उसे सबसे ज्यादा तोड़ती है. 

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