नेशनल एजुकेशन पॉलिसी... क्यों सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी योजना की राह में आ रहा तमिलनाडु?

न्यू एजुकेशन पॉलिसी के तहत, प्राइमरी कक्षाओं (कक्षा 1 से 5 तक) में पढ़ाई मातृभाषा या स्थानीय भाषा में कराने की सिफारिश की गई थी. हालांकि, तमिलनाडु में इस नीति का विरोध हो रहा है, क्योंकि वहां पहले से ही 2-लैंग्वेज पॉलिसी लागू है, जिसमें छात्रों को केवल तमिल और अंग्रेजी पढ़ाई जाती है. नए एजुकेशन पॉलिसी के तहत त्रिभाषा व्यवस्था पर केंद्र सरकार और तमिलनाडु सरकार के बीच विवाद छिड़ा हुआ है. तमिलनाडु सरकार का कहना है कि राज्य में हिंदी को अनिवार्य रूप से पढ़ाना स्वीकार नहीं किया जाएगा. दक्षिण भारत, विशेष रूप से तमिलनाडु में, इस नीति के खिलाफ विरोध होता रहा है, क्योंकि वहां के लोग मानते हैं कि इस निर्णय से उनकी मातृभाषाओं (तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम) को नुकसान होगा.

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Tamilnadu CM Mk. Stalin Tamilnadu CM Mk. Stalin

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 11 मार्च 2025,
  • अपडेटेड 12:38 PM IST

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 में छात्रों को स्कूलों में तीन भाषाओं की पढ़ाई अनिवार्य करने का प्रस्ताव है. त्रिभाषा फॉर्मूला भारत में भाषाई शिक्षा से जुड़ी एक नीति है, जिसे पहली बार 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रस्तावित किया गया था. इसका उद्देश्य छात्रों को तीन भाषाओं में शिक्षित करना था, जिसमें राज्य की क्षेत्रीय भाषा या मातृभाषा, हिंदी और अंग्रेजी शामिल थे. इसके अलावा, एक अन्य आधुनिक भारतीय भाषा को भी शामिल करने की सलाह दी गई थी, जैसे गैर-हिंदी राज्यों के लिए हिंदी और हिंदी राज्यों के लिए कोई दक्षिण भारतीय भाषा. इस फॉर्मूले को 1986 और 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी जारी रखा गया, हालांकि हर राज्य ने इसे अलग तरीके से लागू किया.

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इस नीति के तहत, प्राइमरी कक्षाओं (कक्षा 1 से 5 तक) में पढ़ाई मातृभाषा या स्थानीय भाषा में कराने की सिफारिश की गई थी. हालांकि, तमिलनाडु में इस नीति का विरोध हो रहा है, क्योंकि वहां पहले से ही 2-लैंग्वेज पॉलिसी लागू है, जिसमें छात्रों को केवल तमिल और अंग्रेजी पढ़ाई जाती है. नए एजुकेशन पॉलिसी के तहत त्रिभाषा व्यवस्था पर केंद्र सरकार और तमिलनाडु सरकार के बीच विवाद छिड़ा हुआ है. तमिलनाडु सरकार का कहना है कि राज्य में हिंदी को अनिवार्य रूप से पढ़ाना स्वीकार नहीं किया जाएगा. दक्षिण भारत, विशेष रूप से तमिलनाडु में, इस नीति के खिलाफ विरोध होता रहा है, क्योंकि वहां के लोग मानते हैं कि इस निर्णय से उनकी मातृभाषाओं (तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम) को नुकसान होगा.

फंड की राशि को लेकर छिड़ी बहस

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हाल ही में, इस मुद्दे की शुरुआत तब हुई जब मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने यह दावा किया कि केंद्र सरकार ने समग्र शिक्षा अभियान के लिए 2140 रुपये तक की राशि देने से इनकार कर दिया था. इस पर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अन्नामलाई ने पलटवार करते हुए सीएम स्टालिन को झूठा बताया और कहा कि यह राशि अभी तक जारी नहीं की गई है. तमिलनाडु सरकार के शिक्षा मंत्री अंबिल महेश ने यह दावा किया कि केंद्र सरकार ने गुजरात और उत्तर प्रदेश को तो फंड जारी किया, लेकिन तमिलनाडु को नहीं दिया.

मंत्री महेश ने यह भी आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने तमिलनाडु को समग्र शिक्षा अभियान के फंड के लिए पीएम श्री योजना में शामिल होने का दबाव डाला, ताकि राज्य को नई शिक्षा नीति और तीन भाषा नीति को स्वीकार करना पड़े. केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने यह स्पष्ट किया कि तमिलनाडु को समग्र शिक्षा मिशन के लिए 2400 करोड़ रुपये मिलेंगे, लेकिन यह राशि तब तक नहीं दी जाएगी जब तक राज्य पूरी तरह से राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अपनाता नहीं है.

न्यू एजुकेशन पॉलिसी हिंदी को बढ़ावा देना नहीं है- शिक्षा मंत्री

मुख्यमंत्री स्टालिन ने इस पर प्रतिक्रिया दी और भाजपा पर हिंदी थोपने का आरोप लगाया, साथ ही कहा कि त्रिभाषा नीति कभी लागू नहीं होगी. हालांकि, धर्मेंद्र प्रधान ने यह भी स्पष्ट किया कि नई शिक्षा नीति का उद्देश्य हिंदी को बढ़ावा देना नहीं है, बल्कि यह मातृभाषा को बढ़ावा देने पर जोर देती है. तमिलनाडु के शैक्षिक विशेषज्ञों का मानना है कि NEP हिंदी और संस्कृत को बढ़ावा देगी, और इसके व्यावहारिक निहितार्थ के कारण इसे लागू करना मुश्किल होगा. ‘स्टेट प्लेटफॉर्म फॉर कॉमन स्कूल सिस्टम’ द्वारा 2020 में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री को सौंपे गए एक ज्ञापन में दावा किया गया था कि NEP का असल उद्देश्य संस्कृत को बढ़ावा देना है.

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आजादी के बाद से ही बहस का चर्चा बनी हुई है भाषा

भाषा के पीछे तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच हो रही ये बहस नई नहीं है. इसका इतिहास 85 साल पुराना है. दरअसल, पहले भी 1937 के बाद ब्रिटिश शासन के दौरान मद्रास प्रेसिडेंसी (अब तमिलनाडु) में हिंदी को स्कूलों में अनिवार्य करने की कोशिश हुई थी, उस दौरान भी इसको लेकर विरोध हुआ था. यह विरोध द्रविड़ मुनेत्र कड़गम यानी डीएमके ने की थी. इस विरोध के कारण हिंदी को स्कूलों से हटाना पड़ा था. इसके बाद भी 1965 में पूर देश में हिंदी भाषा को एक आधिकारिक भाषा बनाए जाने पर बहस छिड़ी थी. इस दौरान भी तमिलनाडु में विरोध प्रदर्शन हुआ. इसके बाद केंद्र सरकार को फिर एक बार पीछे हटना पड़ा था और अब फिर एक बार नेशनल एजुकेशन पॉलिसी का तमिलनाडु में विरोध हो रहा है.

हिंदी को अनिवार्य बनाए जाने का डर

2020 की नई शिक्षा नीति (NEP-2020) में त्रिभाषा फॉर्मूला जब दोबारा शामिल किया गया, तो यह स्पष्ट किया गया कि किसी भी भाषा को जबरदस्ती लागू नहीं किया जाएगा. त्रिभाषा फॉर्मूला का उद्देश्य भारत की भाषाई विविधता को बढ़ावा देना था, लेकिन हिंदी को अनिवार्य बनाए जाने के डर से दक्षिण भारत में इसका विरोध होता है. विशेष रूप से तमिलनाडु इसे सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान के खिलाफ मानता है. 

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दरअसल, दक्षिण भारत में कई राजनीतिक दल, विशेष रूप से द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके), हिंदी को उत्तर भारतीय वर्चस्व का प्रतीक मानते हैं. ये एक ऐसी पार्टी की है जो तमिल विरासत, तमिल पहचान, तमिल सिनेमा, तमिल साहित्य पर गर्व करती है. इसके चलते हिंदी को थोपने को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच लगातार टकराव होते रहे हैं. दक्षिण भारतीय राज्यों में अंग्रेजी को हिंदी से कहीं अधिक व्यावहारिक और अंतरराष्ट्रीय अवसरों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है. इन राज्यों के लोग हिंदी के बजाय अंग्रेजी को प्राथमिकता देना चाहते हैं.

क्या तमिलनाडु केंद्र को एनईपी लागू करने से रोक सकती है?

संविधान कहता है कि पूरे देश में नेशनल एजुकेशन पॉलिसी लागू की जा सकती है लेकिन अगर राज्य चाहे तो. अगर राज्य केंद्र के नेशनल एजुकेशन पॉलिसी को अपनाने से मना कर देता है तो वह कानूनन सही होगा. केंद्र सरकार किसी भी राज्य को एनईपी अपनाने के लिए बाध्य नहीं कर सकती. यही कारण है कि तमिलनाडु सरकार ने अपने स्कूलों में एनईपी की त्रिभाषी पॉलिसी को लागू नहीं किया है.

केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने हाल ही में कहा था कि शिक्षा को समवर्ती सूची से राज्य सूची में वापस लाया जाना चाहिए. बता दें कि संविधान के अनुसार शिक्षा समवर्ती सूचि में है. समवर्ती सूची (Concurrent List) भारतीय संविधान में वह सूची है जिसमें केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त होता है. यह सूची संविधान के 7वीं अनुसूची में शामिल है और इसमें उन विषयों को रखा गया है जिन पर केंद्र और राज्य दोनों ही अपनी-अपनी शक्तियों के अनुसार कानून बना सकते हैं. इसमें शिक्षा भी शामिल है.

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