Advertisement

एजुकेशन न्यूज़

मिमी फिल्म देखकर कन्फ्यूज न हों, पेट में पल रहा बच्चा नॉर्मल है या नहीं, ऐसे लगाते हैं पता

मानसी मिश्रा
  • नई द‍िल्ली ,
  • 06 अगस्त 2021,
  • अपडेटेड 12:01 PM IST
  • 1/11

बीते हफ्तों आई 'मिमी' फिल्म को लोगों ने खूब पसंद किया. सरोगेसी यानी क‍िराये की कोख विषय पर आधारित इस फिल्म ने दर्शकों को खूब रुलाया भी. इसकी वजह होती है फिल्म में आया ऐसा ट्विस्ट जिससे बहुत कुछ बदल जाता है. ये ट्विस्ट है जब डॉक्टर टेस्ट रिपोर्ट देखकर मिमी यानी सेरोगेट मदर के पेट में पल रहे बच्चे में डाउन सिंड्रोम होने की बात कहती है. लेकिन बाद में बच्चा नॉर्मल पैदा होता है.

इस तरह दर्शकों में कहीं न कहीं ये बात मन में बैठ जाती है कि अगर डॉक्टर बच्चे को एबनॉर्मल बताती हैं और बच्चा नॉर्मल पैदा होता है तो आख‍िर ऐसी रिपोर्ट्स पर भरोसा कैसे करें. डॉक्टर मिमी फिल्म के उस सीक्वेंस से दर्शकों को कन्फ्यूज न होने की सलाह देती हैं. आइए जानते हैं कि आख‍िर बच्चे के डाउन सिंड्रोम के बारे में कोई पेरेंट्स  कैसे पूरी तरह जानकर फैसला ले सकते हैं. 

  • 2/11

आपको ये तथ्य समझने से पहले मिमी फिल्म का बैकग्राउंड जरूर समझना होगा. आइए आपको पहले संक्षेप में फिल्म की कहानी बताते हैं. इसमें होता कुछ यूं हैं कि अमेरिका से आया एक कपल भारत में अपने लिए सरोगेट मदर तलाश रहा है. उनकी ये तलाश पूरी होती है फिल्म की ह‍ीरोइन कृत‍ि सेनन यानी मिमी को देखकर. अपने ड्राइवर के जरिये किसी तरह वो मिमी को अपनी कोख किराये पर देने को राजी कर लेते हैं. 

 

  • 3/11

वहीं, महत्वाकांक्षी मिमी पैसों के लालच में आकर मां बनने का प्रस्ताव स्वीकार कर लेती है. फिर तमाम टेस्ट के बाद किसी तरह वो आईवीएफ तकनीक के जरिये उस कपल के बच्चे की मां बनती है. कपल उसका पूरा खर्च उठाने लगते हैं. फिर मिड प्रेग्नेंसी में मिमी जो टेस्ट कराती है, उसके आधार पर डॉक्टर बच्चे में डाउन सिंड्रोम होने की पुष्ट‍ि कर देती है. अमेरिकी कपल इस बात से पूरी तरह टूट जाता है और मिमी से मिले बिना सिर्फ उस तक ये बात पहुंचाकर कि वो बच्चा गिरा दे, वापस अमेरिका लौट जाता है. 

Advertisement
  • 4/11

अब ऐसे हालात में मिमी बच्चा न गिराने का फैसला लेते हुए तमाम सामाजिक व्यंचनाओं का सामना करते हुए बच्चे को जन्म देती है. लेकिन जन्म के बाद पता चलता है कि बच्चा पूरी तरह नॉर्मल है. जिस अस्पताल में वो डिलीवरी कराती है, वहां की डॉक्टर बताती है कि कई मामलों में ये रिपोर्ट गलत साबित हो जाती है और बच्चा सामान्य होता है. बस दर्शकों का कन्फ्यूजन यहीं से शुरू होता है. 

  • 5/11

अगर पेट में बच्चा नॉर्मल है तो भी क्या टेस्ट से ये साबित नहीं हो सकता. लेडी हार्ड‍िंग मेडिकल कॉलेज दिल्ली की प्रो डॉ मंजू पुरी कहती हैं कि इस फिल्म ने प्रेग्नेंसी के दूसरे चरण से गुजर रही मांओं में बहुत कन्फ्यूजन पैदा किया है. अमूमन लेवल टू अल्ट्रासाउंड और कुछ टेस्ट के जरिये बच्चे के शारीरिक मानसिक विकास का पता लगाया जाता है. इन रिपोर्ट के सहारे ही माता-पिता गर्भ में पल रहे बच्चे को लेकर फैसला लेते हैं, लेकिन मांओं में ये कन्फ्यूजन है कि अगर रिपोर्ट गलत साबित हुई और बच्चा नॉर्मल हुआ तो ये उनके लिए कितना कठ‍िन होगा. 

  • 6/11

सबसे पहले जानिए कि ये डाउन सिंड्रोम होता क्या है. इसके जवाब में डॉक्टर बताते हैं कि हमारे बॉडी के सेल्स में जेनेटिक मैटिरियल क्रोमोसोम नामक बंडल में पैक होते हैं. डाउन सिंड्रोम हमेशा गर्भधारण के समय होता है. ये वो समय होता है जब डिंब और वीर्य के आनुवांशिक बंडल आपस में मिलते हैं. इसे ट्राइसमी 21 के नाम से भी जाना जाता है.

अभी ये साफ नहीं है कि ऐसा किस कारण से होता है, मगर यह किसी कपल के भी साथ हो सकता है.  वैसे तो किसी भी उम्र की महिला डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त शिशु को जन्म दे सकती है, लेकिन अध‍िकतर मामलों में देखा गया है कि 35 साल से अध‍िक उम्र की महिलाओं में डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त शिशु को जन्म देने की आशंका ज्यादा होती है. 

Advertisement
  • 7/11

डाउन सिंड्रोम ऐसी मानसिक समस्या है जिससे पढ़ने-लिखने और सीखने से जुड़ी परेशानियां होती हैं. ये परेशानियां कुछ बच्चों में कम लक्षणों के साथ तो कुछ में ज्यादा के साथ नजर आती हैं. इसलिए डॉक्टर हर गर्भवती महिला और विशेष रूप से 35 साल से अधिक उम्र की महिलाओं को स्क्रीनिंग टेस्ट की सलाह जरूर देती है. स्क्रीनिंग टेस्ट में कोई दिक्कत आने पर डॉक्टर आगे के टेस्ट कराने की सलाह देती हैं जिसके बाद ही ये बात पुख्ता पता चल पाती है कि माता-पिता को कोई सख्त फैसला लेना है या नहीं. 
 

  • 8/11

डाउन सिंड्रोम के दो चरणों में टेस्ट होते हैं 

सबसे पहले स्क्रीनिंग टेस्ट होता है जिसे लेवल टू अल्ट्रासाउंड भी कहते हैं. अगर इसमें शिशु को डाउन सिंड्रोम होने की उच्च संभावना बताई जाती है तो इसके बाद ही डॉक्टर डायग्नोस्टिक टेस्ट कराने की सलाह देते हैं. डायग्नोस्टिक टेस्ट में कोरियोनिक विलस सेम्पलिंग (सीवीएस) और एमनियोसेंटेसिस ऐसे टेस्ट हैं जिससे आमतौर पर आपको सटीक उत्तर मिल जाता है. वैसे डॉक्टरों का कहना है कि कई बार इस तरह की डायग्नोस्टिक जांचों से गर्भपात होने का खतरा भी रहता है, लेकिन ऐसा कम ही मामलों में होता है. इसलिए डॉक्टर कभी सिर्फ स्क्रीनिंग टेस्ट को ही पुख्ता नहीं मानते, न किसी पेरेंट्स को इस टेस्ट के आधार पर फैसला लेने को कहा जाता है. 

  • 9/11

फर्स्ट ट्राइमेस्टर स्क्रीनिंग 
किसी महिला की 11 से 13 हफ्तों की प्रेग्नेंसी के दौरान एक विशेष अल्ट्रासाउंड स्कैन कराया जा सकता है, जिसे न्यूकल ट्रांसल्यूसेंसी (एनटी) स्कैन कहा जाता है. इस स्कैन में मापा जाता है कि गर्भस्थ शिशु की गर्दन के पीछे की तरफ त्वचा के नीचे कितना तरल है. इससे डाउन सिंड्रोम के खतरे का पता लगाया जाता है. 

 

Advertisement
  • 10/11

डबल मार्कर टेस्ट जरूरी 
इस जांच में एचसीजी (hCG, ह्यूमन कोरियोनिक गोनाडोट्रॉफिन) और पैप-ए (PAPP-A, प्रेग्नेंसी एसोसिएटेड प्लाज्मा प्रोटीन) के स्तरों को मापा जाता है. अगर किसी महिला के गर्भ में डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त शिशु पल रहा हो, तो उसके खून में एचसीजी और पैप-ए दोनों का असामान्य स्तर पाया जाएगा. अगर कुशल डॉक्टर और अच्छी गुणवत्ता की स्कैनिंग मशीन से ये टेस्ट होते हैं तो ये काफी सटीक होते हैं. 

  • 11/11

ऐसे में ये कहा जा रहा है कि आज भारत में मेडिकल साइंस डाउन सिंड्रोम का काफी सटीक परीक्षण करने में सफल हो चुकी है. फिल्मों में इस तरह की पटकथा दर्शकों में कन्फ्यूजन पैदा करती है. डॉ मंजू पुरी कहती हैं कि महज एक टेस्ट से कभी ये फैसला नहीं लिया जा सकता कि बच्चे में वाकई इस तरह की गंभीर समस्या है. डॉक्टर इसके लिए कई सारे टेस्ट के बाद जब फैसला लेते हैं उसमें बच्चे के नॉर्मल होने की गुंजाइश बहुत कम होती है. इसलिए गर्भवती मांओं को ऐसे सीक्वेंस से बहुत कन्फ्यूज नहीं होना चाहिए. एक रिपोर्ट खराब होने पर अन्य डायग्नोस्ट‍िक टेस्ट जरूर कराने चाहिए. 

Advertisement
Advertisement