कब बनेगी कोरोना की दवा, जानिए अब इजराइल की तरफ क्यों देख रही है दुनिया

इजराइल के दावे के मुताबिक अगर कोरोना वायरस को खत्म करने वाले एंटीबॉडी का टेस्ट कामयाब भी हो जाता तो भी उसे वैक्सीन के रूप में आने में अभी वक्त लगेगा. क्योंकि इंसानों को लगाने से पहले इस वैक्सीन के लिए जो-जो जरूरी प्रक्रियाएं हैं. उन्हें तो IIBR को पूरा करना ही पड़ेगा.

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कोरोना की दवा बनाने के लिए कई देशों के वैज्ञानिक और डॉक्टर रात-दिन रिसर्च कर रहे हैं कोरोना की दवा बनाने के लिए कई देशों के वैज्ञानिक और डॉक्टर रात-दिन रिसर्च कर रहे हैं

aajtak.in / परवेज़ सागर

  • नई दिल्ली,
  • 13 मई 2020,
  • अपडेटेड 10:10 PM IST

  • सारी दुनिया ने इजराइल को दिया मदद का भरोसा
  • अमेरिका ने इस कोशिश से खींच लिए हैं अपने हाथ

कोरोना वैक्सीन दुनिया का कोई भी देश या लैब बनाए, उसे आते-आते काफी वक्त लग जाएगा. ऐसे में कोरोना से निपटने के लिए इजराइल की कोशिश यकीनन उम्मीद की किरण साबित हो सकती है. लिहाजा अब पूरी दुनिया बड़ी उम्मीद भरी निगाहों से इजराइल की तरफ देख रही है. हालांकि मोनोक्लोनल एंटीबॉडी को कोरोना का इलाज मान भी लें. तो भी अभी इसे कई पैमानों से होकर गुजरना है और इन तमाम चीजों में कुछ महीने का वक्त और लगेगा.

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इजराइल के दावे के मुताबिक अगर कोरोना वायरस को खत्म करने वाला एंटीबॉडी का टेस्ट कामयाब भी हो जाता तो भी उसे वैक्सीन के रूप में आने में अभी वक्त लगेगा. क्योंकि इंसानों को लगाने से पहले इस वैक्सीन के लिए जो-जो जरूरी प्रक्रियाएं हैं. उन्हें तो इजराइल इंस्टीट्यूट फॉर बायोलॉजिकल रिसर्च यानी IIBR को पूरा करना ही पड़ेगा.

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कोई भी टीका पहले जानवरों पर आजमाया जाता है फिर उसका क्लीनिकल ट्रायल शुरू होता है. परीक्षण के दौरान ये ख्याल रखना पड़ता है कि वैक्सीन पूरी तरह सुरक्षित है या नहीं. टीका वही सफल माना जाता है, जिससे 60 से 70 फीसदी बीमारी ठीक हो सके. टीके का क्या साइड इफेक्ट है. बिना इसके अध्ययन के टेस्ट कामयाब नहीं माना जाता है. किसी टीके का क्लीनिकल ट्रायल उसके विकास का सबसे जरूरी पड़ाव है. किसी भी टीके का क्लीनिकल परीक्षण हर आयु के लोगों पर किया जाता है. सौ फीसदी सफल होने के बाद ही किसी टीके का औद्योगिक उत्पादन शुरू होता है.

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इस पूरी प्रकिया में कई महीनों का वक्त लग सकता है. कोरोना की गंभीरता को देखते हुए अगर सरकारी कार्रवाई में तेजी भी लाई जाए तो क्लीनिकल ट्रायल के लिए जो जरूरी वक्त है वो तो देना ही पड़ेगा. यानी तब भी कुछ महीने लग जाएंगे. और वैक्सीन के इजाद के बाद सबसे बड़ी चुनौती है इसका औद्योगिक उत्पादन क्योंकि इसके बनने के बाद पूरी दुनिया को ये वैक्सीन चाहिए होगी. जिसके लिए बहुत ज्यादा फंड की भी जरूरत पड़ेगी. हालांकि अच्छी बात ये है कि दुनिया इस दिशा में सोच रही है. यूरोपीय संघ के मुताबिक विश्व के नेताओं ने कोरोना से लड़ने के लिए 8 अरब डॉलर की राशि जुटाने का वादा किया है. हालांकि अमेरिका ने इस मुहिम में शामिल होने से इनकार कर दिया है.

अब आते हैं मोनोक्लोनल एंटीबॉडी के साइड इफेक्ट पर. बिना इसकी चर्चा के कोई भी टेस्ट ना तो कामयाब है और ना ही इस्तेमाल करने के लायक. अमरीका के नेशलन कैंसर इंस्टिट्यूट के मुताबिक मोनोक्लोनल एंटीबॉडी के कई तरह के साइड इफेक्ट भी हो सकते हैं. जो इस पर निर्भर करेगा कि इलाज से पहले मरीज कितना सेहतमंद है. बीमारी कितनी गंभीर है और किस तरह की एंटीबॉडी और उसका कितना डोज मरीज को दिया जा रहा है. ज्यादातर इम्यूनोथेरेपी की तरह ही मोनोक्लोनल एंटीबॉडी देने पर निडल वाली जगह स्किन रिएक्शन हो सकता है और फ्लू जैसे लक्षण भी हो सकते हैं. मगर ये तो इसके सिर्फ हल्के साइड-इफेक्ट होते हैं.

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मोनोक्लोनल एंटीबॉडी के बड़े साइड-इफेक्ट के बारे में जानकारों का कहना है कि इसकी वजह से मुंह और स्किन पर फोड़े हो सकते हैं. जिससे गंभीर इंफेक्शन का खतरा होता है. हार्ट फेल हो सकता है. हार्ट अटैक आ सकता है या लंग्स की गंभीर बीमारी हो सकती है. हालांकि बहुत कम मामलों में ही इतना गंभीर रिएक्शन होता है कि इंसान की मौत हो जाए. इस तरह की वैक्सीन विकसित करने के लिए आम तौर पर जानवरों पर प्री-क्लीनिकल ट्रायल की लंबी प्रक्रिया करनी होती है. जिसके बाद क्लीनिकल ट्रायल होते हैं. इस दौरान साइड-इफेक्ट को समझा जाता है और देखा जाता है कि अलग-अलग तरह के लोगों पर इसका क्या असर हो सकता है.

फरवरी में जापान, इटली और दूसरे देशों से वायरस सैंपल लेकर पांच शिपमेंट इजराइल पहुंची थी. तभी से वहां वैक्सीन बनाने की कोशिशें जारी थीं. दुनियाभर में रिसर्च टीमें कोविड-19 की वैक्सीन बनाने में जुटी हैं. कई सरकारी और प्राइवेट संस्थाओं ने कोविड-19 का इलाज ढूंढ लेने का दावा भी किया. लेकिन अभी तक किसी की भी पूरी तरह से पुष्टि नहीं हो सकी है. ऐसे में सवाल ये कि आखिर इजराइल ने ये सब इतनी जल्दी कैसे कर लिया. जबकि मेडिकल सुविधाओं और रिसर्च के मामले में इजराइल से भी आगे के देश अभी तक इससे जूझ रहे हैं.

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दरअसल इसकी दो वजह हैं. पहली तो ये कि ये खोज इंस्टीट्यूट ऑफ बायोलॉजिकल रिसर्च की है. जिसे केमिकल और बायोलॉजिकल वेपन पर रिसर्च के मामले में सबसे तगड़ी माना जाता है. और ये सीधे इजराइल के प्राइम मिनिस्टर को रिपोर्ट करता है. दूसरी वजह ये है कि कोरोना वायरस के शुरू होने के पहले से ही इजराइल इस वायरस की पूरी फैमिली पर 2015 से रिसर्च कर रहा था. और इसे इत्तेफाक कहिए या इजराइल की किस्मत कि इस महामारी से पहले ही यहां कोरोना फैमिली के वायरस पर काफी डीप रिसर्च हो रही थी.

इजराइल की ये किस्मत हो या उसके लिए इत्तेफाक हो. मगर दुनिया के लिए राहत की खबर है. और बिलकुल ठीक टाइम पर ये कोरोना को बेअसर करने वाला मोनोक्लोनल एंटीबॉडी लैब से निकलकर सामने आ गया. उम्मीद की जा रही है कि जल्द ही इंसानों पर इसका टेस्ट शुरु हो जाएगा. और इस नई थेरेपी से लोगों की जान बच सकेगी.

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