आज की तारीख में EMI पर किसी भी चीज को खरीदना बड़ा आसान होता है. खासकर त्योहारी सीजन में ई-कॉमर्स कंपनियां ग्राहकों को लुभाने के लिए नो-कॉस्ट ईएमआई (No Cost EMI) में सामान लोगों को बेच रही होती हैं, ताकि ज्यादा से ज्यादा सामान बेचा जा सके और ग्राहकों का ध्यान अपनी तरफ खींचा जा सके. इसकी वजह से हर कोई अपनी पसंद की चीज बड़ी आसानी से खरीद लेता है.
खासकर, मिलेनियल यानी नौजवान पीढ़ी के लोग इस ऑफर का सबसे ज्यादा फायदा उठाते हैं. लेकिन, एक कहावत है कि-‘ इस दुनिया में ‘फ्री लंच’ यानी कि मुफ्त भोजन के जैसा कुछ भी नहीं होता.' तो ऐसे में ये नो-कॉस्ट EMI का फायदा लोगों को मिलता कैसे हैं? क्या वाकई फायदा होता है ग्राहकों को? कैसे ग्राहक को फंसाती हैं कंपनियां? क्या होता है पूरा गणित? आइए जानते हैं.
No Cost EMI पर रिजर्व बैंक ने 17 सितंबर 2013 को एक सर्कुलर जारी करते हुए कहा था कि, 'कोई भी लोन ब्याज मुक्त नहीं है.' क्रेडिट कार्ड के आउटस्टैंडिंग अमाउंट पर जीरो परसेंट EMI स्कीम में ब्याज की रकम की वसूली अक्सर प्रोसेसिंग फीस के रूप में कर ली जाती है. उसी तरह, कुछ बैंक लोन का ब्याज प्रॉडक्ट से वसूल रहे हैं. नो-कॉस्ट EMI दिखने में जीरो इंटरेस्ट का लगता है पर होता नहीं है. ग्राहक को उसे चुकाना पड़ता है पर वो ग्राहक को दिखता नहीं है.
आखिर नो-कॉस्ट EMI होता क्या है?
जब ग्राहक किसी सामान की किस्तों में यानी कि EMI पर खरीदारी करते हैं, तो ग्राहक को तय समय में ही सामान की कीमत को चुकाना पड़ता है, जिसके साथ ब्याज भी लगता है. दूसरी तरफ जब हम नो-कॉस्ट EMI पर सामान लेते हैं तो हमे सिर्फ प्रोडक्ट की कीमत EMI के तौर पर देने होते हैं. इसमें अलग से किसी प्रकार का कोई ब्याज देना नहीं पड़ता है.
नो-कॉस्ट ईएमआई सिस्टम कैसे काम करता है?
नो-कॉस्ट EMI पूरी तरह से किसी भी सामान को बेचने के लिए मार्केटिंग का एक तरीका होता है. बाजार में जितने भी रिटेलर्स होते हैं उनका एक ही मकसद होता है कि वो ज्यादा से ज्यादा सामान लोगों को नो-कॉस्ट EMI पर बेच सकें.
नो-कॉस्ट EMI हमेशा तीन हिस्सों में बंटा होता है. पहला होता है रिटेलर, दूसरा रारबैंक या फाइनेंस कंपनी और तीसरा होता ग्राहक. नो कॉस्ट EMI हमेशा दो तरीको से काम करता है. पहले तरीके में नो कॉस्ट EMI पर ग्राहक को प्रोडक्ट पूरी कीमत पर खरीदना पड़ता है. इसमें कंपनियां ग्राहकों को मिलने वाले डिस्काउंट को बैंक को ब्याज के तौर पर देती है. वहीं, दूसरा तरीका यह होता है कि कंपनी ब्याज की राशि को पहले ही प्रोडक्ट की कीमत में शामिल कर देती है.
टैक्स एक्सपर्ट, बलवंत जैन का मानना है कि-‘कभी भी कस्टमर्स को नो-कॉस्ट ईएमआई पर कोई भी सामान नहीं खरीदना चाहिए. हमेशा कंपनियां नो-कॉस्ट ईएमआई में एमआरपी में सामान देती हैं. इस बात की काफी कम गुंजाइश होती है कि डिस्काउंट में आपको प्रोडक्ट मिलेगा. हमेशा ध्यान दें कि ‘कैश इज किंग’. इसलिए कोशिश करें कि कैश में सामान खरीदें, वरना आप कर्ज के जाल में फस जाएंगे. क्योंकि, कंपनियां डिस्काउंट आपको नहीं देतीं, बल्कि फाइनेंस कंपनियों को पास-ऑन करती है.’
1.जब डिस्काउंट होता है इंटरेस्ट के बराबर:
‘नो-कॉस्ट EMI’ के द्वारा दिया गया डिस्काउंट ब्याज के पूरी रकम के बराबर होता है. मान लीजिए, आपने एक मोबाइल फोन खरीदा जिसकी कीमत 20,000 रुपये की है और EMI तीन महीने की है. जिस पर ब्याज पर 15 फीसदी चार्ज किया गया है. तो आपको 3000 रुपये का कुल ब्याज देना पड़ेगा. मोबाइल बेचने वाली कंपनी तो मैन्युफैक्चरर से MRP पर प्रोडक्ट नहीं खरीदती है. कंपनी ने फोन को 16,000 रुपये में लिया होगा. वहीं कंपनी अपने ग्राहक को अपफ्रंट में 20,000 रुपये की कीमत में फोन बेचती है. ऐसे में कंपनी को 4,000 रुपये का फायदा होता है.
अब बैंक कंपनी को ऐसा कहता है कि अगर कंपनी ग्राहक से प्रोडक्ट की ज्यादा कीमत ग्राहक से कमाना चाहता है तो वो नो-कॉस्ट EMI के विकल्प को लागू करे और उससे हो रहे फायदे का आधा हिस्सा बैंक को दे. ऐसा करने से ग्राहक और कंपनियों दोनो के ही वॉल्यूम में तेजी आती है. इसके कारण ग्राहकों को एक साथ पैसे देने नहीं होते और कंपनियों को इसका फायदा होता है. वहीं बैंक बोलता है कि अब बेचे गए प्रोडक्ट को बेचने के बाद जो फायदा है इसका हिस्सा बैंक को दें. इसमें रिटेलर, बैंक, ग्राहक सभी को एक तरह से फायदा ही होता है.
नो-कॉस्ट EMI पर प्रोडक्ट को कभी MRP से कम पर नहीं बेचा जाता. ताकि, उससे ब्याज का कॉस्ट ग्राहकों से वसूल लिया जाए. मान लीजिए फोन की असल कीमत 16,000 है लेकिन कंपनी उसे 20,000 में बेच रही है. कंपनी ग्राहक को शो कर रही है कि नो-कॉस्ट EMI ऑफर है और उन्हें अलग से कोई चार्ज EMI पर नहीं देनी होगी. लेकिन,इसी में कंपनी अपने मार्जिन को कमा लेती है और बैंक भी. डिस्काउंट प्रोडक्ट हमेशा ग्राहकों को लुभाने का एक तरीका होता है. कीमत आपको किसी न किसी बहाने से चुकाना ही पड़ता है.
मैनेजमेंट कंसल्टेंट समीर कपूर कहते हैं कि- ‘नो कॉस्ट ईएमआई वास्तव में एक छलावा है. कर्ज की लागत या ब्याज इसमें भी ईएमआई में शामिल होते हैं, बस यह ब्रेकअप में पता नहीं चल पाता है. यदि नियमों और शर्तों को ध्यान से पढ़ा जाए तो इसे समझा जा सकता है.
उदाहरण:
नो-कॉस्ट EMI इस तरह से काम करता है:
ऑनलाइन रिटेलर्स का No-cost EMI ऑफर
| मोबाइल फोन की लागत | 20,000 रुपये |
| डिस्काउंट की पेशकश | 3000 रुपये |
| डिस्काउंट के बाद मोबाइल फोन की लागत | 17000 रुपये |
| EMI के तहत लेने पर कुल ब्याज भुगतान | 3000 रुपये |
| आपके द्वारा चुकाई गई कुल राशि | 20,000 रुपये |
स्रोत: मैनेजमेंट कंसल्टेंट समीर कपूर
आपके द्वारा चुकाई गई कुल कीमत को दो भागों में बांट दिया जाता है. एक जो रिटेलर को मिलता है और दूसरा जो फाइनेंसर को पे किया जाता है. दोनो भाग का ब्रेकअप अपफ्रंट में नहीं दिखाया जाता है. अगर आपको फोन की कुल कीमत रिटेलर को देने को कहा गया होता तो शायद आपको फोन डिस्काउंट कीमत 17000 रुपये में ही मिल जाता.
अब चूंकि आपने तीन महीने का EMI प्लान लिया है, इसलिए डिस्काउंट को घटाकर और ब्याज की कीमत जोड़कर आपको कुल 6,667 रुपये का EMI तीन महीने के लिए देना पड़ेगा.
2. जब ब्याज को प्रोडक्ट की कीमत पर ही जोड़ दिया जाता है:
दूसरी तरफ, इस तरह की योजनाओं पर जो तरीका काम आता है वो है ब्याज कॉस्ट को प्रोडक्ट की कीमत पर ही जोड़ देना. मान लीजिए कि आपने जो प्रोडक्ट लिया उसकी कीमत 20,000 रुपये है. रिटेलर ने आपको उस प्रोडक्ट को नो-कॉस्ट EMI स्कीम के तहत 23,000 रुपये में ऑफर किया. यहां, 3000 रुपये ब्याज की कीमत को पहले से ही प्रोडक्ट के दाम में जोड़ दिया गया है और वो आपको तब देना होगा जब आप लोन का रीपमेंट करेंगे.
| प्रोडक्ट की वास्तविक लागत | 20,000 रुपये |
| EMI पर खरीदने पर दिया जाने वाला ब्याज | 3,000 रुपये |
| No-cost EMI स्कीम के तहत ऑफर प्राइस | 23,000 रुपये |
| EMI के तहत चुकाई गई कुल लागत | 23,000 रुपये |
स्रोत: स्रोत: मैनेजमेंट कंसल्टेंट समीर कपूर
इसलिए, अगर आपने तीन महीने का EMI प्लान चुना है तो आपको हर महीने 7,667 रुपये आपको चुकाना पड़ेगा.
इन बातों का रखें ध्यान:
सरबजीत कौर