दिवाली के उत्सव की शुरुआत को महज एक दिन बचा है. घरों में साफ-सफाई का दौर अब खत्म हुआ, लेकिन सजावट जारी है. रंग-बिरंगे फूलों की लड़ियां, बड़ी-बड़ी मालाएं और अशोक और आम के पत्तों के वंदनवार... सिलसिला यहीं तक नहीं रुकेगा, बाजारों ने प्लास्टिक के फूलों के तौर पर सजावट के कई विकल्प दिए हैं और लोग घरों की सजावट में इनका इस्तेमाल भी कर रहे हैं.
बाजार ने बदले हैं सजावट के मायने
बाजार को देखकर समझ आता है कि सजावट के पारंपरिक तौर तरीकों में काफी बदलाव आया है. केले के पत्तों, सनई की छाल की मालाएं, मदार फूलों की कलिकाएं, अनाजों की बालियों से होने वाली सजावट अब बीते दौर की बात है. दशहरा-दिवाली की सजावट कास के सफेद फूलों से भी होती रही है और कुशा की लंबी-लंबी घासों से भी, लेकिन पारंपरिक सजावट में अब आप इनकी मौजूदगी नहीं पाएंगे.
रंगोली है सजावट का पारंपरिक तरीका
लेकिन... अब भी सजावट का एक तौर-तरीका आज भी परंपरा में बना हुआ है. वह है रंगोली. भारतीय त्योहारों की सजावट में दीवारों को सजाने का आशय सिर्फ सुंदरता से है लेकिन फर्श की सजावट पूजा पद्धति से जुड़ी हुई है. इस सजावट में प्रकृति से जुड़ाव के साथ-साथ, समुदाय के चिह्न और आकाशीय ग्रह-नक्षत्रों तक की मौजूदगी दिखाई देती है, लिहाजा रंगोली की चली आ रही प्राचीन परंपरा, फूल-पत्ती, मोर-हंस और सूरज और चंद्रमा की मौजूदगी खास है.
पूजा-पाठ और अनुष्ठान से होते हुए रंगोली खूबसूरत पारंपरिक कला के तौर पर विकसित हुई है. भारत में महिलाएं इसे अपने घर के मुख्य दरवाजे पर, पूजा स्थल पर और त्योहारों के समय बनाती आई हैं. ये डिजाइन सरल से लेकर बहुत जटिल हो सकती हैं. इन्हें बनाने की शुरुआत बहुत सामान्य तरीके से हुई, जिनमें चावल का आटा, गेहूं का आटा, हल्दी आदि प्रमुख रहे हैं. समय के साथ इसमें भी बदलाव हुए, और अब इन्हें रंगीन पाउडरों और चूने-चाक आदि से भी बनाया जाता है.
रंगोली को चावल के आटे से बनाने के पीछे तर्क ये था कि इसके जरिए व्यक्ति यम-नियम के संस्कारों का पालन कर सकता था. रंगोली के डिजाइन में बिखरे चावल के आटे और चावल के दानों को चींटी-चिड़िया खाते थे.
कहां से आया रंगोली शब्द, पूरा इतिहास
'रंगोली' शब्द संस्कृत की 'रंगावली' से आया है, जिसका मतलब है 'रंगों की लाइन'. संस्कृत में अवली का अर्थ है पंक्ति. ये दीवाली के 'दीपावली' जैसा है, जो 'दीपों की पंक्ति' है. इस तरह दीपों के त्योहार का रंगोली से बड़ी आसानी से नाता जुड़ जाता है.
कामसूत्र में भी होता है विस्तार से जिक्र
भारतीय किताबों में रंगोली जैसी कला का विस्तार से जिक्र कामसूत्र में है. कामसूत्र का प्रामाणिक काल तीसरी सदी का माना जाता है. काम सूत्र में सुंदरता, सजावट को भी मन को प्रसन्न रखने का जरिया बताया गया है. रंगोली जैसी कला भी इसका हिस्सा है. ऋषि वात्स्यायन लिखते हैं कि सुगंधित दीपों से प्रकाशित, उत्तम धूम से सुवासित (सेंटेंड धुआं) और स्वच्छ-सजा हुआ दर्शनीय कक्ष, जिसकी दीवारें और फर्श भी देखने में रुचिकर हो,मनोविनोद-कामक्रीड़ा के लिए उपयुक्त है.
शिल्प शास्त्र में रंगोली को वास्तु कला का अंग कहा गया
छठी सदी की किताब नारद शिल्प शास्त्र में भी विवाह की सजावट के लिए जमीन पर बनने वाली रंगावली का उल्लेख है. दसवीं सदी के कई साहित्य में धूलि चित्र और 'भौम चित्र' का उल्लेख मिलता है. बहुत से प्राचीन मंदिरों के फर्श पर उकेरी हुई सजावटी आकृतियां नजर आती हैं. संभव है कि किसी उत्सव और मंदिर के समारोह के दौरान इन आकृतियों में चावल के आटे और हल्दी भर दी जाती होगी और एक खूबसूरत कलाकृति को जमीन पर आकार मिल जाता होगा.
यज्ञवेदी को रंगोली से घेरने की परंपरा
वेदों में रंगोली का सीधा जिक्र नहीं मिलता है, लेकिन यज्ञवेदी को भी सुंदर रेखीय कलाकृतियों से घेरने का विधान मिलता है. जहां धान की चतुर्भुज रेखा के जरिए यज्ञ क्षेत्र को घेरा जाता था. इसके साथ ही स्वास्तिक को बनाया जाना भी रंगोली का स्वरूप है.
जब रंगोली के जरिए मिली थी देवर्षि नारद को शाप से मुक्ति
नारद पुराण में एक कथा आती है कि देवर्ष नारद से कोई भूल हो गई. उस भूल के प्रायश्चित के लिए उन्हें 84 लाख यौनियों में बारी-बारी से जन्म लेने का शाप मिला. नारद मुनि इस शाप से बचने का उपाय खोजने लगे. तब नारद मुनि तीनों प्रमुख देवताओं के पास गए, लेकिन तीनों ही उनके इस पाप को काटने में समर्थ नहीं थे. तब विष्णु जी ने ही उन्हें सुझाव दिया कि आप अपने गुरु की शरण में ही जाएं. नारद मुनि के सामने समस्या आई कि गुरु किसे बनाएं? तब विष्णुजी ने कहा- कल सुबह सागर तट पर जो पहला व्यक्ति मिले उसे ही गुरु समझ लेना.
नारदजी सागर तट पर पहुंचे तो एक मछुआरा जाल डालने आया था. देवर्षि ने उनके पांव पकड़ लिए और 84 लाख योनियों से मुक्ति की मांग करने लगे. पहले तो मछुआरे ने आनाकानी की और इस पचड़े से निकलने की सोचने लगा, लेकिन जब नारद मुनि ने बहुत जोर डाला तो मछुआरे ने सागर तट पर कंकर से 84 रेखाएं खींच दीं और उनसे बोला कि इसे पार कर जाओ. नारद मुनि लोट-लोट कर उन रेखाओं को पार कर गए और इस तरह वह श्राप से मुक्त हो गए.
जमीन पर एक वृत्त में खींची गई ये 84 रेखाएं भी जीवन का प्रतीक मानी गई और इस तरह पहली बार जमीन पर खींची गई आकृति में एक असंभव कल्पना को साकार किया गया. यही रंगोली थी.
शरीर तंत्र को ब्रह्मांड से जोड़ने की कल्पना है रंगोली
रंगोली केवल जमीन पर बनी हुई डिजाइन नही है. यह वह कल्पना है जिसके जरिए शरीर तंत्र को ब्रह्मांड तंत्र से जोड़ने की कल्पना की जाती है. कुंडलिनी जागरण, शरीर चक्र आदि सभी कुछ रंगोली की आकृतियों की ही तरह है.
रंगोलियां देवता, जानवर, फूल (कमल), लक्ष्मी के पैरों के निशान, स्वास्तिक या ओम जैसे होती हैं. कई बार ये सिर्फ लाइनें, बिंदु और ज्यामितीय आकृतियां होती हैं जो सरल से लेकर घुमावदार हो सकती हैं. ये गणित की तरह समरूपता और पैटर्न वाली भी हो सकती हैं. रंगोली सिर्फ लाइनें नहीं, बल्कि संस्कृति, धर्म और समय का चिह्न है. ये भले ही बदलती रहती है, लेकिन परंपरा बनी रहती है.
विकास पोरवाल