एक फैसला आया कि बांग्लादेश में बच्चों के समग्र विकास के लिए स्कूलों में म्यूज़िक टीचर्स की नियुक्ति होगी. तुरंत ही जमात से जुड़े धार्मिक संगठन इसके विरोध में उतर आए और फिर यूनुस की सरकार चुपचाप अपने फैसले से पलट गई, यानी स्कूलों में संगीत सीखने के विकल्प को सरकार ने हटा दिया. फिर सरकार के इस फैसले का विरोध हुआ. इस बार बांग्लादेश में बाउल संगीत साधक, स्टूडेंट्स और स्वतंत्र चेतना से जुड़े वर्ग सड़क पर थे. एक तरफ ढाका की यूनिवर्सिटीज में प्रदर्शन हो रहे थे तो दूसरी तरफ बाउल सड़कों पर विरोध में थे. और यहीं से बाउल संगीत साधकों पर हालिया अत्याचार की घटना की शुरुआत हुई. अमेरिकी सेना के जाने के बाद तालिबान ने कुछ वर्षों पहले जैसे ही अफगानिस्तान की सत्ता अपने हाथ ली थी ऐसे ही फैसले लिए थे. स्कूल-कॉलेज के दरवाजे लड़कियों के लिए बंद हो गए. कामकाज और सार्वजनिक जगहों पर लड़कियों की मौजूदगी दिन-ब-दिन कम होती गई. इस फैसले को आप इसी तरह से देख सकते हैं.
एक बाउल को देखकर पहली बार में कोई भी कह सकता है कि ये सिर्फ संगीत साधक हैं. सिर्फ संगीत, गाना, समाज में होते हुए भी समाज से अलग रहना ही इनका जीवन और इनके जीवन का मकसद है. पर अगर आप उनके होने के मायने को समझेंगे तो लगेगा कि ये सिर्फ संगीत के लिए नहीं या सिर्फ संगीत के साधक नहीं है. उनके जीवन का उद्देश्य इसमें छिपा होता है. जिंदगी भर बाउल अपने उसी उद्देश्य को खोजते-पाते-गंवाते हैं, इसमें संगीत सिर्फ एक माध्यम होता है.
इसे लेकर बांग्लादेश में एक हलचल है, खासकर बाउल संगीत से जुड़े साधकों और प्रशंसकों में. ऐसे ही एक साधक हैं अब्देल मन्नान जो कहते हैं कि ये कुछ नया नहीं है, हम तो अंग्रेजों के जमाने से ऐसे अत्याचार-यातनाएं झेल रहे हैं. बांग्लादेश में बाउल-फकीर पर हमले और हालिया प्रतिबंध के सवाल पर अब्देल मन्नान कहते हैं- बांग्लादेश में बाउल-फकीरों पर अत्याचार कुछ नया नहीं है. अंग्रेज जब शासन करते थे उस समय से ऐसी यातनाएं होती रही हैं.
इतिहास के पन्नों को पलटेंगे तो पता चलेगा कि कैसे आजादी की लड़ाई से काफी पहले अंग्रेजों ने स्वच्छंद विचार को बढ़ावा देने वाले बाउल-फकीरों पर शिकंजा कसना शुरू किया था. और इसी से त्रस्त होकर उस वक्त देश के पूर्वी हिस्से में संन्यासी विद्रोह भड़का था. 18वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ ऐसे ही लोगों ने विद्रोह फूंका था. ये विद्रोह उस वक्त संयुक्त बंगाल में इतने बड़े पैमाने पर फैला कि ये उत्तर बंगाल से होते हुए बिहार के कई हिस्सों में फैल गया था. बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के आनंदमठ में इस आंदोलन का पुख्ता जिक्र है. विद्रोह के वर्णन में उन्होंने लिखा है कि कैसे एक गुप्त आंदोलन बड़े पैमाने पर अंग्रेजों के लिए मुश्किल खड़ा करने वाला बन गया था, जिसमें हिंदू बाउल और मुस्लिम फकीरों की बराबर भागीदारी थी.
उसी आंदोलन को याद करते हुए अब्देल मन्नान कहते हैं, 'लालन फकीर तो बाद में आए लेकिन उससे पहले बाउल-फकीरों ने ये दौर देखे. उस वक्त अंग्रेजों ने भी धर्मांध मुस्लिमों के जरिए फकीरों के दमन की कोशिश की थी. कई बाउल की हत्याएं की गई, गांव पर गांव फूंक दिए गए. और अंग्रेजों से आजादी के बाद आज भी बांग्लादेश में संन्यासियों के लिए हालात कभी नहीं बदले. चाहे बीएनपी हो, हसीना हों या फिर यूनुस- हर एक दौर में बाउल हमले के शिकार हुए हैं, उनकी परंपरा को कुचल देने का प्रयास हुआ है. इस मौजूदा सरकार (मुहम्मद यूनुस नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार) में यहां कट्टरपंथियों को खुली छूट मिल गई है, संन्यासियों पर खुलेआम अत्याचार हो रहे हैं. यूनुस तो खुद अमेरिका के हाथों से चलते हैं और यहीं कट्टरपंथी ताकतें अपने हिसाब से चल रही हैं. ये लोग नहीं चाहते कि देश में बाउल-फकीर भी रहें.' अब्देल मन्नान खुद एक बाउल गायक के साथ-साथ लेखक हैं. उन्होंने बाउल संगीत और उससे जुड़े आयामों पर दर्जनों किताब लिखी है.
बांग्लादेश में जिस बाउल गायक को गिरफ्तार किया गया है वो तो अल्लाह के नाम पर जो बोल रहे हैं जो बातें कुरान की ही हैं. फिर भी उन्हें गिरफ्तार किया गया है. बांग्लादेश में स्वाधीन, स्वच्छंद लोगों के अधिकार छिन लिए जा रहे हैं. वहाबी समुदाय के लोगों को इस्तेमाल किया जा रहा है.
बांग्लादेश में आगे बाउल के लिए क्या रास्ता होगा, अधिकार के साथ अस्तित्व की लड़ाई कैसे लड़ाई जाएगी? इस सवाल पर गहरी चिंता जाहिर करते हुए अब्देल उम्मीद से भरे शब्दों में कहते हैं- 'इसी सरकार में ही नहीं हमेशा ही ऐसे हालातों का सामना करना पड़ा है. बाउल फिर भी बचे हैं. जितने भी हमले हों, बाउल का अस्तित्व खत्म नहीं होगा. ये सरकार अभी तक ऐसा नहीं कर पाई है और आगे भी नहीं कर पाएगी. हम जितने भी हैं एकजुट होकर लड़ाई लड़ रहे हैं. सड़क से लेकर अदालत तक हम लड़ेंगे और अपना अस्तित्व बचाएंगे. इन सबका कारण है यहां मुस्लिम समुदाय का कट्टरपंथी विचार जो नहीं चाहते कि यहां बाउल-फकीर रहें. वो सोचते हैं कि वे सत्ता में आएंगे पर ऐसा नहीं होने वाला, कभी नहीं होगा.'
बांग्लादेश में कट्टरपंथी विचारों के शिकार सिर्फ बाउल और फकीर नहीं ही नहीं है लेखक-फिल्ममेकर भी रहे हैं. बांग्लादेश से निर्वासन की टीस आज भी तस्लीमा नसरीन को चैन से जीने नहीं देती. पिछले साल ही आजतक से बातचीत में तस्लीमा नसरीन ने ऐसे हालातों की ओर संकेत किया था. उन्होंने खास इंटरव्यू में आजतक से कहा था- राजनीति या फिर नेताओं का मतलब ही हुआ कि धर्म का इस्तेमाल करना.मैंने इस्लाम की आलोचना की इसलिए मुस्लिम कट्टरपंथी मेरे खिलाफ हो गए थे. एक के बाद एक फतवा और सरकार के एक्शन न लेने के चलते मुझे बांग्लादेश छोड़ना पड़ा था.
बांग्लादेश के मौजूदा हालात पर तस्लीमा नसरीन ने कहा था- बहुत ही खराब अवस्था है,बहुत ही खराब. शेख हसीना ने कट्टरपंथियों को प्रमोट किया. वो जिंदगी भर सत्ता में रहना चाहती थीं. उन्होंने बीएनपी को खत्म कर दिया था और ऐसे ही चुनाव करवाया था. उन्होंने धर्म को खूब बढ़ावा दिया, कट्टरपंथियों को काफी महत्व दिया, मदरसा की डिग्री सामान्य कॉलेज की डिग्री के बराबर कर दी गई थी. उन्होंने कट्टरपंथियों को खुश करने का काम किया था, उन्हें लगता था कि ये कट्टरपंथी उन्हें बचाएंगे. उन्होंने अवामी लीग के अंदर कट्टरपंथियों का ग्रुप बना रखा था. आवामी उलामा लीग बना ली थी, जो इस्लामी तकरीर देते हैं. ये तकरीर देने वाले एंटी-महिला, एंटी-हिंदू, एंटी समाज होते हैं.
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बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी और हिफाजत-ए-इस्लाम जैसी संस्थाओं ने स्कूलों में संगीत और संगीत की पढ़ाई का विरोध किया है. स्कूलों में सिलेबस से म्यूज़िक को हटाने की बात की जिसके बाद प्राथमिक स्कूलों में संगीत और फिजिकल एजुकेशन के शिक्षकों की भर्ती योजना रद्द कर दी गई. एक तरफ स्वतंत्र चिंतन के लोग इस फैसले के खिलाफ थे वहीं मूल रूप से जमात और उससे जुड़ी संस्थाएं इसके समर्थन में हैं. संगीत प्रेमियों के समुदाय ने इसके खिलाफ विरोध किया तो कई बाउल-फकीर विरोध और हमले का शिकार हुए. इसी दौरान बांग्लादेश के मशहूर बाउल अब्दुल सरकार अरेस्ट कर लिए गए. अब्दुल सरकार को उस वक्त अरेस्ट किया गया जब वो मदारीपुर में एक म्युजिक शो कर रहे थे. उन पर दंगा, हिंसा फैलाने और धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचाने जैसे आरोप लगे हैं. और ये एक्शन इसलिए हुआ कि एक इमाम ने उनके हालिया शो के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करा दिया था. और इसे ही धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला बताया गया है.
ऐसे मामले में जमात लगातार बांग्लादेश में विरोध में है.बाउल के समर्थन में जैसे ही ढाका में रैलियां निकाली गईं तौहिदी जनता नाम की संस्था के तहत भीड़ ने कई गायकों पर हमले किए. बांग्लादेश के आजाद चिंतकों को डर है कि ये रोक, प्रतिबंध यही नहीं रुकने वाला. कट्टरपंथियों के आगे महिलाओं की आजादी तो पहले ही घेरे में है. आने वाले दिनों में गीत-संगीत के अलावा, थियेटर, खेलकूद, फिल्म जैसे क्रिएटिव फील्ड में भी इसका असर पड़ने वाला है.
एक तरफ लालन फकीर ने धर्म निरपेक्ष समाज से जुड़ी चेतना पर अपने गीत रचे तो अब्बास अहमद ने आधुनिक लोकसंगीत में भटियाली, मारफती और मुर्शिदी को लोकप्रिय किया. उनके गीत आज भी लोकप्रिय हैं और दोनों तरफ (बंगाल और बांग्लादेश) खूब पसंद किए जाते हैं. बांग्लादेश-पश्चिम बंगाल में बाउल संगीत की एक विधा नहीं है, इसे बाउल दर्शन (Baul Philosophy) कहा जाता है. गुरु-शिष्य परंपरा के रास्ते होते हुए जब इस हिस्से में बाउल की यात्रा आगे बढ़ी तो इसमें लालन फकीर जैसी हस्तियां मजबूत हस्ताक्षर के तौर पर आईं. कहा जाता है कि लालन फकीर ने कई हजार गीत रचे और उनके शिष्य आज भी उन्हें जिंदा रखे हुए हैं. मूल मानवीय पहलुओं के साथ-साथ उनके गीत रहस्य, योग और दर्शन की बात करते हैं.
दरअसल बाउल में जो सिंगर वैष्णव यानी कि हिंदू परंपरा से आते हैं वो 'बाउल' के तौर पर आगे बढ़ते हैं. वो योग, भक्ति, दर्शन और साधना की बात करते हैं. सब मोहमाया के चक्कर में है, इसी से आगे बढ़ने और खुद को निजात दिलाने की खोज होती है. उनके नाम के आगे बाउल जुड़ जाता है. वहीं, इस दर्शन में जो साधक मुस्लिम समुदाय से आते हैं या सूफी रास्ते से जुड़ते हैं उन्हें फकीर कहा जाता है. इनके दर्शन में भी खोज खुद की ही होती है. सामाजिक भेदभाव, माया, कट्टर विचारों पर ही गीत होते हैं.
बांग्लादेश के कुशतिया आश्रम में हर साल लालन फकीर मेला होता है जो बाउल साधकों के लिए किसी तीर्थ मेले से कम नहीं है. एक बड़ा वर्ग इसे लालन फकीर की जन्मस्थली मानता है. कुश्तिया जिले के चेउरिया गांव में लालन फकीर का अखाड़ा है.
धर्म निरपेक्ष गाने का कल्चर यहां पर वैष्णव और सूफी इस्लाम दोनों की धारा का मिलन होता है. देहतत्व रूपक, प्रतीक संकेत के जरिए इंसान को समझाया जाता है कि उसके इस लोक में होने का क्या मतलब है. धर्मीय जाल को तोड़ने की कोशिश करते हुए बाउल साधक आज भी विचारों के सफर में हैं. 19वीं सदी में बाउल गीत उस वक्त सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुए जब पश्चिम बंगाल में वृंदावन दास ने चैतन्य देव पर जीवनी लिखी. कृष्णदास कविराज ने जीवनी लिखी. पूरी परंपरा ही धर्म से परे गुरु-शिष्य परंपरा के साथ आगे बढ़ने की है. बाउल अखाड़ा होते हैं जहां दल-बल के साथ ये रचते-बसते हैं. पुरुष या महिला, सभी एक साथ रहते हैं.
पश्चिम बंगाल में भी हर साल बीरभूम जिले के बोलपुर में बाउल मेला होता है. बीरभूम जयदेव बाउल मेला में हजारों लोग आते हैं. बांग्लादेश से भी सैकड़ों की संख्या में लोग आते हैं. अगर आज के बाउल और उनके गीतों की बात करें तो पूर्ण दास बाउल को उनके प्रशंसक, शिष्य बाउल किंग कहते हैं. सिर्फ देश ही नहीं बल्कि विदेशी फलक पर भी इन्होंने बाउल को अलग मुकाम पर पहुंचाया है. साथ ही पार्वती बाउल, पाबना दास बाउल भी काफी मशहूर हैं. पूर्ण दास बाउल के खयापा बैंड ने इंडो-वेस्टर्न म्युजिक का एक गजब फ्यूजन बनाया है जो कि कई दशकों से लोग सुन रहे हैं.
बोलपुर ब्लूज़ (Bolepur Bluez) जैसे बहुत ही मशहूर बैंड हैं. कार्तिक दास बाउल के गीतों को आप एक फ्यूजन की तरह देख सकते हैं. पारंपरिक बाउल के मूल्यों के साथ रॉक और इलेक्ट्रानिक उपकरणों के साथ ये बैंड कुछ नई ही रचना करता है. बंगाल ही नहीं यूरोपीय देश और अमेरिका में भी इनके शोज होते हैं.
बंगाल ही नहीं बांग्लादेश में भी ये विरासत तभी जिंदा रह सकती है जब आजाद चिंतन और उन्हें फलने-फूलने का मौका मिलेगा. अगर एकतारे पर दबाव पड़ेगा तो इसका तार टूट जाएगा. इसी उम्मीद के साथ जैसा कि बाउल कहते हैं- जय गुरु!
केशवानंद धर दुबे