'न तो कारवां की तलाश है...', 65 साल पुरानी है ये कव्वाली जिसने 'धुरंधर' में रंग जमा दिया है

धुरंधर फिल्म में शामिल 65 साल पुरानी कव्वाली 'न तो कारवां की तलाश है' ने संगीत प्रेमियों का दिल जीत लिया है. यह कव्वाली 1960 की फिल्म 'बरसात की रात' की है, जिसे रोशन ने संगीतबद्ध किया था और जिसमें मन्ना डे, मोहम्मद रफी, आशा भोंसले जैसे महान गायकों ने आवाज दी थी.

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धुरंधर फिल्म में फिर से जादू जगा रही है 65 साल पुरानी कव्वाली धुरंधर फिल्म में फिर से जादू जगा रही है 65 साल पुरानी कव्वाली

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 12 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 5:06 PM IST

मौसम सर्द हो चला है, माहौल कुछ अलसाया हुआ है और दिसंबर की धूप नरम-नरम सी सरसराहट ले आती है. ऐसे आलम में आदमी क्या चाहे? बस इतना कि वाइब करने के लिए कोई तराना जुबां पर आ जाए. कितनी भी कोशिश कर लो, नए गाने तो यूं ही आपकी जुबां पर आने से रहे और फिल्मों में दौर भी ऐसा चल रहा है कि जैसे लौट-लौट के पुराना फैशन बदन पर सजने लगता है वैसे ही गुजरे जमाने के गीत भी एक दिन लौट आते हैं.

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कुछ ऐसा ही आजकल हुआ है. धुरंधर फिल्म का ट्रेलर आया... आखिरी बीते सेकेंड में एक धुन सुनाई दी... 'न तो कारवां की तलाश है... बीते शुक्रवार को फिल्म भी आ गई. किस्सा शुरू हुआ भी न था कि स्क्रीन पर चल रही तमाम मार-धाड़ और टशन के बैकग्राउंड में वही 65 साल पुरानी कव्वाली सज रही थी.

न तो कारवां की तलाश है,
न तो हम सफर की तलाश है.

मेरे शौक़-ए-खाना खराब को,
तेरी रहगुज़र की तलाश है

मेरे नामुराद जुनून का
है इलाज कोई तो मौत है

जो दवा के नाम पे ज़हर दे
उसी चारागर की तलाश है

न तो कारवां...

हालांकि फिल्म में तो इस हसीन कव्वाली की दो के बाद तीसरी लाइन भी इस्तेमाल नहीं की गई है, लेकिन जो है और जितना है वो उसी 65 साल पुराने अंदाज में ही है. धुन वही लेकिन टोन और पिच ऊंचा है जो रणवीर सिंह के किरदार को सूट कर रहा है.

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फिर भी नए पैकेट में पुराना माल देखकर खुशी भी होती है और थोड़ा सा दुख भी. तो चलिए पहले आपको बताते हैं इस कव्वाली के बारे में, इसकी बनने की कहानी और इसकी खासियत के बारे में.

13 मिनट की कव्वाली में सर्वधर्म समभाव की खुश्बू
धुरंधर में इस कव्वाली को सुनकर वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म समीक्षक पंकज शुक्ल से इसकी अहमियत और खासियत पर बात की. पंकज बताते हैं कि, 1960 में फिल्म आई थी बरसात की रात. उस फिल्म में ये कव्वाली इस्तेमाल की गई थी. साहिर लुधियानवी के खूबसरत शब्दों में पिरोयी हुई और भारत की सर्वधर्म समभाव वाली, गंगा-जमुनी तहजीब को अपने में समेटते हुई, ये कव्वाली फिल्म का खास हिस्सा बन जाती है, क्योंकि जिस मौके पर फिल्म में यह प्रदर्शित है, एक तरह से 'बरसात की रात' फिल्म की कहानी को आगे ब़ढ़ाने का काम करती है.

इसे उस दौर में संगीतकार रोशन ने संगीतबद्ध किया था और तब ये अपने समय की सबसे लंबी अवधि की कव्वाली थी. इतनी लंबी अवधि का दूसरा कोई फिल्मी गीत बिरले ही याद आता है. वह बताते हैं कि इस कव्वाली से शाहरुख खान काफी प्रभावित रहे और उन्हें यह पूरी मुंह जुबानी याद है.

'कोई चार मिनट का गाना सुनता नहीं और तुम...'
एक और वाकया वह याद करते हुए बताते हैं कि इसे कंपोज करने के बाद जब रोशन अपने घर गए तो उन्होंने अपनी पत्नी से इस पर चर्चा करते हुए बताया कि 'आज मैंने 13 मिनट की कव्वाली कंपोज की है. इस पर उनकी पत्नी ने कहा कि इन दिनों कोई चार मिनट का गाना नहीं सुनता, आप 13 मिनट की कव्वाली बना आए हो.' खैर फिल्म के निर्देशक थे पीएल संतोषी, और उन्हें इस कव्वाली पर पूरा भरोसा था और कहना न होगा कि उनका भरोसा सच भी हुआ.

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मन्ना डे, मोहम्मद रफी, आशा भोंसले के सुरों का जादू
इस कव्वाली में मन्ना डे, आशा भोंसले, एसडी. बातिश, सुधा मल्होत्रा और मोहम्मद रफ़ी जैसे महान गायक शामिल थे. इन सबने मिलकर एक ऐसी अनमोल धुन रची, जिसे बार–बार सुनने का मन करता है. यह कव्वाली भले ही लंबी है, लेकिन इसका हर एक सेकंड सुनने लायक है, अपने आप में संपूर्ण है और आम जिंदगी के किसी न किसी रहस्य को खोलता सा लगता है.

सूफी, निर्गुण, भजन... सबकुछ है इस कव्वाली में शामिल 
यह पूरी तरह कव्वाली भी नहीं. क्योंकि इसकी शुरुआत तो कव्वाली की तरह होती है, लेकिन फिर इसमें अध्यात्म भी दौड़ा चला आता है. यह सूफियाना और निर्गुण परंपरा के काव्य से शुरू होती है और इसकी धारा आगे जाकर गंगा-यमुना से मिल जाती है. जहां इसमें पहले राधा-कृष्ण और मीरा का दर्शन होता है. फिर कव्वाली बढ़ती है तो बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान पाने बैठे बुद्ध भी नजर आते हैं और आगे बढ़ते हैं तो मसीह भी अपनी दया का दामन फैलाए मिलते हैं.

यानी ये 13 मिनट लंबा सुरों का सफर ऐसा है जिसमें भजन भी है, कृष्ण की लीलाएं भी हैं, शास्त्रीय और सुगम संगीत भी है. ये ऐसा भी है जैसे कि कश्मीर से कन्याकुमारी के सफर पर निकला कोई मुसाफिर हो और इस बीच कोस-कोस पर बदले पानी का स्वाद लिए आगे बढ़ रहा है. ये यात्रा इतनी मनभावन है कि कोई शिकायत नहीं. कोई जल्दी नहीं, हर अंतरे के साथ उत्सुकता की कव्वाल अब कौन सी बात बताने वाला है और यही उत्सुकता इस कव्वाली का जादू है.

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गायकों की लहरदार आवाज और संगीत का अनोखा मिश्रण

गीत में जुटे गायकों की आकाशगंगा ऐसा जादुई मिश्रण तैयार करती है, जैसे लास्ट सपर वाली टेबल पर बैठे मसीह और उनकी साथियों की पेंटिंग, जिसमें उनके हाथ में वो प्याला है, जिसमें स्वर्ग का सबसे स्वादिष्ट पेय भरा है. कुल मिलाकर ये एक कव्वाली एक परफेक्ट 'फीलगुड' है. अब समझ आता है कि फिल्म के नाम 'बरसात की रात' के साथ ये कव्वाली इतनी रिलेट कैसे कर जाती है, क्योंकि जेठ की तपिश के बाद आषाढ़ में आई बरसात ही ऐसा फीलगुड का अहसास ला पाती है, और जब दिन भर की तपिश के बाद किसी रात अचानक ही बदरा बरसने चले आएं तो कहना ही क्या... जिन्होंने इसे महसूस किया है वह जानते हैं कि ऐसी बरसात वाली रात की सुबह कितनी धुली हुई सी और कितनी सुहानी होती है.

कव्वाली में आया है 86 बार इश्क शब्द
एक बार प्रख्यात गायक और लीजेंड मन्ना डे साहब ने भी एक इंटरव्यू में इस कव्वाली की दिल खोलकर तारीफ की थी. वह बताते हैं कि इस कव्वाली में 86 बार 'इश्क' शब्द आया है और साहिर ने इसका ऐतिहासिक महत्व भी बताया था कि हिंदी फिल्म संगीत के इतिहास में किसी भी गीत में एक शब्द इतनी बार नहीं आया. बाद में पाकीजा का 'चलते-चलते' जरूर इस श्रेणी में शामिल हुआ, जिसमें चलते-चलते की आवृत्ति बार-बार हुई है. मन्ना डे की जुबानी उसी इंटरव्यू की बात मानें तो इस कव्वाली की रिकॉर्डिंग महालक्ष्मी के पास 'फेमस स्टूडियो' में हुई थी. संगीतकार रोशन चाहते थे कि इसकी रिकॉर्डिंग में किसी भी तरह का शोर या कोई बाहरी आवाज कहीं से भी न आ जाए. इसलिए इसकी रिकॉर्डिंग रात 12 बजे के बाद ही हुई जब लोकल ट्रेन की भी आवाजाही बंद हो गई.

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जब रफी से 'हारे' मन्ना डे 
इस कव्वाली की एक और खासियत है कि मन्ना डे की आवाज जिस गायक की प्रतिनिधि आवाज बनी थी, वह इस फिल्म में मोहम्मद रफी की आवाज वाले गायक से हार जाता है. इस पर मन्ना डे ने कहा था कि ये तो कहानी और फिल्म की मांग है. वैसे कोई हारता-जीतता नहीं है. जहां मेरी आवाज जरूरी थी वहां इस्तेमाल हुई.

फिर वह जिक्र करते हैं कि इसी तरह 'केतकी गुलाब जूही चंपा वन फूले' जैसे विशुद्ध शास्त्रीय राग आधारित गीत में पं. भीमसेन जोशी जी का किरदार मुझसे हार गया था. जबकि मैं तो इतना क्लासिकल भी नहीं हूं. (इसका जिक्र पं. भीमसेन जोशी ने दूरदर्शन पर प्रसारित एक इंटरव्यू में भी किया था) इसी तरह किसी जमाने में पं. वीडी पलुस्कर साहब का किरदार अमीर खां साहेब (गीत- आज गावत मन मेरो झूम के) से संगीतमय प्रतिस्पर्धा में हारता हुआ दिखाया जाता है. फिल्म में दिखाई हार-जीत का किसी गायक पर असर नहीं पड़ता है.

कहानियां ही ऐसी थीं. जैसे बैजू बावरा में बैजू एक नया नवेला लड़का है जो तानसेन को चुनौती दे रहा है. सभी जानते हैं कि तानसेन संगीत का सरताज है तो उसकी आवाज पंडित भीमसेन जोशी बने. उस किरदार के गाने में गंभीरता अधिक होनी ही चाहिए थी. बैजू बने युवक के लिए मेरी आवाज चुनी गई. यही कहानी है. हारता कोई नहीं है, संगीत ही जीतता है.

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ये कव्वाली भी 10 साल पहले आई कव्वाली से थी प्रेरित
खैर 'न तो कारवां की तलाश है' कव्वाली की इतनी बात हुई है तो एक बात और बता दें कि, ये कव्वाली मुबारक अली और फतह अली (नुसरत साहब के वालिद) की 1950 में गाई कव्वाली "न तो बुतकदे कि तलब मुझे" से प्रेरित रही थी. न तो बुतकदे कि तलब मुझे आज भी बहुत मशहूर है. कभी मौका लगे तो उसे भी सुन आइएगा.

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