दिवाली के पटाखे नई बात नहीं... पितरों की विदाई के लिए होता रहा है प्रयोग, स्कंद पुराण में जिक्र

दिवाली के अवसर पर पटाखों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 18 से 21 अक्टूबर तक ग्रीन पटाखों के उपयोग की अनुमति दी है, जिससे पर्यावरण संरक्षण और सांस्कृतिक परंपराओं के बीच बहस छिड़ गई है. पौराणिक कथाओं में पटाखों का उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन प्राचीन काल से आकाशदीप दान और उल्का दान जैसे अनुष्ठान होते रहे हैं.

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दिवाली पर पटाखों का इस्तेमाल पौराणिक काल से हो रहा है, स्कंद पुराण में आतिशबाजी का जिक्र मिलता है दिवाली पर पटाखों का इस्तेमाल पौराणिक काल से हो रहा है, स्कंद पुराण में आतिशबाजी का जिक्र मिलता है

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 16 अक्टूबर 2025,
  • अपडेटेड 1:51 PM IST

दिवाली के आने के साथ ही 'पटाखा बैन' की बहस ने अपनी जगह ले ली है. दिल्ली-एनसीआर वालों को सुप्रीम कोर्ट ने पटाखों के साथ दिवाली मनाने की मंजूरी दी है हालांकि यह छूट सिर्फ 18 से 21 अक्टूबर तक के लिए है और इसके लिए भी समय सीमा तय की गई है. यह छूट भी सिर्फ ग्रीन पटाखों के लिए है. हालांकि ग्रीन क्रैकर्स के इस्तेमाल को लेकर भी एक्सपर्ट, पर्यावरण कार्यकर्ताओं और आरडब्ल्यूए तक में बहस हो रही है.

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क्या पुराणों में है पटाखों का जिक्र?

पटाखों की तमाम बहस के बीच एक तर्क दिया जाता है कि क्या पटाखे पौराणिक हैं? दिवाली मनाने का आम कॉन्सेप्ट ये है कि श्रीराम जब लंका से अयोध्या आए तब खुशियों के दीप जलाए गए थे. लोगों का सवाल होता है कि क्या श्रीराम के आने के बाद पटाखे भी फोड़े गए थे? क्या उनका अस्तित्व भी था?

पटाखों की बहस का चक्र घूमते हुए जब उल्टी दिशा में घूमने लगता है तो पटाखों की उत्पत्ति का सोर्स-सिरा खोजना जरूरी हो जाता है. हालांकि पटाखों या आतिशबाजी का व्यापारिक प्रयोग का इतिहास 600 से 700 साल पुराना मिलता है. जब बारूद का इस्तेमाल हथियार बनाने के अलावा भी छोटे-छोटे तौर पर होने लगा था.

हालांकि भारतीय पौराणिक मिथकों और व्रत परंपराओं में पटाखों का सीधा जिक्र नहीं मिलता है, लेकिन कुछ विधान ऐसे हैं जो प्राचीन काल में पौराणिक आधार पर पटाखों या उनसे मिलती-जुलती गतिविधि की मौजूदगी का आभास देते हैं. ऐसा भी हो सकता है कि वही प्रक्रिया आज बदलकर पटाखे जलाने के तौर पर विकसित हुई है.

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स्कंद पुराण क्या कहता है?

स्कंद पुराण के वैष्णव खंड में जहां कार्तिक मास का महत्व बताया गया है,  इसी अध्याय में कार्तिक मास में किए जाने वाले विधानों का भी जिक्र है. इस विधान में सबसे प्रमुख है आकाशदीप दान और उल्का दान.

कार्तिक मास महात्म्य खंड में जिक्र आता है कि कार्तिक महीने में भगवान विष्णु के विश्व रूप का ध्यान करते हुए और पितरों की प्रसन्नता के लिए उनको समर्पित करते हुए व्योमदीप या आकाशदीप दान करना चाहिए.

'दामोदराय विश्वाय विश्वरूपधराय च,
 नमस्कृत्वा प्रदास्यामि व्योमदीपं हरिप्रियम्‌॥'

(मैं सर्वस्वरूप एवं विश्वरूपधारी भगवान् दामोदर को नमस्कार करके यह आकाशदीप देता हूं जो भगवान को परम प्रिय है.)

इसी तरह आगे आकाशदीप दान का महत्व बताते हुए भी इसके बारे में लिखा गया है कि आकाशदीप दान करते हुए मैं इसे पितरों, प्रेतों और धर्म के प्रतीक विष्णु, यम के लिए और रुद्र के लिए समर्पित कर रहा हूं.

'नमः पितुभ्यः प्रेतेभ्यो नमो धर्माय विष्णवे,
नमो यमाय रुद्राय कान्तारपतये नमः'

('पितरों को नमस्कार है, प्रेतों को नमस्कार है, धर्मस्वरूप विष्णु को नमस्कार है, यमराज को नमस्कार है तथा दुर्गम पथ में रक्षा करने वाले भगवान्‌ रुद्र को नमस्कार है.')

स्कंदपुराण कहता है कि इस मंत्र को बोलते हुए जो भी व्यक्ति दुर्गम, ऊंचे स्थानों, कांटों से भरे मार्गों और कीटों के रहने वाले स्थान पर आकाशदीप दान करता है, पितृ, प्रेत, भगवान विष्णु और खुद रुद्र उनसे प्रसन्न होते हैं.

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आकाशदीपक और उल्काहस्त का मिलता है जिक्र
स्कंदपुराण में ही दीपदान कई प्रकार के बताए गए हैं. देवस्थान पर दीपदान यानी मंदिर में दीपक जलाना, जल दीपदान यानी जल के स्रोतों पर दीपक जलाना, वृक्ष दीपदान यानी पेड़ की जड़ के पास दीप जलाना, एकांत दीपदान, यानी निर्जन अंधेरे स्थान पर दीपक जलाना और आकाशदीप दान यानी आकाश में दीपक जलाना...

सवाल है कि आकाश में दीपक कैसे जलाया जा सकता है? उसे रखा भी कहां जा सकता है?

ऐसा होता रहा होगा कि आकाशदीप को किसी ऊंचे स्थान पर रखा जाता होगा. प्राचीन मंदिरों में बने ऊंचे-ऊंचे दीप स्तंभ इसके प्रमाण हैं. महल की सबसे ऊपर छत, राज्य की रक्षा मीनारों (वाच टॉवर) पर, गढ़ की ऊंची दीवार पर या फिर क्षेत्र की सबसे ऊंची पहाड़ी के ऊपर दीपदान को आकाशदीप दान की मान्यता दी गई थी.

इसके अलावा आज हम जिस तरह की उड़ने वाली कंदील का प्रयोग करते हैं, वैसे भी दीपकों को जलाकर आकाश में उड़ाने का पुराना चलन रहा है. माना जाता रहा है कि आकाशदीप दान के जरिए ही जो प्रकाश होता है, इसके ही सहारे पितृ पक्ष में विदा हुए पितृ देवलोक से अपने पितृलोक को वापस जाते हैं. आकाशदीप दान को बहुत पवित्र माना गया है और इसके अनुष्ठान का जिक्र स्कंद पुराण में विस्तार से किया गया है.

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क्या थी आकाश उल्का?

पौराणिक आख्यानों में आकाश उल्का का भी जिक्र आता है. आकाश उल्का का अर्थ है, आकाश में उड़ते हुए चिंगारी छोड़ते हुए चमक पैदा करते उपकरण. प्राचीन काल में सरकंडों के अगले सिरों पर राल लगाकर, या उन्हें अरंडी के तेल में भिगोकर उन्हें जलाने का विधान है. इससे सरकंडे जो कि अंदर से लगभग खोखले होते हैं और इनमें रुईनुमा गूदा पाया जाता है, वह चिट-चिट की आवाज के साथ चिंगारी छोड़ते हुए जलता है.

इन सरकंडों को जलाकर इन्हें पैराबोलिक एंगल पर फेंका जाता था. जिससे ये आकाश में चिंगारी छोड़ते हुए जलते थे और फिर धरती पर गिरते हुए बुझ जाते थे. नदियों के किनारे, खुले मैदानों, कटाई वाले खेतों में इन सरकंडों को जलाकर फेंका जाता था. यही आकाश उल्का या उल्कादान की परंपरा थी.

स्कंद पुराण, वैष्णव खंड (2), कार्तिक मास महात्म्य (खंड 4) में दीपावली पर किए जाने वाले अनुष्ठान (अध्याय 9), का जिक्र श्लोक 65 से मिलता है. यहां ये विधान पितृों को मार्ग दिखाने के लिए ही बताया गया है. इसे उल्काहस्त विधान भी कहा गया है.

तुलासंस्थे सहस्रांशौ प्रदोषे भूतदर्शयोः ।

उल्काहस्ता नराः कुर्युः पितॄणां मार्गदर्शनम् ॥ 65 ॥

नरकस्थास्तु ये प्रेतास्ते मार्गं तु व्रतात्सदा ।

पश्यंत्येव न संदेहः कार्योऽत्र मुनिपुंगवैः ॥ 66 ॥

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अर्थ: जब सूर्य तुला राशि में हो, चतुर्दशी और अमावस्या की रात्रियों में, लोगों को पितृों को मार्ग दिखाने का उपाय करना चाहिए. इसके लिए उन्हें चमकदार अग्नि का प्रयोग करना चाहिए. यह अनुष्ठान मृतकों और नरक में आत्माओं को मार्ग दिखाता है.

चकमक पत्थर की धमक से आतिशबाजी

प्राचीन काल में आग जलाने के लिए चकमक पत्थर का प्रयोग किया जाता था. दो पत्थरों को आपस में टकराने पर तेज ध्वनि के साथ चिंगारी पैदा होती थी. यह भी आग के खेल के तौर पर चलन में रहा है. पत्थरों का आपस में टकराना तेज आवाज पैदा करता था और इसके साथ उठने वाली चमक उत्साह पैदा करती थी. धीरे-धीरे यही प्रक्रिया और विधान पटाखों का रूप लेते गए और फिर आगे चलकर बारूद वाले पटाखे आने लगे, जिन्होंने तेज आवाज और केमिकल रिएक्शन के साथ रंगीन चमक पैदा की. इससे दिवाली का पर्व और भी अधिक रंगीन होता गया.

आग क्यों इतना महत्व रखती है

दरअसल आग की खोज ने ही आदिमानव का विकास संभव बनाया इसलिए भी अग्नि और इससे जुड़ी परंपराएं तेजी के साथ संस्कृति का हिस्सा बनती चली गईं.

आग की इस स्वीकार्यता को आप दुनिया भर की हर सभ्यता में देख सकते हैं. ईरान का त्योहार है चाह-शंबे-सुरी, लोग आग के इर्द-गिर्द जुटते हैं और छलांग लगाकर लौ को पार करते हैं. क्रिसमस पर आग के आस-पास घेरा बनाकर कैरल (प्रभु ईशू के जन्म के गीत) गाए जाते हैं. क्रिसमस पर भी पटाखे फोड़ने का चलन उनकी सभ्यता के साथ ही समानंतर गति से जारी है.

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दिवाली की सफाई में आतिशबाजी का महत्वपूर्ण योगदान

भारत में दिवाली का त्योहार वर्षा ऋतु के बाद आता है. वर्षा काल अपने साथ धन-संपदा और हरियाली तो लाता है, लेकिन इसके साथ ही तमाम तरह की बीमारियां, वायरस-बैक्टीरिया वाले रोग, नमी-सीलन से होने वाली बीमारियां भी लाता है. इस दौरान कीट पतंगे भी बढ़ जाते हैं. वर्षा काल छछूंदरों के प्रजनन का भी काल है और उनकी संख्या बढ़ जाती है. इन सभी पर नियंत्रण भी पटाखों के जरिए होता है. जैसे आजकल बड़े शहरों और सोसायटियों में कीटनाशक धुएं की फॉगिंग कराई जाती है, पटाखों का धुआं बड़े पैमाने पर इसी फॉगिंग का काम करता था इसलिए दिवाली पर आतिशबाजी का चलन रहा है.


पटाखों का पुराना सोर्स लखनऊ के नवाबों के दौर में भी मिलता है और इसके अलावा बंगाल में दुर्गा पूजा के दौरान भी पटाखों का उल्लेख मिलता है और आतिशबाजी को 17वीं-18वीं सदी की कंपनी पेंटिंग में भी दिखाया गया है.

कुल मिलाकर दिवाली पर आतिशबाजी कोई नया चलन नहीं है, बल्कि साल दर साल इसमें आधुनिकता जु़ड़ती गई है और तरीका बदला गया है. हालांकि यही बदला हुआ तरीका यानी बारूद से होने वाला प्रदूषण इसके बैन का कारण बन रहा है. इन तर्कों और इतिहास को देखें तो समझ में आता है कि पटाखे बैन करने की जरूरत के बजाय पटाखों के बनाने की प्रक्रिया में बदलाव की है. अभी ग्रीन पटाखा इसका विकल्प बन रहा है, हो सकता है कि आगे और भी सुविधाजनक टेक्निक का विकास हो सके.

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