छठ पर्व के आराध्य देवता हैं सूर्य, जानिए क्या है उनकी उत्पत्ति की कहानी

ऋग्वेद के दशम मंडल में मौजूद हिरण्यगर्भ सूत्र ब्रह्मांड के उत्पत्ति की वैदिक व्याख्या प्रस्तुत करता है, जिसमें जीवन के प्रारंभ को ब्रह्मांड रूपी पिंड के विस्फोट से जोड़ा गया है. यह श्लोक बिगबैंग थ्योरी के समान वैज्ञानिक दृष्टिकोण को दर्शाता है.

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छठ पर्व के आराध्य देवता हैं सूर्य देव, उनकी उपासना का जिक्र ऋग्वैदिक काल से मिलता है छठ पर्व के आराध्य देवता हैं सूर्य देव, उनकी उपासना का जिक्र ऋग्वैदिक काल से मिलता है

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 25 अक्टूबर 2025,
  • अपडेटेड 7:43 AM IST

छठ महापर्व की आज से शुरुआत हो चुकी है. लोक आस्था के इस महापर्व में व्रत छठी माता का होता है और पूजा सूर्यदेव की होती है. इस तरह सूर्य ही इस पर्व के आध्यात्मिक देवता और शक्ति हैं. उन्हें वैदिक काल का प्रथम देवता माना जाता है. वह आदित्यों और देवताओं में सबसे बड़े हैं और वैदिक काल की प्राचीन परंपरा के प्रथम देवता भी वही हैं, जिनका जिक्र ऋग्वेद से ही मिलना शुरू हो जाता है.

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ऋग्वेद के दशम मंडल में हिरण्यगर्भ सूत्र लिखा मिलता है.

हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ (सूक्त- ऋग्वेद -10-121-1)

इस सूत्र का यह श्लोक ब्रह्मांड के सामने आने की या उत्पन्न होने की व्याख्या करता है. वेदों में यहीं पहली बार 'हिरण्यगर्भ' शब्द का इस्तेमाल हुआ है, जिसका अर्थ है ब्रह्मांड रूपी अंडा. ये श्लोक कहता है कि जीवन एक पिंड के भीतर था. इस पिंड में विस्फोट हुआ और फिर इससे ही ब्रह्मांडीय तत्वों का विकास हुआ है. श्लोक की व्याख्या आज के वैज्ञानिक शब्द बिगबैंग थ्योरी के करीब पहुंचती है, इससे यह भी स्पष्ट होता है कि धरती, जल, अग्नि, आकाश और वायु के ही साथ-साथ चंद्रमा और सूर्य का बनना भी इसी पिंड के विस्फोट का नतीजा है. 

सूर्य, जीवन को धारण करने वाला पिंड
फिर भी सूर्य को लेकर अधिक दिलचस्पी इसलिए है क्योंकि यह भी माना जाता है कि सूर्य ही वह पिंड था, जिसके भीतर जीवन था और सभी इसी से उत्पन्न हुए हैं. इसीलिए इस पिंड को हिरण्यगर्भ कहा गया है. हिरण्य का अर्थ है सोने जैसा या सुनहला. इसीलिए सूर्यदेव का एक नाम हिरण्य और हिरण्यगर्भ भी है. 

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सूर्य, धरती के लिए प्रकाश-गर्मी और एनर्जी का सोर्स है और वैदिक ऋषियों द्वारा पहचाना गया सबसे पहला देवता भी है. सुनहरे, उजले और आग की तरह दहकते हुए रंग के कारण ही सूर्य को अपना सबसे पहला नाम हिरण्यगर्भ मिला है. हिरण्य शब्द का अर्थ सुनहरा होता है. ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूत्र के पहले श्लोक में सूर्य को धरती और आकाश को धारण करने वाला बताया गया है, और इसी रूप में उसकी उपासना करने के लिए भी कहा गया है.

कैसे हुआ सूर्य का जन्म?
सूर्य का जन्म कैसे हुआ? इस सवाल का जवाब विष्णु पुराण में दर्ज है. कथा के अनुसार विराट पुरुष (पुराणों में भगवान विष्णु को पहले विराट पुरुष कहा गया है) की इच्छा से दूध जैसा सफेद एक सागर बना. उस क्षीर सागर में पीपल का पत्ता बना और इसी पत्ते पर एक शिशु लेटा हुआ दिखा. यह शिशु अपनी ही इच्छा से विकसित होता गया और पूर्ण पुरुष बन गया. उसके चार हाथ थे और सिर पर नागों की छाया थी. उस विराट पुरुष ने आंखें खोलीं तो नेत्रों से निकला प्रकाश सूर्य बन गया. मन से बना चंद्रमा. कानों से ध्वनि और उसकी सांस लेने की इच्छा के कारण ही ब्रह्नांड प्राण वायु से भर गया. 

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लेकिन विष्णुपुराण से पहले ही यजुर्वेद में इसका जिक्र अधिक सटीक तरीके से हुआ है. 

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत,
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च हृदयात्सर्वमिदं जायते.

भावः उस विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा,चक्षु (आंखों) से सूर्य, श्रोत्र से वायु तथा प्राण और हृदय से यह सम्पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ.

भगवान विष्णु की आंखों से उत्पन्न होने के कारण ही सूर्यदेव उनके ही नाम नारायण से जाने जाते हैं, इसीलिए संसार में उन्हें सूर्य नारायण कहा जाता है. यह भी कहते हैं कि सूर्य को नमस्कार करना,उसकी पूजा करना असल में भगवान विष्णु की ही पूजा-उपासना है. 

आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्,
सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति.
(आकाश से गिरा हुआ जल, जिस तरह सागर में ही जाता है. सभी देवताओं को किया गया नमस्कार, केशव यानी नारायण को ही पहुंचता है)

इसके अलावा ब्रह्म पुराण भी सूर्य के शक्तिशाली प्रभाव और उनके ऐश्वर्य को स्वीकार करता है. ब्रह्मपुराण कहता है,
मानसं वाचिकं वापि कायजं यच्च दुष्कृतम्,’
सर्व सूर्य प्रसादेन तदशेषं व्यपोहति.

यही वजह है कि देवताओं में सूर्य को सबसे श्रेष्ठ और नारायण की तरह ही सम्मानित बताया जाता है. हालांकि देवताओं के राजा इंद्र हैं. पुराण कहानियां कहती हैं कि इस पद पर अलग-अलग समय पर अलग-अलग इंद्र रहे हैं. सूर्य को उन देवताओं में शामिल बताया जाता है जो कि इंद्र की सभा में बैठते हैं. इसके बावजूद कई कहानियां ऐसी हैं कि, जिनमें सूर्य की जगह देवताओं में सबसे अलग और ऊंची रही है. 

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कई कथाओं में सूर्य को सभी देवताओं के रक्षक के रूप में बताया गया है. कहानी के मुताबिक एक बार देवों की लड़ाई दैत्यों के साथ हो गई. दैत्य जीत गए और देवताओं को भागना पड़ा. तब सभी देवता अपनी मां अदिति के पास गए. अदिति ने उनकी परेशानी सुनी तो वह सूर्य की उपासना करने लगीं. सूर्यदेव प्रकट हुए तब अदिति ने उनसे पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान मांगा. सूर्य ने उन्हें अपनी मां बनने का वरदान दे दिया. अदिति के बेटे के रूप में जन्म लेने के कारण सूर्य का एक नाम आदित्य भी है. 

आदित्यों में सबसे बड़े सूर्य
अदिति के इंद्र समेत 12 बेटे हैं. इन सभी को आदित्य कहा जाता है, लेकिन कई जगहों पर सूर्य को इन आदित्यों में सबसे बड़ा भाई गिना जाता है. हालांकि फिर भी देवताओं का राजा इंद्र है, सूर्य नहीं, लेकिन सूर्य को उनके त्याग, तप, लगातार जलते और तपते रहने की उनकी विशेषता के कारण उन्हें ईश्वर के बराबर का दर्जा मिला है. सूर्य के जन्म की इस कथा का वर्णन ब्रह्मांड पुराण में मिलता है, जिसमें ब्रह्मांड के बनने की व्याख्या की गई है.

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