जगन्नाथ प्रभु के रथ का पहिया टूटा, मंदिर में नहीं मिला महाप्रभु को प्रवेश! कैसे पूरी हो पाएगी रथयात्रा?

नीलाद्रि बिजे रथ यात्रा का अंतिम अनुष्ठान है, जो आषाढ़ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को होता है. यह भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र, देवी सुभद्रा और भगवान सुदर्शन के मंदिर में वापसी का समारोह है. एक-एक करके, देवताओं को उनके संबंधित रथों से जय-विजय द्वार के जरिये से मुख्य मंदिर में औपचारिक जुलूस के साथ ले जाया जाता है.

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रथयात्रा का अंतिम दिन है नीलाद्रि बिजे, श्रीमंदिर में होता है तीनों देवताओं का प्रवेश. तस्वीर में जगन्नाथ से रूठी हुई लक्ष्मी. (Photo- Grok AI) रथयात्रा का अंतिम दिन है नीलाद्रि बिजे, श्रीमंदिर में होता है तीनों देवताओं का प्रवेश. तस्वीर में जगन्नाथ से रूठी हुई लक्ष्मी. (Photo- Grok AI)

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 07 जुलाई 2025,
  • अपडेटेड 6:11 PM IST

अभी तो बड़े धूमधाम से रथयात्रा निकली थी. जगन्नाथ प्रभु अपने भाई-बहन के साथ गुंडिचा तीर्थ के लिए गए थे, लेकिन अचानक क्या हुआ? जगन्नाथ महाप्रभु के रथ का पहिया कैसे टूट गया? किसने तोड़ दिया और क्यों? इन सारे प्रश्नों के उत्तर में एक बहुत खूबसूरत पारिवारिक ताना-बाना कसा हुआ है.

ओडिशा के पुरी में निकलने वाली जगन्नाथ रथ यात्रा सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि एक पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था का प्रतीक भी है. इस यात्रा में जहां भगवान का भक्तों से जुड़ाव झलकता है तो वहीं इस यात्रा के दौरान अपनाई जाने वाली परंपरा खुद भगवान जगन्नाथ की पारंपरिक परंपराएं होती हैं, जिनकी झलक आमतौर पर हमारे-आपके घरों में भी दिख जाती है.

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रथयात्रा का आखिरी दिन होता है नीलाद्रि बिजे
महाप्रभु की रथयात्रा का आखिरी दिन होता है नीलाद्रि बिजे. जिसका अर्थ है, जगन्नाथ यानी नीलमणि प्रभु की विजय. खास बात ये है कि ये विजय किसी शत्रु, असुर,  दैत्य या राक्षस पर नहीं पायी जाती है, बल्कि यह विजय है हृदय पर. किसी के मन पर. किसके? खुद जगन्नाथ प्रभु द्वारा अपनी पत्नी लक्ष्मी के हृदय पर. 

असल में नीलाद्रि बिजे रथ यात्रा का अंतिम अनुष्ठान है, जो आषाढ़ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को होता है. यह भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र, देवी सुभद्रा और भगवान सुदर्शन के मंदिर में वापसी का समारोह है. एक-एक करके, देवताओं को उनके संबंधित रथों से जय-विजय द्वार के जरिये से मुख्य मंदिर में औपचारिक जुलूस के साथ ले जाया जाता है. जब एक देवता रत्न सिंहासन पर स्थापित हो जाते हैं, तब अगले देवता के लिए जुलूस शुरू होता है. इसे 'गोटी पहांडी' के नाम से जाना जाता है.

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यह हर साल होने वाला एक पांरपरिक अनुष्ठान है और लोक कलाकार बकायदा नृत्य करते हुए इसका मंचन करते हैं. नीलाद्रि बिजे की पटकथा पांच दिन पहले, यानी हेरा पंचमी को लिख दी जाती है. इसे समझने के लिए पहले पुरी में प्रचलित इस लोककथा को समझना होगा.

श्रीमंदिर में भगवान की वापसी यात्रा बाहुदा रथयात्रा कहलाती है

क्यों नाराज हो गईं देवी लक्ष्मी?
हुआ यूं कि भगवान जगन्नाथ तो रथयात्रा निकाल कर देवी गुंडिचा के मंदिर चले गए, लेकिन देवी लक्ष्मी को न तो कुछ बताया था और न ही ये कहा कि वे कब लौटेंगे. इससे देवी लक्ष्मी ने एक दिन इंतजार किया, दूसरे दिन किया. तीसरे दिन भी मन मसोसकर रह गईं, चौथे दिन तो गु्स्से में भर गईं और पांचवें दिन इतनी क्रोधित हो गईं कि पूछो मत. उन्होंने श्रीमंदिर का दरवाजा खोला और गुस्से में ही निकल गईं महाप्रभु को खोजने. घबराए सेवक पीछे-पीछे दौड़े और किसी तरह आग्रह करके पालिका में बिठाया और ले चले उन्हें देवी गुंडिचा के धाम. देवी लक्ष्मी के इस तरह जगन्नाथ को खोजने निकलने की परंपरा पुरी में हेरा पंचमी कहलाती है.

गुंडिचा मौसी के घर के बाहर पहुंचते ही उन्होंने देख लिया कि महाप्रभु भाई-बहनों के साथ झूला झूल रहे हैं और पकवान खा रहे हैं. देवी लक्ष्मी जैसे ही गुंडिचा धाम के द्वार पर पहुंची तो जगन्नाथ प्रभु के सेवकों ने उन्हें रोक दिया और बोले- आप अंदर नहीं जा सकतीं देवी. महालक्ष्मी क्रोध में बोलीं- क्यों?  दरबारी कहने लगे- नीलमाधव (भगवान जगन्नाथ) ने मना किया है और इसी दौरान उन्होंने जोर से द्वार बंद कर लिया. 

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इस दौरान देवी लक्ष्मी के सेवकों और नील महाप्रभु के सैनिकों में टकराव हो जाता है. दोनों ही एक-दूसरे पर भारी पड़ते हैं, कोई नतीजा न निकलता देख देवी लक्ष्मी गुस्से में वहीं खड़े महाप्रभु के रथ का चक्का तोड़ देती हैं और श्रीमंदिर वापस आ जाती हैं. यहां वापस आकर वह द्वार बंद कर लेती हैं.

इधर जगन्नाथ को पता चलता है कि, बाहर क्या-क्या घटना हो गई तो वह घबराए हुए भैया बलभद्र और देवी सुभद्रा से सहायता मांगते हैं, लेकिन दोनों ही इसमें सहायता और हस्तक्षेप से मना कर देते हैं.  

रूठी पत्नी को मनाने निकले महाप्रभु
अब जगन्नाथ क्या करें? दो दिन इसी सोच-विचार में निकल जाते हैं. फिर किसी तरह वह श्रीमंदिर रवाना होने की तैयारी करते हैं. श्रीमंदिर तक वापसी की यह यात्रा बहुड़ा कहलाती है. इसी दौरान महाप्रभु अपने साथ गोल-गोल रसगुल्लों की मटकी भी रख लेते हैं. क्यों? अपनी रूठी हुई पत्नी को मनाने के लिए. 

हेरा पंचमी के दिन गुंडिचा धाम में कलाकारों द्वारा हर वर्ष ये स्वांग किया जाता है, जिसे देखने के लिए श्रद्धालुओं की बड़ी भीड़ उमड़ती है. हेरा पंचमी के बाद त्रयोदशी के दिन जो अगला तमाशा होने वाला होता है, वह और भी मजेदार होता है.  

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इसमें कुछ ऐसा होता है कि, बारहवें दिन, शाम के अनुष्ठानों के बाद, देवता मुख्य मंदिर में लौटते हैं. देवताओं को गोटी पहांडी जुलूस में एक-एक करके रत्न सिंहासन (गर्भगृह) में ले जाया जाता है. गोटी पहांडी जुलूस में देवता एक के बाद एक चलते हैं, यानी अगला देवता तब तक रथ से नहीं चलता जब तक कि पिछला देवता अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच जाता. भगवान जगन्नाथ को मंदिर में प्रवेश क्यों नहीं करने दिया जाता?महालक्ष्मी, भगवान जगन्नाथ की पत्नी, इस बात से नाराज थीं कि उनके पति ने उनके बजाय अपने भाई-बहनों को गुंडिचा मंदिर ले गए. 

उन्हें मुख्य मंदिर में छोड़ दिया गया था और वे इस यात्रा का हिस्सा नहीं थीं. हेरा पंचमी के दिन, देवी महालक्ष्मी गुंडिचा मंदिर में भगवान जगन्नाथ से मिलने गईं, लेकिन उन्होंने गुंडिचा मंदिर का द्वार बंद कर दिया और उनसे नहीं मिले. इन कार्यों के कारण, महालक्ष्मी का क्रोध अभी भी बना हुआ है.

देवी लक्ष्मी ने रोक दिया जगन्नाथ जी का रथ

अब नीलाद्रि बिजे के दिन, मंदिर में जो वापसी का समारोह भक्तों, सेवकों और मंदिर अधिकारियों की उपस्थिति में होता है, वह बड़े आनंद और उत्साह के साथ शुरू होता है. उधर, देवी महालक्ष्मी 'भेट मंडप' (मंदिर के सिंहद्वार के बाईं ओर स्थित एक उभरे हुए मंच) से नंदीघोष रथ (भगवान जगन्नाथ के रथ) की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखती हैं. वे भगवान बलभद्र, देवी सुभद्रा और भगवान सुदर्शन को मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति देती हैं, लेकिन जैसे ही भगवान जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं, तो वे अपने सेवकों के जरिए जय विजय द्वार बंद करा देती हैं. 

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इस तरह वह भगवान जगन्नाथ के प्रवेश को रोकने का आदेश देती हैं. जय विजय द्वार खोलने के सभी अनुरोध ठुकरा दिए जाते हैं और भगवान जगन्नाथ एक अपराधी की तरह बाहर खड़े रहते हैं. बेचारे जगन्नाथ कुछ नहीं कह पाते, वह रथ से उतर जाते हैं, द्वार की सांकल बजाते हैं, लेकिन महालक्ष्मी के आदेश के कारण किसी सेवक की हिम्मत नहीं कि द्वार खोल दे. भगवान जगन्नाथ कोई प्रतिक्रिया नहीं देते और शांत रहते हैं. वे अपनी पत्नी द्वारा दी जा रही उलाहना और अपमान पर भी कुछ नहीं कहते हैं और सहन करते रहते हैं. 

फिर जब लक्ष्मी उलाहना देते हुए थक जाती हैं, और मुंह घुमा लेती हैं तब महाप्रभु बड़े प्रेम से उन्हें पुकारते हैं. अलग-अलग नाम लेकर उन्हें मनाने की कोशिश करते हैं. देवी का क्रोध और निराशा एक समूह सेवकों द्वारा व्यक्त की जाती है, जबकि दूसरा समूह भगवान जगन्नाथ का प्रतिनिधित्व करता है. अब होती है सबसे बड़ी और रोचक घटना. महाप्रभु को देवी की पसंदीदा मिठाई याद आती है. वह रसगुल्लों की मटकी उठाते हैं और धीरे-धीरे नीची नजरें किए हुए देवी महालक्ष्मी को भेंट करते हैं. 

इसलिए मनाया जाता है रसगुल्ला दिवस

यह दृश्य देखकर महालक्ष्मी पिघल जाती हैं. वह शांत होती हैं, उनकी माफी स्वीकार करती हैं और फिर मंदिर का द्वार खोल देती हैं, जिससे भगवान जगन्नाथ को प्रवेश की अनुमति मिलती है. मुख्य मंदिर में प्रवेश से पहले, भगवान जगन्नाथ और देवी महालक्ष्मी के सेवकों के बीच सिंहद्वार (जय विजय द्वार) पर एक पारंपरिक अभिनय होता है. भगवान जगन्नाथ को लक्ष्मी के पास बैठाया जाता है, जहां उनके पुनर्मिलन पर हर्ष बधाई दी जाती है. अंततः भगवान जगन्नाथ रत्न सिंहासन पर चढ़ते हैं और अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ फिर से जुड़ जाते हैं.

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नीलाद्रि बिजे को अपनी इसी परंपरा के कारण रसगुल्ला दिवस भी कहा जाता है. महालक्ष्मी को शांत करने और मंदिर में प्रवेश पाने के लिए, भगवान जगन्नाथ उन्हें रसगुल्ला भेंट करते हैं, इसलिए यह शुभ दिन, नीलाद्रि बिजे, ओडिशा में 'रसगुल्ला दिवस' के रूप में भी प्रसिद्ध है. इस अनुष्ठान के हिस्से के रूप में, हजारों भक्त गोटी पहांडी जुलूस में देवताओं को गर्भगृह में ले जाने से पहले रसगुल्ला भोग अर्पित करते हैं. ऐतिहासिक रथ यात्रा तब समाप्त होती है जब देवता रत्न सिंहासन (गर्भगृह) में पहुंच जाते हैं. पुजारी मंदिर में सामान्य दैनिक अनुष्ठानों को फिर से शुरू करते हैं, जिसमें महा स्नान (भव्य स्नान), उसके बाद बडा सिंहारा (रात का परिधान) और पहुड़ा (सोना) शामिल है. भक्त अगले दिन विश्व प्रसिद्ध 'महाप्रसाद' जिसे 'नीलाचल अभदा' के नाम से जाना जाता है, का स्वाद ले सकते हैं. जगन्नाथ के नियमित दर्शन भी शुरू हो जाते हैं. 

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