'अदरा चढ़ल बा...' बिहार-बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग यह तीन शब्द पढ़कर समझ गए होंगे कि यहां किसकी बात हो रही है? यह गांव की खालिस माटी से जुड़ी उस परंपरा की बात है जो किसानों के चेहरों पर मुस्कान ले आती है. जिसे सुनकर लड़कों-बच्चों के तन-मन भी खिल जाते हैं और घर की ठकुरानी (मालकिन) भंडार गृह की ओर रुख करती है ताकि पकवान बनाने के लिए घी, आटा, नए कुटे धान का चावल, जिसे अरवा चाउर (नया चावल) कहा जाता है, निकाले जा सकें. बगिया से आम मंगा लिए जाते हैं और शुरू हो जाती है अदरा पूजन की तैयारी.
असल में अदरा, अपभ्रंश है आर्द्रा का. आर्द्रा एक नक्षत्र है. जब जेठ के दिन बीत जाते हैं, तपती-जलती धरती पर आषाढ़ की पहली बूंदें पड़ती हैं, आम पकनारी होकर पीले हो चुके होते हैं तब मौसम सिर्फ धरती पर ही नहीं बदलता, आसमान में भी सितारों के बीच काफी कुछ बदलने लगता है. चंद्रमा के इर्द-गिर्द घूमने वाले नक्षत्र बदलने लगते हैं और धरती की सीध में आ जाता है आर्द्रा नक्षत्र.
27 नक्षत्रों में से एक है आर्द्रा
भारतीय ज्योतिष में जो 27 नक्षत्र शामिल हैं, आर्द्रा उनमें से एक है. आर्द्रा का अर्थ है नम. कहते हैं कि जब दक्ष प्रजापति ने चंद्रमा को क्षय हो जाने का श्राप दिया तो उनकी एक पत्नी आर्द्रा के आंसू नहीं थमे और नमी ही उसकी पहचान बन गई. इसलिए आषाढ़ में पड़ने वाले इस नक्षत्र को नमी का नक्षत्र भी कहते हैं. जब आसमान बरसने लगता है और धरती पर खेती की तैयारी शुरू होने वाली होती है, तब गांव के पंडित जी, या पुजारी बाबा पत्रा (पंचांग) देखकर ऐलानिया तौर पर बता देते हैं कि अदरा चढ़ल बा... यानी आर्द्रा नक्षत्र लग गया है. इसके बाद आर्द्रा पूजन की तैयारी हर घर में होने लगती है.
भारतीय परंपरा में बारिश के लिए महीनों के तौर पर सावन-भादों के बहुत गुण गाए हैं. नक्षत्रों में स्वाति नक्षत्र का नाम बहुत लिया गया है, लेकिन आषाढ़ का महीना बारिश का शुरुआती महीना होते हुए भी इस गीत-गवनई से कुछ अछूता रह गया है. नाटककार मोहन राकेश को धन्यवाद कहना चाहिए कि उन्होंने इस महीने की महिमा को समझा और 'आषाढ़ का एक दिन' नाम से महान कृति की रचना कर डाली, लेकिन आर्द्रा नक्षत्र फिर भी गुमनामी में रहा.
क्या है आर्द्रा नक्षत्र की महिमा?
आर्द्रा की महिमा को समझना हो तो ऐसे समझिए कि अगर स्वाति नक्षत्र प्यासे चातक की पिपासा को बुझाने का जरिया है आर्द्रा नक्षत्र उसके लिए एक संदेश है कि बस कुछ दिन का इंतजार और... मैं आया हूं को स्वाति का भी आगमन होगा ही. आर्द्रा एक तरह की निश्चिंतता का नाम है. यह इंतजार करती पत्नी के लिए पति का लौट आना भले न हो, लेकिन उनके जल्द लौटने की सूचना लिखी चिट्ठी जरूर है, जिसे सीने से लगाए इंतजार करते क्लांत (थके) हुए मन को थोड़ा तो शांत कर सकती है. यह अशोक वाटिका में बैठी विरही सीता के लिए श्रीराम का आगमन तो नहीं लेकिन वो आएंगे ऐसी आशा-ऐसा पूर्ण विश्वास देने वाले हनुमान का आना है. इसलिए भारतीय परंपरा भले ही बहुत धूम-धाम से सावन के झूलों पर तीज और कजरी गाते मिले, भले ही भादों की कारी रैना में कन्हैया का जन्मोत्सव मनाए लेकिन आर्द्रा को नहीं भूलती.
इसलिए जब और जैसे ही आर्द्रा नक्षत्र लगता है, ग्रामीण परंपरा उसके सामने नत हो जाती है, उसके स्वागत-सम्मान में खुशियां मनाती है, गीत गाती है और कहती है हे अदरा... तुम आई हो, आओ गले लगो. हमारे तन-मन और मिट्टी में नमी बनाए रखो. तुम हमारे खेतों में बसो, हमारे पनघटों पर विराजो, तुम मछलियों संग खेलो फूलों-फलों को चखो. उनके रस में घुल-मिल जाओ. हे अदरा... तुम बस बरस जाओ.
भारतीय परंपराएं खेती-किसानी से जुड़ी रही हैं इसलिए यहां खुशी भी खेती से होती है और गम की वजह भी खेती ही है, त्योहार भी खेती से हैं और उदासी भी खेतों से ही है. इसलिए प्राचीन काल से आजतक एक आम भारतीय की पहली कामना यही रही है कि 'इस वर्ष खेती अच्छी हो.'
वेदों की परंपरा का रूपांतरण
वेदों में भी अच्छी वर्षा के लिए यज्ञ विधान का जिक्र है, जिसमें वर्षाकाल आने से पहले इंद्रयज्ञ किए जाते हैं और उन्हें हवि के साथ पक्के भोजन, गोरस में पके धान और इक्षुरस (गन्ने) का जिक्र शामिल है. पक्के भोजन का अर्थ पकवान से है और इंद्र को अपूप यानी पूआ का भोग चढ़ाया जाता है. अपूप बनाने के लिए जौ के आटे से रोट बनाकर उन्हें घी में तला जाता था और फिर उन्हें मधु में डुबाकर मीठा किया जाता था. आज का चाशनी युक्त मालपुआ यहीं से आया है. गोरस में पके धान ही पयस यानी खीर कहलाए.
इस तरह अच्छी खेती के लिए वर्षा के राजा इंद्र को प्रसन्न किया जाता था. कुछ मान्यताएं ऐसी भी हैं कि इंद्र का आसन आर्द्रा नक्षत्र पर ही है. वैसे वैदिक ज्योतिष मानता है कि आर्द्रा नक्षत्र पर राहु का शासन है और इसके स्वामी देवता रुद्र हैं. रुद्र को वेदों में परिवर्तन, विनाश और तूफान का प्रतीक देवता माना जाता है. आर्द्रा नक्षत्र आमतौर पर जून के तीसरे सप्ताह में आता है और भारत में मानसून की शुरुआत से गहरा संबंध रखता है.
वर्षा से रहा है आर्द्रा नक्षत्र का संबंध
आर्द्रा नक्षत्र और वर्षा का संबंध हमेशा से रहा है और इस नक्षत्र के साथ होने वाली वर्षा संकेत देती है कि इस बार के चौमासे में वर्षा अच्छी होगी और अगले 12 वर्षों तक अकाल की स्थिति नहीं रहेगी. नदी-नद-तालाब आदि मीठे जल से भरे रहेंगे. आर्द्रा नक्षत्र में सूर्य के प्रवेश के दिन तथा समय के आधार पर आर्द्रा प्रवेश कुण्डली बनाई जाती है. इस वर्ष 22 जून 2025, आषाढ़ मास कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को रविवार के दिन, सुबह तकरीबन सवा छह बजे से आर्द्रा नक्षत्र की शुरुआत हुई है. इस बार सूर्य 6 जुलाई को आर्द्रा नक्षत्र में रहेंगे. यह समय लगभग 15 दिनों का होता है और इन 15 दिनों में किसी भी दिन आर्द्रा पूजन कर लिया जाता है.
बिहार में आर्द्रा नक्षत्र के दौरान खीर, दाल भरी पूरी और आम खाने की परंपरा है. यह त्योहार विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में मनाया जाता है और इसका महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है. आर्द्रा नक्षत्र के समय यह मान्यता है कि इन विशेष खाद्य पदार्थों का सेवन करने से परिवार में सुख-समृद्धि आती है और भगवान का आशीर्वाद प्राप्त होता है. खीर, दाल पूरी और आम का संयोग इस त्योहार को और भी खास बना देता है. भोजन सामान्य लेकिन पकवान स्वरूप बनता है, जिसमें परवल की मसालेदार सब्जी, पूड़ी-खीर, कचौड़ी, आम का अचार और पके आम जरूर शामिल होते हैं. आर्द्रा में सूर्य प्रवेश के साथ ही यह भी अंदाजा लगाया जाता है कि वर्षा होगी या नहीं होगी, कम या अधिक होगी, तूफान आदि की सम्भावनाएं भी इसके आधार पर देखी जाती हैं.
आर्द्रा नक्षत्र की परंपरा और लोकगीत
अपनी पुस्तक 'लोकगीत सी लड़की' के जरिए ग्रामीण परिवेश के लोक का प्रतिनिधित्व करने वाली युवा लेखिका, आर्द्रा नक्षत्र के आगमन को लेकर कहती हैं कि, हमारे गांव में, ग्रामीण परिवेश में आज भी खुश हो जाने के बड़े छोटे-छोटे और नैसर्गिक से बहाने हैं और पानी का बरसना तो ऐसा मानिए कि साक्षात अमृत ही है. बादल घिरता देखकर एक किसान की पत्नी जितना खुश होती है, उतना कोई नहीं होता है. क्योंकि उसने पति के मनोयोग को देखा है, कैसे वह भरी दोपहरी में रखवाली करता है, खर-पतवार हटाता है, बेहन डालता है, सींचता है. यहां तक की जाड़े की रात में भी जागकर-ठिठुरकर खेत की रखवाली करता है. बारिश देखकर वह प्रसन्न होती है कि अब इन सारी मेहनतों का फल मिलने वाला है. इसलिए बड़े प्रसन्न होकर वह गीत गाती है...
ई असाढ़ी बदरिया
मारे घोर रे नजरिया
आव सवनी दुलारी दुआर मोर
भिजा द दुआर मोर न
(ये आसाढ़ की बदली, बहुत नजर लगाती है, फिर वह सावन को सारा दुलार देकर कहती है कि हे सावन, तुम जल्दी आओ और अपने आने का संदेश देने के लिए मेरे द्वार पर मोर भेजो.)
आकृति कहती हैं कि आर्द्रा का मतलब है आर्द्रता का आगमन यानी झिमिर झिमिर का स्वागत, सावन के आने की पूर्व सूचना. अब आर्द्रा नक्षत्र लगता है तब उस पत्नी, प्रियतमा के मन में क्या चलता है, जिसका पति विदेश में बसता है, इसकी एक बानगी देखिए.
आइल अदरा नखतिया
कटी जलदी बकतिया
खुसियन असेस अइहे
सावन असेस लइहे
आर्द्रा नक्षत्र आ गया है, अब जल्द ही बस ये वक्त कट जाए, यानी बीत जाए और फिर खूब खुशियां आएंगी क्योंकि आगे सावन भी आएगा, जब धरती लहलहा जाएगी और हरियाली आएगी.
इसी तरह, अपनी किताब पारंपरिक लोकगीत में भी 'बारहमासा' नाम से एक गीत का जिक्र करते हुए गीता सिंह लिखती हैं कि, बारिश का पहला मौसम आसाढ़ ही है. इस दौरान जो जलधार बहती है वह प्रेम की अविरल धारा है जो तप्त धरती को सिक्त कर देती है. अपने गीत में वह लिखती हैं...
'प्रथम मास आसाढ़ हे सखी, साजी चलल
जलधार हे आहे यही प्रीति कारन
सेतू बान्हल सिया उदेश श्रीराम हे।।
सावन हे सखी शब्द सोहावन चहुंदिसी,
बारह महीनों में पहला आसाढ़ है, जब जलधारा बहने लगती है और प्रीति यानी प्रेम भी बढ़ता है. फिर सावन आता है, जो खुद सुहावना है और चारों ओर खुशियां छा जाती हैं. आसाढ़ में ही श्रीराम सेतु बांधने की योजना बनाते हैं और सीता जी से मिलन के लिए आगे बढ़ते हैं.
क्या कहती है जैन परंपरा?
आर्द्रा नक्षत्र अलग-अलग समुदायों में विविध परंपराओं की ओर भी इशारा करता है. जैन समुदाय में भी एक खास परंपरा है कि वे आर्द्रा नक्षत्र के पहले आम और जामुन खाने से परहेज करते हैं. यह प्रथा आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दोनों कारणों पर आधारित है. आध्यात्मिक रूप से, यह जैन धर्म के अहिंसा सिद्धांत पर आधारित है, जो मानता है कि हर जीवित प्राणी जीवित रहना पसंद करता है, जैसा कि जैनागम श्री दश वैकालिक सूत्र में कहा गया है- 'सौव्वे जिव्वी इच्छंति जिव्वुनु'
वैज्ञानिक रूप से, मानसून के दौरान इन फलों में सूक्ष्मजीवों का विकास होता है, और इनका सेवन पेट की समस्याओं और गैस जैसे स्वास्थ्य मुद्दों का कारण बन सकता है. इसके अलावा, संग्रहीत या पैक किए गए फलों में हानिकारक रसायन हो सकते हैं, इसलिए ताजे फलों को केवल उनके मौसम में ही खाना चाहिए, और मौसम के बाद, भले ही बाजार में उपलब्ध हों, उन्हें अनुचित (अभक्ष्य) और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना गया है.
खीर-पूड़ी और आम खाने का चलन
हिंदू परंपराओं में, आर्द्रा नक्षत्र के दौरान खीर (चावल और दूध से बनी मिठाई) और आम का सेवन किया जाता है, जो जीवन की मिठास और मानसून के साथ प्रकृति की उदारता का प्रतीक है. आम का दान करना भी परंपराओं में शामिल है, ताकि जिनके बाग बगीचे नहीं हैं वह भी आम जैसे आम फल का स्वाद ले सकें. एक मान्यता यह भी है कि आर्द्रा नक्षत्र में जब बहुत सारे लोगों के द्वारा आम खाया जाता है और उनकी गुठलियां नम भूमि में फेंकी जाती है वहां से दूसरी पौध भी तैयार होती है. जिसे आर्द्रा का ही आशीष माना जाता है.
कृषि संबंधी परंपराओं में, किसान आर्द्रा नक्षत्र के प्रवेश के बाद दो दिनों तक मिट्टी खोदने या जोतने से बचते हैं. ऐसा माना जाता है कि इस समय मिट्टी विश्राम की स्थिति में होती है और आने वाली बारिश के लिए तैयार होती है, और इसे परेशान करने से फसलों की उर्वरता और उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.
धार्मिक रूप से, आर्द्रा नक्षत्र पूजा और आध्यात्मिक गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण समय है. यह नक्षत्र साहित्य और कला में भी महत्वपूर्ण है. संस्कृत साहित्य में, इसे ऋतुओं के परिवर्तन और प्रकृति की सुंदरता के संदर्भ में उल्लेख किया जाता है. इसका जल तत्व से गहरा संबंध है, जो इसके नाम "आर्द्रा" (नम या गीला) से स्पष्ट है. यह जल से जुड़ाव इस अवधि के दौरान मनाई जाने वाली परंपराओं में दिखाई भी देता है.
नमी के उत्सव को मनाने का त्योहार है आर्द्रा
आर्द्रा नक्षत्र परिवर्तन और नवीनीकरण का समय है, जिसमें आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और कृषि शामिल है. इससे जुड़ी परंपराएं, चाहे वे आहार संबंधी प्रतिबंध हों, धार्मिक अनुष्ठान हों, या खेती से जुड़ी परंपराएं यह सभी प्रकृति और जीवन के चक्र की ओर हमारे सम्मान का प्रदर्शन है. आर्द्रा सिर्फ नमी को पूजने-मनाने की परंपरा वाला त्योहार नहीं है, यह याद दिलाता है कि आदमी के भीतर भी पानी मौजूद है, और मानवता के इस पानी को सूखने नहीं देना है, बाबा रहीम भी कह गए हैं, 'बिन पानी सब सून...'
विकास पोरवाल